ब्रह्मदीप अलूने
पाकिस्तान पर न तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भरोसा है, न ही इस्लामिक देशों को। यह पाकिस्तान में आयोजित हालिया सम्मेलन में प्रतिबिंबित भी हुआ। पाकिस्तान की पहल पर आयोजित इस विशेष सम्मेलन में बहुत कम देशों के शीर्ष नेता शामिल हुए।
अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता के लिए संतुलनकर्ता राष्ट्र के रूप आगे आने की पाकिस्तान की भूमिका को सैद्धांतिक और व्यावहारिक स्तर पर वैश्विक मान्यता मिलने की संभावना नगण्य ही है। अफगानिस्तान के लोग अपने देश में राजनीतिक अस्थिरता, आतंकवाद और तालिबानी कब्जे के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार मानते रहे हैं। यह विरोध अफगानिस्तान से लेकर वैश्विक स्तर तक पर देखा गया है।
अफगानिस्तान के सर्वोच्च नेता रहे हामिद करजई से लेकर अशरफ गनी तक अपने मुल्क की बदहाली के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराते रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ इस्लामिक देशों में भी पाकिस्तान को लेकर असमंजस बरकरार है। इसका बड़ा कारण पाकिस्तान के बहुआयामी हित रहे हैं। पाकिस्तान समर्थित तालिबान सुन्नी संगठन है और वह अल्पसंख्यक हजारा, ताजिक और शिया मुसलमानों को निशाना बनाता रहा है। अफगानिस्तान में कब्जे के बाद उसने इन अल्पसंख्यक समुदायों पर बेतहाशा अत्याचार किए हैं।
मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल ने इस साल जुलाई में अपनी एक रिपोर्ट में अफगानिस्तान में शिया हजारा समुदाय के नरसंहार का दावा किया था। एमनेस्टी के अनुसार तालिबान ने गजनी प्रांत में हजारा समुदाय के हजारों पुरुषों को बेरहमी से मार डाला था। ये लोग दूरस्थ इलाकों में रहते हैं। तालिबान ने इन इलाकों की घेराबंदी कर रखी है। संचार सुविधाएं नहीं होने से हजारा समुदाय को मदद मिल पाना भी मुश्किल होता है। हजारा अफगानिस्तान के तीसरे सबसे बड़े नस्लीय समूह हैं और सुन्नी बहुल अफगानिस्तान और पाकिस्तान में उनका दशकों से शोषण होता रहा है। यही कारण है कि अफगानिस्तान की सीमा से लगने वाले अधिकांश मुसलिम देश पाकिस्तान से ज्यादा भरोसा भारत पर करते हैं।
अफगानिस्तान की स्थिति पर चर्चा करने और उसे अंतरराष्ट्रीय मदद मुहैया कराने के लिए पाकिस्तान ने हाल में इस्लामाबाद में इस्लामिक दुनिया और कुछ अन्य चुनिंदा देशों का एक सम्मेलन बुलाया था। इस कवायद के पीछे योजना यह थी कि तालिबान को अंतरराष्ट्रीय मदद की बहाल की जाए, जो इस समय रुकी हुई है। पाकिस्तान यह भी दिखाना चाहता है कि वह अफगान लोगों के भविष्य के लिए चिंतित है और इस अस्थिर देश में शांति और स्थिरता बहाल करने में मदद करना चाहता है।
लेकिन देखने में यह आया है कि अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता में वापसी को विदेशी गुलामी से मुक्ति कह कर प्रचारित करने के बाद अब पाकिस्तान वैश्विक मंचों पर अफगानिस्तान में अस्थिरता से उभरते खतरे का संकेत देकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भयभीत करने की कोशिशें कर रहा है। इसके पीछे उसकी रणनीति यह रही है कि वैश्विक स्तर पर तालिबान को मान्यता मिलने से उसके सामरिक हित सुरक्षित हो सकते हैं और वह भारत को दबाव में लाने में सफल हो सकता है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान की पहचान एक ऐसे देश के रूप में बन गई है जिस पर भरोसा तो नहीं किया जा सकता, लेकिन आतंकवाद की जटिलताओं को देखते हुए उसकी भूमिका को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता। खासकर पाकिस्तान की भू राजनीतिक स्थिति ने उसे अति संवेदनशील बना दिया है। इन सबके बीच पाकिस्तान अफगानिस्तान को मिलने वाली विदेशी मदद पर नियंत्रण करके भारत को इससे दूर रखना चाहता है। वह चीन के आर्थिक हितों की खातिर अफगानिस्तान को दांव पर लगा देना चाहता है।
वहीं अफगानिस्तान में भारत का प्रभाव कहीं फिर से न बढ़ जाए, इससे भी पाकिस्तान डरा हुआ है। अफगानिस्तान को लेकर बुलाई गई अहम बैठकों में भारत को आमंत्रित न करने की उसकी मंशा से मानवीय संकट बढ़ा ही है। जबकि पिछले कई दशकों से भारत ने अफगानिस्तान के विकास में अहम योगदान दिया है। शिक्षा, स्वास्थ्य और ढांचागत क्षेत्र की परियोजनाओं पर भारत ने उल्लेखनीय कार्य किए थे, जो तालिबान की वापसी के बाद रुक गए हैं।
अस्सी के दशक में अफगानिस्तान से सोवियत सेना को बाहर करने के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान का इस्तेमाल अग्रिम पंक्ति के राष्ट्र के रूप में किया था। इसके बदले पाकिस्तान को व्यापक आर्थिक और सामरिक सहायता दी गई थी। 1988 में जिनेवा समझौते के बाद सोवियत सेना तो लौट गई, पर अफगानिस्तान में शांति कभी स्थापित नहीं हो सकी। पाकिस्तान ने सोवियत सेना के खिलाफ जिन मुजाहिदीनों को प्रशिक्षित किया था, वे आगे चल कर तालिबान के रूप में सामने आए और उन्होंने हिंसात्मक तरीके से अफगानिस्तान की समूची व्यवस्था को नष्ट कर दिया। पिछले कई दशकों से तालिबान के नेताओं को पाकिस्तान का राजनीतिक और आर्थिक संरक्षण और समर्थन हासिल है।
अफगानिस्तान में दो दशक तक रह कर भी तालिबान को खत्म न कर पाने की अमेरिका की असफलता के पीछे भी पाकिस्तान की तालिबान को मदद देने की नीति को जिम्मेदार माना जाता है। अफगानिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए पाकिस्तान के विभिन्न इलाकों में तालिबान के लिए चंदा जुटाने और उनके लड़ाकों का शहीद की तरह सम्मान करने की घटनाएं सामने आती रही हैं। अंतरराष्ट्रीय समुदाय तालिबान पर यह दबाव बना रहा है कि वह अफगानिस्तान में महिलाओं सहित सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व बहाल करे और मानवाधिकारों की रक्षा के प्रति निष्ठा और जिम्मेदारी से कार्य करें।
वैश्विक मंचों पर पाकिस्तान तालिबान के प्रवक्ता की तरह बर्ताव कर रहा है। उसकी यह नीति अफगानिस्तान के लोगों की समस्याओं को बढ़ा रही है। पाकिस्तान पर न तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भरोसा है और न ही इस्लामिक दुनिया के सभी देशों को। यह पाकिस्तान में आयोजित हालिया सम्मेलन में प्रतिबिंबित भी हुआ। पाकिस्तान की पहल पर आयोजित इस विशेष सम्मेलन में बहुत कम देशों के शीर्ष नेता शामिल हुए। कई देशों ने अपने उपमंत्रियों और प्रतिनिधियों को भेज कर औपचारिकताएं पूर्ण कर लीं। दूसरी ओर उसी समय भारत-मध्य एशिया संवाद की एक दिवसीय बैठक नई दिल्ली में आयोजित की गई, जिसकी अध्यक्षता भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने की थी।
इस बैठक में कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज्बेकिस्तान के विदेश मंत्री शामिल हुए थे। पिछले महीने भी इन सभी मध्य एशियाई देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों ने अफगानिस्तान को लेकर दिल्ली में ऐसा ही संवाद किया था। ये सभी देश इसलामिक देशों के संगठन (ओआइसी) के सदस्य हैं और अफगानिस्तान के साथ सीमा साझा करते हैं। इन मंत्रियों ने इस्लामाबाद में ओआइसी की बैठक में भाग लेने से ज्यादा भारत को तरजीह दी और यह संदेश दिया कि वे अफगानिस्तान के मुद्दे पर भारत के साथ सहयोग बनाए रखना चाहते हैं। ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज्बेकिस्तान जैसे देशों की चिंता यह है कि आने वाले समय में अफगानिस्तान की सरहदों पर मानवीय और सुरक्षा संकट खड़े हो सकते हैं। यहीं नहीं, तालिबान को पाकिस्तान से मिलने वाली सैन्य मदद इन राष्ट्रों के लिए खतरा बन सकती है। कजाकिस्तान और किर्गिस्तान की बड़ी चिंता इस्लामी चरमपंथ के उभार को लेकर है।
अफगान लोगों के मानवीय संकट को ध्यान में रखते हुए भारत ने तालिबान के आने के बाद पहली बार अनाज और जीवन रक्षकदवाइयां पाकिस्तान के रास्ते भेजी हैं। जाहिर है अफगानिस्तान को लेकर भारत की पहल के सकारात्मक परिणाम आ सकते हैं। अफगानिस्तान में भारत की स्थिति मजबूत होने का एक मनोवैज्ञानिक और सामरिक दबाव पाकिस्तान पर रहता है। इससे अफगानिस्तान को नियंत्रित और संतुलित करने में भी मदद मिलती है। अफगानिस्तान में पाकिस्तान द्वारा उत्पन्न की गई अस्थिरता और आतंकवाद से निपटने के लिए वहां भारत का मजबूत होना जरूरी है।