शिवेंद्र राणा
गांधी जी का मानना था कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है। अगर हम एक नए भारत के निर्माण का स्वप्न देख रहे हैं तो इसकी शुरूआत गांवों के विकास से होनी चाहिए। इस विकास का माध्यम तीसरी सरकार यानी पंचायतें ही बन सकती हैं। भारत में पंचायतों की परंपरा अत्यंत प्राचीन रही है। भारतीय इतिहास के हर दौर में पंचायतों का अस्तित्व रहा है। पंचायतें संवाद, सहमति, सहयोग, सहभाग और सहकार जैसे पांच तत्वों पर आधारित जीवन शैली का प्रतिनिधित्व करती हैं। आजाद भारत की संविधान सभा में गांधीवाद की बातें तो बहुत हुईं, पर उन्हें पूरे मन से स्वीकार नहीं किया गया था। जिस गांधीवाद में पंचायतों को ‘सच्चा लोकतंत्र’ और ‘स्वतंत्रता का प्रारंभिक बिंदु’ माना गया, उसी को संसाधनों और समयाभाव के बहाने नीति निर्देशक तत्वों के अधीन राज्य सरकारों के विवेक पर छोड़ दिया गया। तिहत्तरवें संविधान संशोधन अधिनियम (1992) के जरिये पंचायतों को संवैधानिक स्थिति और सुरक्षा प्रदान की गई थी। इस संशोधन विधेयक का आधार 1988 में गठित वीएन गाडगिल समिति की अनुशंसाएं थीं। लेकिन इसके बावजूद पंचायतें संतोषजनक परिणाम नहीं दे पाईं।
पंचायतों की पहली बड़ी समस्या उनकी खुली बैठक का न होना है। सही तरीका तो यह है कि हर बार गांव की पूरी बैठक होनी चाहिए और जो भी फैसले हों वे खुली बैठक में किए जाएं। प्रधान, सचिव का यह कहना कि बैठक के लिए कोरम पूरा नहीं हो पा रहा, सिरे से एक गलत बात है क्योंकि ग्रामीण तो गांवों में ही रहते हैं। तब उनके सभा में उपस्थित न होने की बात समझ से परे है। वास्तविकता यह है कि लोगों को सूचना ही नहीं दी जाती, ताकि पदाधिकारी अपने अनुकूल फैसले कर सकें। जाहिर है, ऐसा प्रशासन की शह के बिना संभव नहीं होता। इसके लिए उचित उपाय हैं कि बैठक से पूर्व मोबाइल या अन्य संचार माध्यमों से इस बारे में सूचना का प्रसारण अनिवार्य कर देना चाहिए। साथ ही आवश्यक हो तो इन सभाओं का वीडियो भी सरकार बनवा सकती है।
दूसरा जरूरी तथ्य यह है कि आज भी पंचायतों का सुधार राज्य सरकारों की प्राथमिकता सूची में नहीं हैं। 1977 में गठित अशोक मेहता समिति ने सुझाव दिया था कि राज्य सरकारों को पंचायती राज संस्थाओं का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। लेकिन राज्यों को लगता है कि पंचायतों का सुचारु विकास उनके अधिकार क्षेत्र में कटौती कर सकता है। पंचायतों को नियंत्रित करने का सबसे बड़ा माध्यम राज्य सरकारों के कर्मचारी ही बनते हैं। ग्राम स्तर पर सरकारों ने प्राथमिक शिक्षक, पंचायत सचिव, सफाई कर्मी, ट्यूबवेल आॅपरेटर, आंगनबाड़ी, आशा बहू जैसे कर्मचारी नियुक्त कर रखें हैं। लेकिन ये खुद को ग्रामीण जनता के प्रति जवाबदेह नहीं मानते। अधिकांश नवनिर्वाचित प्रधानों की यही शिकायत रहती है कि वे कोई भी अच्छा काम करना चाहें तो पंचायत सचिव उसमें बाधा पैदा करते हैं। एक पंचायत सचिव के पास दो से तीन गांवों तक का प्रभार होता है। इससे पंचायतों में भ्रष्टाचार भी पनपता है।
भारत में संवैधानिक रूप से तीन सरकारों को मान्यता प्राप्त है- केंद्र सरकार, राज्य सरकार और पंचायत। जब केंद्र और राज्य सरकारों के अपने कर्मचारियों का संवर्ग है तो ग्रामीण सेवाओं के लिए भी एक अलग संवर्ग बनना चाहिए। ऐसा सेवा वर्ग जो ग्राम स्तर पर ही कार्य करने को विशेषीकृत हो, किंतु साथ ही इनकी नियुक्ति स्थानीय आबादी से ही होनी चाहिए। आखिर ग्रामीण सेवा संवर्ग के लिए स्थानीय लोगों के चुनाव में क्या समस्या आती है? ग्रामीण कैडर का चुनाव भले ही राज्य, जिला या क्षेत्र स्तर पर हो लेकिन ये कर्मचारी गांव में ही रहेंगे और इनकी आसानी से उपलब्धता सुनिश्चित होगी। ये सेवा संवर्ग अपने गांवों के लिए विश्वसनीय साबित होगा। इनकी निगरानी का कार्य सरकारी एजेंसी, कोई तीसरा पक्ष या नागरिक समाज कर सकता है।
वंचित समूहों की भागीदारी, जवाबदेही, पारदर्शिता एवं शुचिता के संदर्भ में ग्राम सभाओं का सशक्तिकरण एक सशक्त हथियार है। किंतु आज तक कई राज्यों ने अपने यहां ग्राम सभा के अधिकारों को स्पष्ट ही नहीं किया है। कई राज्यों में पंचायतों की स्थिति मातहत निकाय की है, इसलिए ग्राम प्रधानों को कोष और अन्य तकनीकी अनुमोदन के लिए प्रखंड कार्यालयों में चक्कर काटते नियमित रूप से देखा जा सकता है। पंचायतों की बड़ी समस्या नौकरशाही भी है जो ग्रामीण स्तर की समस्याओं को हेय दृष्टि से देखती है और उसके प्रति उपेक्षा भरा रवैया अपनाती है। योजना आयोग ने 1985 में जीवीके राव समिति बनाई थी।
इस समिति का निष्कर्ष था कि विकास प्रक्रिया दफ्तरशाही युक्त होकर पंचायत राज से विच्छेदित हो गई है और नौकरशाही की इस प्रक्रिया के कारण पंचायती संस्थाएं कमजोर हो गई हैं। एक तो अशिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण ग्रामीण समाज पहले से अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं है, ऊपर से नौकरशाही का असहयोग व अहंकारपूर्ण रवैया उनके और जनता के बीच दूरियां और अविश्वास बढ़ाता है जो सहयोगी लोकतंत्र के लिए घातक है।
सवाल पंचायतों को वास्तविक न्यायिक शक्तियां प्रदान करने का है। सन 1986 में गठित एलएम सिंघवी समिति ने गांव समूहों के लिए न्याय पंचायतों की स्थापना की सिफारिश थी। तमाम न्यायविद भी ये मानते रहे हैं कि आमतौर पर दस-बीस साल मुकदमा लड़ने और दस-बीस लाख रुपए खर्च करने के बाद भी न्यायालय जो अंतिम फैसले करते हैं उससे दुश्मनी खत्म नहीं होती, बल्कि पीढ़ियों तक चलती है। लेकिन पंचायतों से जो फैसले होते हैं और लोग एक-दूसरे के गले मिल कर इसे स्वीकार करते हैं, उससे शत्रुता हमेशा के लिए समाप्त हो जाती है। इससे लोगों के धन की बचत होती है और न्यायालय एवं पुलिस-प्रशासन के समय व ऊर्जा की बचत होती है। साथ ही गांव की समरसता भी बनी रहती है।
पंचायतों की एक बड़ी समस्या वित्तीय संसाधनों के प्रयोग की अनिच्छा से जुड़ी है। निसंदेह पंचायतों के पास सीमित वित्तीय अधिकार हैं, किंतु उन्हें महत्त्वपूर्ण शक्ति के रूप में बाजार, मेलों, अन्य उपलब्ध सेवाओं जैसे सार्वजनिक शौचालयों के लिए कर संग्रहण की शक्ति के साथ ही संपत्ति पर भी कर लगाने का अधिकार प्राप्त है। लेकिन असलियत यह है कि बहुत कम पंचायतें अपने इन वित्तीय अधिकारों का प्रयोग कर पातीं हैं। असल में पंचायत प्रतिनिधियों के लिए अपने समाज के लोगों से कर वसूलना कठिन काम होता है। इससे उनके निजी संबंधों के प्रभावित होने की आशंका रहती है। अत: पंचायतें एक आसान विकल्प का चुनाव करते हुए ऐसे कराधान से बचती हैं। जिसका दुष्परिणाम उनके वित्तीय स्रोतों के सिकुड़ने के रूप में सामने आता है।
इसके अलावा देश की करीब बीस फीसद पंचायतों के पास तो अपने कार्यालय भवन नहीं हैं। लगभग पच्चीस फीसद पंचायतें ही ऐसी हैं जिनके पास कंप्यूटर पर काम करने की व्यवस्था है। इसके अतिरिक्त पंचायतों के अधिकांश सदस्य अशिक्षित या अर्द्ध-शिक्षित पृष्ठभूमि के होते हैं। इस कारण वें अपने दायित्वों, अधिकारों और पंचायतों की कार्यप्रणाली से प्राय: अनभिज्ञ रहते हैं। इससे भी ग्राम पंचायतों की कार्यनिष्पादन क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
संविधान में इस बात की परिकल्पना की गई है कि महिलाओं और दलितों के लिए पदों का आरक्षण उनके सशक्तिकरण का मार्ग प्रशस्त करेगा। सत्ता और सार्वजनिक धन के लोभ ने इसका विकल्प भी तलाश लिया है। आज महिलाओं और दलितों को आगे कर पद हथियाने की परंपरा चल पड़ी है। सशक्तिकरण का अर्थ होता हैं, आर्थिक स्वावलंबन और निर्णयन की स्वतंत्रता। किंतु दुर्भाग्यवश ये लक्ष्य पंचायतों के माध्यम से पूरी तरह पूरा होता नहीं दिखता।
गांधी जी का मानना था कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है। अगर हम एक नए भारत के निर्माण का स्वप्न देख रहे हैं तो इसकी शुरूआत गांवों के विकास से होनी चाहिए। इस विकास का माध्यम तीसरी सरकार यानी पंचायतें ही बन सकती हैं। अत: पंचायतों के विकास की अनदेखी नए भारत के निर्माण के लिए घातक साबित होगी।
