बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर भारत में स्वास्थ्य सुविधा उद्योग पनप रहा है, जो पंद्रह फीसद सालाना की दर से बढ़ रहा है। यह उद्योग जनस्वास्थ्य के आंदोलन को कुंद करने वाला साबित हो सकता है। आज देशभर में बड़े-बड़े महंगे निजी अस्पताल खड़े हो गए हैं। ये शुद्ध मुनाफे के लिए काम करते हैं।

पिछले बजट के समय ही यह तय हो गया था कि भारत सरकार आयुष्मान योजना का दायरा बढ़ाएगी। अब शीघ्र ही इसमें और चालीस करोड़ लोगों को शामिल किया जाएगा। इस कदम से आबादी के बड़े हिस्से को आयुष्मान भारत योजना का लाभ मिलने लगेगा। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस योजना के विस्तार मात्र से आम आदमी की स्वास्थ्यगत परेशानी और तमाम समस्याओं को कम किया जा सकेगा? गौरतलब है कि पचास करोड़ से ज्यादा लोग (दस करोड़ चौहत्तर लाख परिवार) इस योजना के दायरे में हैं। आयुष्मान योजना के तहत सालाना पांच लाख रुपए की बीमा सुरक्षा मिली हुई है।

नेशनल हेल्थ अथारिटी (एनएचए)के मुताबिक आयुष्मान भारत और प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना को नए कदम से विस्तार मिलेगा। लेकिन सवाल यह है कि समाज में बढ़ती गैरबराबरी और गरीबों की तादाद के हिसाब से, क्या मौजूदा केंद्र और राज्य स्तरीय स्वास्थ्यगत सेवाओं से जनस्वास्थ्य का लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा? गौरतलब है, आयुष्मान भारत के तहत अभी महज आबादी के सबसे निचले चालीस फीसद हिस्से को स्वास्थ्य सुरक्षा मिली हुई है।

आंकड़े के मुताबिक राज्य सरकारों की अलग-अलग योजनाओं, सामाजिक सुरक्षा योजनाओं और निजी बीमा की विभिन्न योजनाओं को जोड़ भी लिया जाए तो कुल मिला कर आबादी का करीब सत्तर फीसद हिस्सा स्वास्थ्य बीमा सुरक्षा दायरे में आता है। यानी आबादी का तीस फीसद हिस्सा अब भी ऐसा है जो स्वास्थ्य सेवाओं से पूरी तरह वंचित है।

जिस तरह से आए दिन नई और पुरानी बीमारियों से लोग परेशान हो रहे हैं, उनसे निजात पाने के लिए नई स्वास्थ्य नीति कितनी कारगर हैं, यह बड़ा सवाल है। इसके बावजूद यह माना जा सकता है कि केंद्र और राज्य सरकारें मिल कर जनस्वास्थ्य योजनाओं को नए रूप में विकसित कर देश के अंतिम व्यक्ति तक इनका लाभ देंगी।

देश में सबसे खराब हालत स्वास्थ्य और रोजगार क्षेत्र की है। केंद्र और राज्य सरकारें इस बाबत तमाम कदम उठा चुकी हैं, लेकिन स्वास्थ्य क्षेत्र की सेहत में कोई सुधार दिख नहीं रहा। गौरतलब है, स्वास्थ्य क्षेत्र का मौजूदा ढांचा उन व्यक्तियों को व्यापक और जरूरत के मुताबिक स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने में सक्षम ही नहीं हैं जो सेहत के मामले में जागरूक नहीं हैं।

मतलब साफ है, स्वास्थ्य सेवाओं के ढांचे, धन की उपलब्धता का ईमानदारी से उपयोग और जन जागरूकता- इन तीनों स्तरों पर अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है। जनस्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि बढ़ती जनसंख्या, गरीबी और स्वास्थ्य क्षेत्र के कमजोर ढांचे की वजह से देश को कई पिछड़े देशों से भी ज्यादा समस्याओं से रूबरू होना पड़ रहा है।

स्वास्थ्य सेवा से जुड़े हर मानक पर हम दुनिया के अति पिछड़े देशों जैसे दिखाई देते हैं। भारत में प्रसव के समय होने वाली शिशु मृत्यु दर प्रति एक हजार पर बावन है, जबकि भुखमरी के कगार पर खड़े श्रीलंका में यह दर मात्र पंद्रह है, गरीब देश नेपाल में अड़तीस है, भूटान में यह दर इकतालीस है और छोटे से देश मालदीव में बीस है। इसी तरह विकसित देशों में प्रति हजार लोगों पर अस्पतालों में बिस्तरों की उपलब्धता 2.3 है और भारत में प्रति हजार 0.7 ही है। जबकि भारत के पड़ोसी देश चीन में यह आंकड़ा 3.8 और श्रीलंका में 3.6 का है।

इसी तरह चिकित्सकों की उपलब्धता के मामले में भी भारत दुनिया के कई देशों से काफी पीछे है। आंकड़े बताते हैं, वैश्विक स्तर पर चिकित्सकों की उपलब्धता प्रति हजार 1.3 है, जबकि भारत में यह महज 0.7 है। तमाम कवायदों के बावजूद भारत में चार लाख चिकित्सकों, सात लाख बिस्तरों और तकरीबन चालीस लाख नर्सों की कमी है।

गौर करने वाली बात है कि स्वास्थ्य सेवा पर खर्च का सत्तर फीसद निजी क्षेत्र से है, जबकि इस मामले में वैश्विक औसत अड़तीस फीसद है। यह तब है जब केंद्र और राज्य सरकारें दावा करती हैं कि आम आदमी के लिए स्वास्थ्य सेवाओं में अब हम पहले से बेहतर हालात में हंै। दावे और हकीकत में कितना अंतर है, इस आंकड़े से पता लगता है कि चिकित्सा पर छियासी फीसद तक लोगों को अपनी जेब से खर्च करना पड़ता है। गैरसरकारी अस्पतालों में किस मनमाने तरीके से बीमारी और बेहतर इलाज के नाम पर लोगों का शोषण होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। कोरोना काल में सरकारी अस्पतालों के जो हालात देखने को मिले, उससे पता चलता है कि स्वास्थ्य क्षेत्र को दुरुस्त बनाने के हर स्तर पर बदलाव की आवश्यकता है।

गौरतलब है कि तहसील और ब्लाक स्तर पर जो सरकारी अस्पताल हैं, वहां न पर्याप्त चिकित्सक तैनात होते हैं और जरूरत के मुताबिक न उनकी सेवाएं मिल पाती हैं। दवाएं भी ऐसी जो मर्ज को ठीक करने के बजाय दूसरी बीमारी ज्यादा पैदा करती हैं। दूसरी बात, गांवों में एलोपैथी अस्पतालों के अलावा होमियोपैथी, यूनानी, आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा और योग जैसी कारगर चिकित्सा पद्धतियों पर चलने वाले सरकारी अस्पताल इने-गिने ही देखने में आते हैं।

बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर भारत में स्वास्थ्य सुविधा उद्योग पनप रहा है, जो पंद्रह फीसद सालाना की दर से बढ़ रहा है। यह उद्योग जनस्वास्थ्य के आंदोलन को कुंद करने वाला साबित हो सकता है। आज देशभर में बड़े-बड़े महंगे निजी अस्पताल खड़े हो गए हैं। ये शुद्ध मुनाफे के लिए काम करते हैं।

केंद्र और राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करना होगा कि प्रत्येक अस्पताल जो स्वास्थ्य सेवा के नाम पर सरकारी मदद से खोले गए हैं, उनमें गरीब आदमी का इलाज समुचित तरीके से बगैर किसी भेदभाव के हो। यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि निजी चिकित्सा उद्योग कुछ चुने हुए शहरों तक सीमित न रहें और सार्वजनिक क्षेत्र से वित्त पोषण के लिए अधिक दबाव न डाला जाए।

ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य केंद्रों और उप स्वास्थ्य केंद्रों को विस्तार देने के साथ इनमें मौजूद खामियों को दूर किए जाने की जरूरत है। स्वास्थ्य केंद्रों और उप केंद्रों का एक व्यापक नेटवर्क देशभर में स्थापित होने के बावजूद यदि समान रूप से बिना भेदभाव के सबको बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं, तो यह गंभीर बात है। गौरतलब है कि स्वास्थ्य सेवाओं की बेहतरी के लिए इधर कुछ सालों से बजट में इजाफा किया गया है। बावजूद इसके देश की ग्रामीण और कस्बाई स्वास्थ्य सेवाओं की हालात दयनीय ही है।

ऐसे में यह समझना मुश्किल हो जाता है कि इतना खर्च करने के बावजूद हमारे देश में जनस्वास्थ्य की दशा बेहतर होने के बजाय बदतर क्यों होती जा रही है? ऐसे में क्या एक नई स्वास्थ्य नीति बनाने की जरूरत महसूस नहीं होती, जो जनस्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए इससे जुड़े सभी पक्षों की जवाबदेही तय करे।

जनस्वास्थ्य का मतलब ही होता है, उस अंतिम व्यक्ति को भी सरकारी योजनाओं, संस्थाओं, कालेजों, संस्थानों की ओर से मिलने वाली सभी तरह की सुविधाएं बगैर किसी भेदभाव के मिलें और आम आदमी वक्त रहते अपनी स्वास्थ्यगत समस्याओं का निदान समुचित रूप से हासिल कर सके। जिस तरह से निजी अस्पतालों में सहज सुविधाएं, बेहतर देखरेख, रोगी के साथ सहज मानवीय व्यवहार और मैत्री का वातावरण मिलता है, वैसा ही यदि सरकारी अस्पतालों में मिलने लगे, तो समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति की औसत आयु क्यों नहीं बढ़ेगी?