परमजीत सिंह वोहरा
क्या वैश्विक स्तर पर सोने की खरीद के पीछे डालर के वैश्विक रुतबे को कम करना है? प्रारंभिक स्तर पर इसे एक कारण जरूर समझा जा सकता है, पर एक अन्य सोच यह भी हो सकती है कि वैश्वीकरण के इस दौर में आने वाला समय बड़े देशों के पारस्परिक गठजोड़ का ही होगा। उस दौरान सभी मुल्क एक-दूसरे की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शायद सोने को मुद्रा का एक स्थान दे दें।
इन दिनों वैश्विक बाजार में मानो सोने की खरीदारी का युग वापस आ गया है। सभी बड़े देश सोने की ताबड़तोड़ खरीद कर रहे हैं। बड़े देशों के केंद्रीय बैंकों द्वारा की जा रही सोने की खरीददारी का तात्पर्य घरेलू बाजारों में सोने की मांग बढ़ाना कतई नहीं, बल्कि अपने-अपने विदेशी मुद्रा भंडारण में डालर के मुकाबले सोने के संग्रह का अनुपात बढ़ाना है। पिछले कुछ समय से एकाएक चलन में आई सोने की खरीद ने इस सुगबुगाहट को बल दिया है कि डालर पर वैश्विक निर्भरता आने वाले समय में बड़ी तेजी से कम होगी। अगर ऐसा होता है तो यह पिछली एक शताब्दी में अमेरिका की वैश्विक साख के लिए बहुत बड़ा धक्का होगा।
वैश्विक बाजार में सोने की खरीद में एकाएक तेजी पिछले पांच-छह महीनों में ही दर्ज हुई है। एक रिपोर्ट के मुताबिक इस दौरान चीन ने बहुत बड़े स्तर पर सोने की खरीदारी की है। इस साल के पहले तीन महीनों (जनवरी से मार्च) के दौरान चीन तकरीबन अट्ठावन मीट्रिक टन सोना खरीद चुका है। इसके चलते आज चीन में सोने का संग्रह अपने ऐतिहासिक स्तर पर है।
पिछले एक वर्ष से अधिक समय से यूक्रेन के साथ युद्ध में उलझा रूस भी पिछली तिमाही में बत्तीस मीट्रिक टन सोना खरीद चुका है और आज उसके पास 2330 मीट्रिक टन सोने का संग्रह है। रूस विश्व का दूसरा सबसे बड़ा सोने का उत्पादक मुल्क भी है, उसके बावजूद वह लगातार सोने की खरीदारी कर रहा है।
आश्चर्यजनक यह भी है कि पिछले दो महीनों में विश्व में सबसे अधिक 51.4 मीट्रिक टन सोने की खरीद सिंगापुर ने की है। तुर्किए ने 45.4 मीट्रिक टन सोना खरीदा है। यह भी अचंभित करने वाली बात है कि कजाकिस्तान, जोकि सोने का उत्पादक मुल्क है और पहले उसके आंकड़े सोने की बिक्री से संबंधित होते थे, वह भी सोना खरीद रहा है। इन सबका ही परिणाम है कि आज सोने का वैश्विक मूल्य 2032 अमेरिकी डालर के आसपास है और अगस्त 2020 के बाद के सर्वाधिक मूल्य स्तर पर है। अगस्त 2020 में कोरोना को महामारी मान लिया गया था और सभी मुल्क भविष्य के प्रति अनिश्चित थे। आर्थिक सुरक्षा की दृष्टि से सोने की खरीद को प्राथमिकता दे रहे थे।
यह भी देखने को मिला है कि वर्ष 2010 के बाद अब पूरे विश्व में सोने का संग्रह अपने अधिकतम स्तर पर है। 2010 के आसपास विश्व के सभी देशों के केंद्रीय बैंकों द्वारा सोने की खरीद के पीछे मुख्य कारण वर्ष 2008-09 की अमेरिकी मंदी का प्रभाव था, क्योंकि डालर के प्रति वैश्विक स्तर पर बड़ी अनिश्चितता थी और सभी बड़े देश अपने आयत के भुगतान के लिए डालर की अनुपलब्धता के चलते सोने को एक विकल्प के रूप में ले रहे थे। मगर वर्तमान संदर्भ में खरीद का वास्तविक कारण अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है, पर यकीनन कुछ और है।
विश्व के सभी बड़े देश अपने विदेशी मुद्रा संग्रह में एक बड़ा हिस्सा सोने के रूप में रखते हैं। मसलन, अमेरिका के पास सोने का संग्रह उसके विदेशी मुद्रा भंडारण का 68 प्रतिशत है, जर्मनी के पास 66 प्रतिशत से अधिक है, इटली में 63 प्रतिशत, फ्रांस में 59 प्रतिशत है। मगर रूस में अब भी 21 प्रतिशत का स्तर है, जबकि पिछले कुछ समय में रूस ने बहुत अधिक मात्रा में सोने की खरीद की है।
इन दिनों चीन का संग्रह ऐतिहासिक ऊंचाई पर है, उसके बावजूद उसके विदेशी मुद्रा भंडारण के संग्रह में सोना मात्र चार प्रतिशत के आसपास ही है। अगर भारत की बात की जाए, तो इन दिनों विदेशी मुद्रा भंडारण करीब 580 अरब अमेरिकी डालर के बराबर है, जिसमें सोने का अनुपात आठ प्रतिशत है।
गौरतलब है कि भारत ने पिछले कुछ समय में सोने की खरीदारी में एकाएक तेजी तो नहीं दिखाई है, पर लंबे अरसे से लगातार सोने की खरीद बरकरार रखी है। एक रिपोर्ट के मुताबिक 2020 की पहली तिमाही में भारत के पास 653 मीट्रिक टन सोने का संग्रह था, जो अगली तिमाही में 661 मीट्रिक टन हुआ तथा तीसरी तिमाही में 668 मीट्रिक टन पर पहुंचा। तीन वर्ष बीतने के बाद मार्च 2023 तक भारत के सोने का संग्रह 787 मीट्रिक टन के बराबर है। स्पष्ट है कि भारत द्वारा औसतन प्रति तिमाही दस मैट्रिक टन सोने की खरीद की गई है।
क्या वैश्विक स्तर पर सोने की खरीद के पीछे डालर के वैश्विक रुतबे को कम करना है? प्रारंभिक स्तर पर इसे एक कारण जरूर समझा जा सकता है, पर एक अन्य सोच यह भी हो सकती है कि वैश्वीकरण के इस दौर में आने वाला समय बड़े देशों के पारस्परिक गठजोड़ का ही होगा। उस दौरान सभी मुल्क एक-दूसरे की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शायद सोने को मुद्रा का एक स्थान दे दें। यह भी एक सच्चाई है कि पिछले दिनों अमेरिकी आर्थिक नीतियों के चलते डालर वैश्विक स्तर पर बहुत अधिक आक्रमक रहा और उसके चलते लगभग सभी देशों की मुद्रा कृत्रिम रूप से वैश्विक स्तर पर कमजोर होती गई।
भारत के संदर्भ में देखा जाए तो पिछले वित्तवर्ष में डालर ऐतिहासिक ऊंचाई पर चला गया था, जिसके कारण भारत के घरेलू बाजार में महंगाई अपने उच्चतम स्तर पर रही। वहीं दूसरी तरफ रूस-यूक्रेन युद्ध में अमेरिका द्वारा रूस के खिलाफ लगाए गए विभिन्न आर्थिक प्रतिबंधों में रूस के सोने की वैश्विक खरीद पर रोक भी एक मुख्य कारण हो सकता है।
पिछले कुछ समय से यह भी चर्चा थी कि अमेरिकी केंद्रीय बैंक की ब्याज संबंधी नीतियों के चलते विश्व के सभी बड़े देशों के पूंजी बाजारों में चल रही लगातार गिरावट, उनकी मुद्राओं के वैश्विक स्तर में हो रही कमी तथा घरेलू बाजार में महंगाई के उच्चतम आंकड़ों के चलते सभी मुल्क आर्थिक मंदी की जकड़न से ज्यादा दूर नहीं हैं। शायद इसी के चलते डालर का वैश्विक संग्रह लगातार कम हो रहा है। आइएमएफ की पिछले दिनों प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार 1999 तक जहां वैश्विक मुद्रा संग्रह में अमेरिकी डालर की हिस्सेदारी तकरीबन सत्तर प्रतिशत से अधिक थी, वह वर्ष 2022 में घट कर 59 प्रतिशत रह गई है।
भारत के संदर्भ में चिंता का विषय यह भी है कि चालू वित्तवर्ष के लिए विश्व के सभी बड़े आर्थिक संस्थानों, जिनमें विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, एशियन विकास बैंक आदि सम्मिलित हैं, ने भारत की आर्थिक वृद्धि दर छह प्रतिशत से कम अनुमानित किया है। हालांकि भारत सरकार ने इसे 6.4 प्रतिशत अनुमानित किया है। चालू वित्तवर्ष के बजट के अंतर्गत एक बड़ा हिस्सा पूंजीगत व्यय के लिए प्रस्तावित किया गया है, जो भारत की आर्थिक विकास दर को बढ़ाने में सक्षम होगा। वहीं दूसरी तरफ भारत सोने की खरीद को बरकरार रखे हुए है। मगर विश्व के दूसरे बड़े देशों की तुलना में भारत के सोने का संग्रह स्तर कम है।
हालांकि चर्चा यह भी है कि आगामी अगस्त में होने वाली ब्रिक्स मुल्कों की बैठक में रूस द्वारा चीन की मुद्रा युवान को वैश्विक स्तर पर एक नया दर्जा देने की कोशिश की जाएगी, पर निश्चित तौर पर भारत उसे स्वीकार नहीं करेगा। आज भारत विश्व की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था है और आने वाले समय में उसकी कोशिश रहेगी कि विदेशी मुद्रा भंडारण में सोने का अनुपात बढ़ाया जाए, ताकि डालर के विरुद्ध वैश्विक कूटनीति के चलते भारत किसी भी तरह की आर्थिक अनिश्चितताओं का समय रहते बखूबी सामना कर सके।