सुशील कुमार सिंह

गांवों में बुनियादी सुविधाएं न होना, गांवों से पलायन और शहरों में जनसंख्या का दबाव बढ़ना, कृषि से जुड़ी अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ना, समावेशी विकास की दृष्टि से सही नहीं है। विशेषज्ञों की राय है कि भारत में तीव्र समावेशी विकास का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए कृषि क्षेत्र पर विशेष ध्यान देने की जरूरत होगी।

साम्राज्यवाद की समाप्ति के बाद भारत के समक्ष दो ही प्रमुख मुद्दे थे। पहला, राष्ट्र निर्माण और दूसरा सामाजिक-आर्थिक प्रगति। इसी पृष्ठभूमि में विकास प्रशासन का जन्म हुआ और समाज के बहुमुखी और नियोजित विकास पर जोर दिया जाने लगा। इस यात्रा को पचहत्तर वर्ष पूरे हो चुके हैं। इसमें कोई दुविधा नहीं कि आवाजविहीन, जड़विहीन और भविष्यविहीन विकास को तभी रोका जा सकता है, जब इसके लिए सुनियोजित और दूरदर्शी कदम निरंतर उठते रहें।

इसी कड़ी में समावेशी विकास, विकास की एक ऐसी परिकल्पना है, जिसमें रोजगार के अवसर निहित होते हैं और यह गरीबी को कम करने में मददगार साबित होता है। अवसर की समानता तथा शिक्षा और कौशल के माध्यम से लोगों को सशक्त करना भी इसका निहित लक्ष्य है। बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने, मसलन आवास, भोजन, पेयजल, स्वास्थ्य आदि समेत आजीविका के साधनों को निरंतर गतिशील बनाए रखना समावेशी विकास की लक्ष्योन्मुख अवधारणा है।

गौरतलब है कि देश कई ढांचों और उसमें निहित विकास की कई जमावटों से युक्त है, जिसमें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और तकनीकी विकास समेत अन्य शामिल हैं। इसी के अंतर्गत इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में समावेशी विकास को सशक्त करने की दिशा में मनरेगा योजना शुरू की गई थी। गौरतलब है कि इसे पहले नरेगा यानी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना नाम दिया गया था, फिर 2 अक्तूबर 2009 को इसमें महात्मा गांधी का नाम जोड़ते हुए इसे मनरेगा की संज्ञा दी गई।

इस योजना के माध्यम से देश के करोड़ों नागरिकों को लाभ मिल चुका है। यह योजना ग्रामीण रोजगार की दृष्टि से एक क्रांतिकारी पहल है। इसने देश के समावेशी ढांचे को न केवल पुख्ता किया, बल्कि पलायन से लेकर गरीबी और भुखमरी आदि पर भी अंकुश लगाने में कारगर सिद्ध हुई है। अगर सुशासन की दृष्टि से देखें, तो यह शासन की ओर से उठाया गया ऐसा कदम है, जो लोक सशक्तिकरण के साथ कदमताल करता और निहित मापदंडों में बुनियादी विकास की दृष्टि से आजीविका की एक बेहतरीन खोज है।

केंद्रीय बजट 2023-24 में मनरेगा के लिए साठ हजार करोड़ रुपए आबंटित किए गए हैं, जो 2022-23 के बजट में तिहत्तर हजार करोड़ के मुकाबले अट्ठारह फीसद और संशोधित अनुमान से करीब बत्तीस फीसद कम है। किसी भी योजना की प्रगति और सफलता में निहित बजट कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। बीते नौ वर्षों की पड़ताल बताती है कि सरकार मनरेगा को लेकर कहीं अधिक सकारात्मक रही है और हर बजट में अनुमान बढ़ी हुई दर में ही देखने को मिलते हैं, जबकि इस बार सरकार का रुख इससे कुछ ज्यादा ही विमुख हुआ है।

मुख्य आर्थिक सलाहकार की मानें तो मनरेगा के लिए बजट आबंटन घटाने से रोजगार पर कोई असर नहीं पड़ेगा। गौरतलब है कि मनरेगा के बजट में कटौती हुई है, मगर पीएम आवास योजना, ग्रामीण और जल-जीवन मिशन आदि मदों में राशि अच्छी-खासी बढ़ा दी गई है। माना जा रहा है कि इस प्रकार की योजनाओं से ग्रामीणों को रोजगार मिलने की उम्मीद है।

जबकि मनरेगा की तुलना रोजगार की दृष्टि से किसी अन्य से करना इसलिए संभव नहीं है, क्योंकि यह रोजगार की गारंटी योजना है, जबकि अन्य किसी मिशन में रोजगार की संभावना कम-ज्यादा के साथ वैकल्पिक होगी। मनरेगा में बजट की कटौती ग्रामीण रोजगार की दिशा में जारी समावेशी विकास के लिए भी नई समस्या बन सकती है। गौरतलब है कि कोरोना काल में बंदी के दौरान जब नगरों और महानगरों से करोड़ों कामगार अपने गांव-घर पहुंचे थे तो मनरेगा ने ही उनकी आजीविका चलाने में बड़ी भूमिका अदा की थी।

देखा जाए तो मनरेगा दुनिया का सबसे बड़ा सामाजिक कल्याण कार्यक्रम है, जिसने ग्रामीण श्रम में एक सकारात्मक बदलाव को प्रेरित किया है। आंकड़े बताते हैं कि कार्यक्रम के शुरुआती दस वर्षों में कुल तीन लाख करोड़ रुपए से अधिक खर्च किए गए और आजीविका और सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से यह गरीबों के लिए सशक्तिकरण का माध्यम बन गया।

वर्ष 2013-14 में मनरेगा के तहत कार्यरत व्यक्तियों की संख्या लगभग आठ करोड़ थी, जो 2014-15 में घट कर पौने सात करोड़ के आसपास हो गई। उसके बाद इसमें बढ़ोतरी भी हुई और कमोबेश ग्रामीण बेरोजगारों के लिए यह संजीवनी का रूप लिए हुए है। इसमें महिलाओं की संख्या आधी और किसी वर्ष तो आधी से अधिक भी देखी जा सकती है।

इसके तहत प्रत्येक परिवार के श्रम करने के इच्छुक वयस्क सदस्यों के लिए सौ दिन की गारंटी युक्त रोजगार, दैनिक बेरोजगारी भत्ता और परिवहन भत्ता, अगर पांच किलोमीटर दूर है, तो आदि का प्रावधान है। सूखा ग्रस्त क्षेत्रों और जनजातीय इलाकों में डेढ़ सौ दिनों के रोजगार का प्रावधान है। जनवरी 2009 से केंद्र सरकार सभी राज्यों के लिए अधिसूचित की गई मनरेगा मजदूरी दरों को प्रति वर्ष संशोधित करती है। मजदूरी का भुगतान न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948 के तहत राज्य में खेतिहर मजदूरों के लिए निर्दिष्ट मजदूरी के अनुसार ही किया जाता है।

गौरतलब है कि 1992 में पंचायती राज व्यवस्था को तिहत्तरवें संविधान संशोधन के अंतर्गत संवैधानिक स्वरूप दिया गया। यह स्थानीय स्वशासन भारत विकास की कुंजी सिद्ध हुआ। इसी पंचायती राज व्यवस्था को मनरेगा के तहत किए जा रहे कार्यों के नियोजन, कार्यान्वयन और निगरानी हेतु उत्तरदायी बनाया गया है। इस तरह पंचायती राज व्यवस्था शासन के विकेंद्रीकरण के साथ समावेशी ढांचे को भी मजबूती बनाने में कारगर सिद्ध हो रही है।

समावेशी विकास के लिए समावेशी ढांचे का होना आवश्यक है। गांवों में बुनियादी सुविधाएं न होना, गांवों से पलायन और शहरों में जनसंख्या का दबाव बढ़ना, कृषि से जुड़ी अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ना, समावेशी विकास की दृष्टि से सही नहीं है। संयुक्त राष्ट्र ने 2030 तक गरीबी के सभी रूपों, मसलन बेरोजगारी, निम्न आय और भुखमरी आदि को समाप्त करने का लक्ष्य तय किया है। सरकार ने 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य तय किया था। विशेषज्ञों की राय है कि भारत में तीव्र समावेशी विकास का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए कृषि क्षेत्र पर विशेष ध्यान देने की जरूरत होगी।

इस बार के बजट में कृषि के लिए पैकेज तैयार करने समेत ग्रामीण डिजिटलीकरण को बढ़ावा देने आदि का संदर्भ दिखता है। मगर यह नहीं भूलना चाहिए कि मनरेगा समावेशी विकास का पर्याय है, जो न केवल आर्थिक विकास के लिए, बल्कि यह एक सामाजिक और नैतिक अनिवार्यता भी है। ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी स्थायी या दीर्घकालिक रोजगार साधनों की आवश्यकता पूरी नहीं हुई है।

ऐसा इसलिए कि मनरेगा को रोजगार के स्थायी साधन के रूप में शामिल करना उचित नहीं होगा। मनरेगा एक अकुशल कर्मचारियों को दिए जाने वाले रोजगार की गारंटी योजना है। जब तक ग्रामीण क्षेत्रों में कौशल निर्माण करना संभव नहीं होगा, तब तक स्थायी रोजगार की संभावना कमतर रहेगी।

गौरतलब है कि देश में कौशल विकास के पच्चीस हजार केंद्र हैं, जिनमें से ज्यादातर शहरी क्षेत्रों में हैं, जबकि चीन जैसे बराबर की आबादी वाले देश में पांच लाख ऐसे केंद्र हैं। दक्षिण कोरिया और आस्ट्रेलिया जैसे कम आबादी वाले देशों में भी कौशल केंद्रों की संख्या एक लाख है। फिलहाल, मनरेगा गरीब समर्थक और आजीविका से युक्त रोजगार गारंटी की एक ऐसी योजना है, जहां रूखे-सूखे विकास के बीच रोजगार की हरियाली को अवसर मिलता है। ऐसे में इसकी शक्ति को न घटाया जाए तो देश की ताकत बढ़ेगी और ग्रामीण जनता आर्थिक झंझवातों से कुछ हद तक निजात पाएगी।