चंद्रशेखर तिवारी

उत्तराखंड के सीमांत जनपद चमोली में विगत रविवार को आई भारी प्राकृतिक आपदा ने सात साल पहले की केदारनाथ आपदा की भयावह यादें एक बार फिर से हरी कर दीं। नंदादेवी बायोस्फियर रिजर्व के अतंर्गत आने वाले रैणी गांव के समीप ऋषि गंगा नदी में आए जलप्रलय से आसपास के इलाके में बहुत नुकसान पहुंचा। ऋषि गंगा नदी के ऊपरी जलग्रहण इलाके में हिमनद का एक बड़ा हिस्सा टूट कर नदी में गिर जाने की वजह से नदी का जलस्तर बढ़ गया था।

आगे जाकर इसने बाढ़ का रूप लेकर नदी के आरपार के छोरों में भारी तबाही मचा दी। एकाएक आए इस जल प्रलय ने नदी के किनारे स्थित ऋषि गंगा जलविद्युत परियोजना को पूरी तरह नेस्ताबूद तो कर ही दिया, साथ ही आगे धौलीगंगा नदी पर तकरीबन अस्सी प्रतिशत बन चुकी तपोवन-विष्णुगाड़ जलविद्युत परियोजना को भी भारी नुकसान पहुंचा दिया।

रैणी और तपोवन इलाके के पांच पुल व कुछ मकान भी इस बाढ़ में बह गए। निश्चित तौर पर इस तरह की आपदाएं जहां बार-बार हिमालय के अति संवेदनशील मिजाज के प्रति हमें सजग रहने की चेतावनी देती आ रही हैं, वहीं इन आपदाओं से जब-तब यहां के नाजुक पारिस्थितिकीय क्षेत्र में बनाई जा रही भारी-भरकम़ जलविद्युत परियोजनाओं व अन्य बड़ी विकास परियोजनाओं के अस्तित्व पर भी सवालिया निशान भी उठ खड़े होते हैं।

यह विडंबना ही है कि प्रकृति के बचाव से जुड़े इस तरह के महत्त्वपूर्ण मुद्दों को समझे-बूझे बगैर अक्सर विकास विरोधी मानसिकता से देखा जाता है। समाज में कुछ दिनों तक चर्चा में बने रहने के बाद अतंत: ऐसे मुद्दे नजरअंदाज कर दिए जाते हैं। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2014 में देहरादून के पर्यावरणविद डा. रवि चोपडा़ की अध्यक्षता में बनी एक समिति ने अपनी रिपोर्ट में उच्च हिमालयी इलाकों में बनाई जा रही इस तरह की कई बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं को स्थानीय पर्यावरण के प्रतिकूल करार देने के बाद भी इन सिफारिशों को भुला दिया गया।

अगर हम उत्तराखंड के संदर्भ में देखें तो यहां की कुछ बड़ी विकासपरक परियोजनाओं खासतौर पर भारी-भरकम जलविद्युत परियोजनाओं व गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ व बदरीनाथ को जोड़ने वाली चौड़ी आॅलवेदर रोड जैसी तमाम महत्त्वाकांक्षी परियोजनाओं के निर्माण में हिमालय की स्थानीय भौगोलिक संरचना और पर्यावरण से जुड़ी अनेक स्थानीय समस्याओं की पूरी तरह अनदेखी की गई है।

देखा जाए तो इन परियोजनाओं के मूल में विकास की वह अवधारणा व्याप्त है जो त्वरित लाभ प्रदान करने वाली तो है, पर सतत अथवा दीर्घकाल तक नहीं। विशुद्ध लाभ की आकांक्षा वाली इस तरह की विकास परियोजना अक्सर पर्यावरण के प्रतिकूल रहती हैं और देर-सबेर प्राकृतिक आपदाओं को बढ़ावा देने का काम करती हैं। आपदाएं चाहे प्राकृतिक हों अथवा मानवजनित, इनका दु:खद परिणाम अंतत: जन-धन व संपदा के नुकसान रुप में सामने आता है।

उत्तराखंड हिमालय की उत्तरी पर्वत श्रृंखलाएं जहां तीव्र ढाल व बर्फ से ढकी हैं, वहीं इसका मध्य भाग अपेक्षाकृत सामान्य ढाल वाला है। इसके दक्षिण में विस्तृत मैदानी भू-भाग स्थित है जो पर्वतीय नदियों द्वारा लाई गई मिट्टी से निर्मित है। अपनी विशिष्ट भू-गर्भिक संरचनाओं, पर्यावरणीय व जलवायुगत विविधताओं से युक्त इस क्षेत्र में अक्सर भू-स्खलन, हिमस्खलन, बाढ़ और बादल फटने की घटनाएं होती हैं।

भू-गर्भिक संरचना की दृष्टि से इस संवेदनशील इलाके में छोटे-बडे़ भूकम्पों की आशंका बराबर बनी रहती है। पिछले कई दशकों में यहां के अनियोजित विकास, प्राकृतिक संसाधनों के निर्मम दोहन, बढ़ते शहरीकरण और उच्च हिमालयी भू-भाग में बांधों व सुरंगों के निर्माण कार्यों ने स्थानीय पर्यावरणीय संतुलन को बिगाड़ दिया है। इसके चलते प्राकृतिक आपदाओं में इजाफा हो रहा है।

नदी-घाटियों से सटी भूमि के साथ ही संवेदनशील जगहों पर आबादी के बसाव होने से प्राकृतिक आपदा आने पर जन-धन की हानि व्यापक स्तर पर हो जाती है। उत्तराखंड में वर्ष 1998 के मालपा भू-स्खलन में ढाई सौ से अधिक तीर्थयात्रियों की अकाल मौत और जून 2013 में आई केदारनाथ आपदा में हजारों लोगों की मौत के पीछे भी यही कारण मुख्य रहे।

पिछले कुछ सालों में आई प्राकृतिक आपदाओं के आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि प्राकृतिक आपदाओं से उत्तराखंड के जन-जीवन पर बहुत ही प्रतिकूल असर पड़ा है। मध्य जून से लेकर सितंबर तक (मानसून के दौरान) की मध्यम अथवा मूसलाधार बारिश यहां के लोगों के लिए मुसीबत बन कर आती है। मानसून के दौरान भूस्खलन व बाढ़ से पर्वतीय इलाके के लोगों का जीवन पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो जाता है, जिसमें अक्सर लोगों व मवेशियों की जानें चली जाती हैं, घर-मकान के साथ ही खेती की जमीन व सार्वजनिक संपतियों यथा सड़क, नहर, पुल, घराट व स्कूल भवनों की क्षति देखने को मिलती है। इस कारण लोगों को भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

शीतकाल में उच्च हिमालयी भागों में बर्फबारी, हिमस्खलन आदि से भी लोगों का जीवन प्रभवित रहता है। हिमप्रदेशों में हिमनद गतिशील अवस्था में रहते हैं। खुद के भार से हिमनद ढलान में नीचे की ओर प्रवाहमान रहते हैं।
भूगर्भ विज्ञानियों के अनुसार हिमालय का क्रमिक उत्थान आज भी सतत रूप से जारी है। उत्तराखंड हिमालय के आंतरिक भू-भाग में अनेक भ्रंश सक्रिय अवस्था में हैं, जिनकी वजह से यहां भूकम्प आने की आशंका बनी रहती है।

भूकम्प मानचित्र के अनुसार उत्तराखंड का पिथौरागढ़, बागेश्वर, चमोली व रुद्रप्रयाग जपनद का संपूर्ण भाग और पौड़ी, उत्तरकाशी, टिहरी, चंपावत व अल्मोड़ा जनपद का आंशिक भाग सर्वाधिक भूकम्प जोखिम क्षेत्र में आता है। पहाड़ों में मिट्टी, पत्थर और चट्टानों के ढाल पर खिसकने की प्रक्रिया भू-स्खलन को जन्म देती है।

अत्यधिक वर्षा, बादल फटने, भूकम्प, तीव्र हिम गलन जैसे प्राकृतिक कारणों और नदी-नालों के प्राकृतिक रास्तों में हस्तक्षेप करने और अनियोजित तरीके से भू-उपयोग में बदलाव करने से भू-स्खलन आते हैं। भू-स्खलनों सड़क, पुल, बिजली, संचार, नहर, पेयजल जैसी योजनाएं भी प्रभावित होती हैं। साथ ही खेती-बागवानी की जमीन सहित वन संपदा व जलस्रोतों को भी नुकसान पहुंचता है।

इस हकीकत से इंकार नहीं किया जा सकता कि हिमालय में आपदाएं पहले से आती रहीं हैं, आज भी आ रहीं हैं और भविष्य में भी आती रहेंगी। ऐसे में हमें इस बात को बहुत गहराई के साथ समझना होगा कि हिमालय सरीखे नाजुक पारिस्थितिकी वाले क्षेत्र में बड़ी-बड़ी विकास परियोजनाओं विशेषकर बांधों, सुरंगों और सड़क निर्माण के लिए किस तरह की नीतियां कारगर हो सकती हैं।

यह विडंबना ही है कि इस दिशा में हम आज तक ईमानदारी से ठोस पर्यावरणीय नीतियां तय नहीं कर पाए हैं। योजनाकारों व नीति-नियंताओं को ध्यान देना होगा कि योजनाएं बनाते समय वे हिमालय की जलसंपदा अथवा उसमें मौजूद ऊर्जा शक्ति के अध्ययन के साथ ही बांधों, सुरंगों व सड़कों की वहां की पारिस्थितिकी के आधार पर वहन क्षमता का सटीक आकलन करें।

निश्चित तौर पर हिमालयी राज्यों को अपनी विदोहनकारी नीति से उपर उठ कर यहां के जल, जंगल और जमीन के संरक्षण के लिए आगे आना होगा और प्राथमिकता के साथ टिकाऊ विकास की उस अवधारणा पर बल देना होगा, जिसके जरिए हमें प्रकृति से धीरे-धीरे दीर्घकाल तक लाभ मिलता रहे। इन सारे सवालों के समाधान के लिए हमें प्रकृति से तालमेल बनाने की ओर उन्मुख होने के साथ ही पर्यावरण के हिसाब से अपनी सुविधाओं व आकांक्षाओं में भी सामंजस्य बिठाने की आवश्यकता है। इसके लिए प्रकृति को सहयोग करने की उतनी ही जरुरत है, जितनी हम उससे लाभ की उम्मीद रखते हैं। अन्यथा वह दिन भी दूर नहीं जब केदारनाथ और ऋषि गंगा जैसी आपदाएं इसी तरह तबाही मचाती रहीं तो तब न हिमालय बचेगा और न ही उसकी गोद में बसा गंगा-जमुना का वह विशाल हरा-भरा मैदान।