सुशील कुमार सिंह

समान अवसर न केवल लोकतंत्र की बुनियादी कसौटी होते हैं, बल्कि सुशासन की चाह रखने वाली सरकारों के लिए दक्ष और सफल सरकार बनने का पहला अध्याय भी हैं। सभी के लिए समान अवसर का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य क्षेत्र मानवतावादी दृष्टिकोण है और यही संदर्भ शासन और प्रशासन को सामाजिक सुशासन की ओर बढ़ाता है।

गौरतलब है कि सुशासन सामाजिक-आर्थिक न्याय की सर्वोच्च उपलब्धि होता है और लोक सशक्तिकरण इसके केंद्र में होता है। इसके मूल में धारणा यही होती है कि समाज का प्रत्येक तबका सुशासन का अनुभव करे और उसका जीवन खुशी और शांति से परिपूर्ण हो। यह अतिश्योक्ति नहीं कि संविधान स्वयं में एक सुशासन है और इसी संविधान के भाग-4 के अंतर्गत नीति निर्देशक तत्वों में सामाजिक-आर्थिक स्थितियों का भरपूर निर्धारण है। लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से ओत-प्रोत यह हिस्सा न केवल सामाजिक सुशासन को प्रतिष्ठित करने में योगदान देता है, बल्कि राज्य सरकारें सचेतता के साथ कुछ भी बाकी न छोड़ें, इस ओर ध्यान भी केंद्रित करता है।

नीति निर्देशक तत्वों के हर अनुच्छेद में गांधी दर्शन का भाव नीहित है। अनुच्छेद 38, 41, 46 और 47 इस मामले में विषेश रूप से प्रासंगिक देखे जा सकते हैं। अनुच्छेद 38 के विन्यास को समझें तो यह जनता के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए सामाजिक व्यवस्था कायम रखना, अनुच्छेद 41 काम के अधिकार, शिक्षा के अधिकार और लोक सहायता पाने का अधिकार के निहित भाव को समेटे हुए है, जबकि अनुच्छेद 46 कमजोर तबकों के शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देने की बात करता है। अनुच्छेद 47 यह जिम्मेदारी सुनिश्चित करता है कि जनता के पोषण और जीवनस्तर को ऊंचा उठाया जाए। हांलाकि भाग-4 के भीतर 36 से 51 अनुच्छेद निहित हैं जो सामाजिक सुशासन के ही पर्याय हैं।

इसी के अंदर समान कार्य के लिए समान वेतन सहित कई समतामूलक बिंदुओं का प्रकटीकरण और आर्थिक लोकतंत्र का ताना-बाना दिखता है। डा. भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि अगर आप मुझसे जानना चाहते हैं कि आदर्श समाज कैसा होगा, तो मेरा आदर्श समाज ऐसा होगा जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे पर आधारित होगा। बारीक पड़ताल की जाए तो पता चलता है कि आंबेडकर के इस कथन में सबके लिए समान अवसर का पूरा परिप्रेक्ष्य निहित है। एक और विचार यदि प्रशासनिक चिंतक फीडलैंडर का भी देखें तो स्पष्ट होता है कि सामाजिक सेवाएं किसी जाति, धर्म और वर्ग के भेदभाव के बिना सभी तक उपलब्ध होनी चाहिए।

भारत एक संघीय राज्य है जिसकी प्रकृति पुलिस राज्य के विपरीत जन कल्याणकारी राज्य की है। यहां राज्यों का कर्तव्य है कि वे सुशासनिक विधि का निर्माण कर उक्त सिद्धांतों का अनुसरण करें। इसी को ध्यान में रखते हुए 14 जून 1964 को सामाजिक सुरक्षा विभाग की स्थापना की गई थी। 1972 में इस विभाग को शिक्षा और समाज कल्याण मंत्रालय को सौंप दिया गया।

फिर इसे स्वतंत्र मंत्रालय का दर्जा 24 अगस्त 1979 को समाज कल्याण मंत्रालय के रूप में दिया गया। मगर एक बार फिर इसकी कार्य प्रकृति से प्रभावित होते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1983-84 में इसका नाम बदल कर समाज एवं महिला कल्याण मंत्रालय कर दिया था। इसकी गौरव गाथा यहीं तक सीमित नहीं है। 1988 से इसे ‘सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय’ के नाम से जाना जाता है।

महिलाओं और पुरुषों के बीच समानता लाने और महिलाओं के साथ हिंसा समाप्त कराने के विषय में देश ने एक लंबा रास्ता तय किया है। जो महिलाएं रोजमर्रा की जिंदगी में कई किरदार निभाती हैं, उन्हें पुरुषों के समान स्थान देने में कई नीतियां धरातल पर उतारी गईं। संविधान में सभी को समान मौलिक अधिकार और समान विकास का अधिकार जहां दिया गया, वहीं 1992 के तिहत्तरवें और चौहत्तरवें संविधान संशोधन में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण को बढ़ावा देते हुए स्थानीय स्वशासन में तैंतीस फीसद की भागीदारी दी गई जो अब पचास फीसद है। कई कानूनों के माध्यम से महिला सुरक्षा की चिंता की गई, मसलन 2005 में बनाया गया घरेलू हिंसा कानून। भेदभाव की परिपाटी को जड़ से खत्म करने के लिए सामाजिक सुशासन की धारा समय के साथ मुखर होती रही और उसी का एक और नारा बेटी बचाओं, बेटी पढ़ाओ अभियान है।

संविधान समावेशी और सतत विकास की अवधारणा से युक्त है। कानून के समक्ष समता की बात हो, स्वतंत्रता व धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा हो या सबको समान अवसर देने की बात हो, उक्त संदर्भ संविधान में बारीकी से निहित हैं। इसमें सीमांत और वंचित वर्गों का कल्याण अवसर की समानता का बोध है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछड़ा वर्ग के शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक सशक्तिकरण के अलावा वरिष्ठ नागरिकों की देखभाल, महिलाओं की सुरक्षा साथ ही समाज के सभी वर्गों के लिए स्वतंत्र जीवन का अवसर उपलब्ध कराने की इसमें पूरी पटकथा है।

इन सबके बावजूद भारत से भुखमरी का नामोनिशान मिटाने के लिए अभी बहुत लंबा रास्ता तय करना बाकी है। जिस समावेशी विकास की बात होती रही है उसे तीन दशक का वक्त बीत चुका है। इतने समय में देश की आर्थिक व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव आ चुका है, मगर गरीबी, भुखमरी और अशिक्षा से निजात नहीं मिल पाई है।

देश में हर चौथा व्यक्ति अशिक्षित और इतने ही गरीबी रेखा के नीचे हैं। वैश्विक भुखमरी सूचकांक की ताजा रिपोर्ट के अनुसार भुखमरी के मामले में भारत की स्थिति नेपाल व अन्य पड़ोसी देशों से भी खराब है। यहां बुनियादी समस्याओं की कसौटी पर समान अवसर की अवधारणा तो जैसे हांफ रही है। जाहिर है, नीतिगत दायरा और बढ़ाना होगा। भारत सरकार 2030 के सतत विकास लक्ष्य को हासिल करने के लिए दृढ़ दिखाई देती है, मगर मौजूदा स्थिति में जो पोषण की स्थिति है, उससे निपटने के लिए सुशासन पर अधिक ध्यान देने की कवायद रहनी चाहिए।

भागीदारी की महत्ता एवं प्रासंगिकता के गुण सदियों से गाये जाते रहे हैं। हाल के वर्षों में सहभागिता व ग्रामीण विकास ने शासन के प्रमुख विषय के रूप में अपनी अलग व विषिश्ट पहचान बनाई है। संयुक्त राष्ट्र आर्थिक व सामाजिक परिषद ने सरकार व प्रशासन के सभी स्तरों पर आम लोगों की सार्थक व व्यापक भागीदारी सुनिश्चित करने पर बल दिया है। यह तभी संभव हो सकता है जब सभी के लिए सब प्रकार के अवसर उपलब्ध होंगे।

लोकतंत्र के भीतर लोक और तंत्र तब अधिक परिणामदायक साबित होते हैं जब आम लोगों की शासन के कामकाज में दखल होती है। इसी संदर्भ को देखते हुए साल 2005 में सूचना के अधिकार को भी लाया गया, जिसका शाब्दिक अर्थ सरकार के कार्यों में झांकना है। जहां सत्ता जवाबदेह, पारदर्शी और संवेदनशीलता से ओत-प्रोत हो, वहीं सुशासन निवास करता है।

नीतियां जितनी अवसरों से युक्त होंगी, समता और सभी का समान विकास उसी पैमाने पर होगा। बीता एक वर्ष भारत और विश्व के लिए एक अभूतपूर्व संकट का दौर रहा है और कमोबेश यह स्थिति अभी भी है। कोविड-19 ने भी यह पाठ पढ़ाया है कि सबके लिए समान अवसर अभी बाकी हैं। लोगों के लिए सुविधाओं और अवसरों की कमी उन्हें अपनी पूरी क्षमता और दक्षता के विकास के उद्देश्य को हासिल करने से रोकती हैं। जहां रुकावट है वहीं अवसर का अभाव और सुशासन का प्रभाव धूमिल है। ह्यसबका साथ, सबका विकासह्ण नारे की प्रासंगिकता आज के दौर में कहीं अधिक है। जाहिर है, समान अवसर सबको न केवल ताकत देता है बल्कि सुशासन की राह को भी आसान बनाता है।