ब्रह्मदीप अलूने

एक लोकतांत्रिक देश के नीति निर्धारकों का पहला लक्ष्य जन संप्रभुता की सर्वोच्चता की स्थापना का होना चाहिए। लेकिन पाकिस्तान के जन्मदाता मोहम्मद अली जिन्ना अपनी राजनीतिक अभिलाषाओं की पूर्ति के लिए इतने उतावले थे कि उन्होंने देश का पहला गवर्नर जनरल बन कर सत्ता पर पूर्ण नियंत्रण का दांव खेला। बाद में जिन्ना का यह कदम उनके देश की राजनीतिक व्यवस्था का आदर्श बन गया, जो अब आत्मघाती होकर सेना, धार्मिक नेताओं और खुफिया एजेंसी आइएसआइ के जरिए लोकतंत्र को जकड़ने के लिए हर क्षण बेकरार नजर आता है।

अपनी स्थापना के आठ दशक पूर्ण करने की ओर अग्रसर पाकिस्तान में लोकतांत्रिक सरकारों का गठन और असमय पतन नियति-सी बन गई है और इसी कारण यह दक्षिण एशियाई देश राजनीतिक स्थिरता से स्थिरता से कोसों दूर नजर आता है।

इस समय विपक्षी पार्टियां इमरान खान सरकार के खिलाफ लामबंद होकर देश भर में रैलियां कर रही हैं। इन पार्टियों ने सत्ताधारी इमरान खान की सरकार से किसी भी बातचीत से इनकार कर दिया है। विपक्षी पार्टियों के नेता सेना और आइएसआइ को लेकर बेहद मुखर होकर विरोध कर रहे हैं। विपक्षी दलों के गठबंधन- पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम) की रैलियां पाकिस्तान के प्रमुख शहरों में लगातार अपना प्रभाव दिखाने में कामयाब हो रही हैं। इसमें जुटने वाली भीड़ अविश्वसनीय है।

इसका प्रमुख कारण विभिन्न राजनीतिक दलों का अच्छा-खासा जनाधार भी है। पीडीएम के प्रमुख मौलाना फजलुर्रहमान पाकिस्तान के परंपरावादी समाज की पहली पसंद हैं और उनका संगठन जमीयत-उलेमा-इस्लाम बेहद प्रभावी माना जाता है।

पूर्व प्रधानमंत्री और मुसलिम लीग (नवाज) के नेता नवाज शरीफ रैलियों में वीडियो लिंक के जरिए भाषण दे रहे हैं और उनकी बेटी मरियम शरीफ लोगों से जा जाकर मिल रही हैं। पाकिस्तान पीपल्स पार्टी के प्रमुख बिलावल भुट्टो देश के नौजवानों का पसंदीदा चेहरा हैं और वे इमरान खान की सरकार को उखाड़ फेंकने को तत्पर नजर आ रहे हैं।

साल 2018 के आम चुनाव में इमरान खान की पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआइ) का देश की शीर्ष सत्ता तक पहुंचना पहले से तय नजर आ रहा था। सेना, न्यायालय के साथ चुनाव आयोग ने चुनाव परिणाम का खाका बेहद सोच समझ कर तैयार किया और बड़े रणनीतिक तरीके से अंजाम भी दिया। उस समय का समूचा घटनाक्रम इसकी पुष्टि भी करता है।

न्यायालय के फैसले को आधार बना कर देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल मुसलिम लीग (नवाज) के नेता नवाज शरीफ को जेल में डाल दिया गया। चुनाव परिणाम के पहले ही इमरान खान को मीडिया ने जीत का सेहरा बांध दिया।

सेना, आतंकियों, आइएसआइ और धार्मिक समूहों ने उनका भरपूर समर्थन किया और इमरान खान को लोकतांत्रिक ढंग से चुने जाने की हर संभव परिस्थितियां उपलब्ध कराई गईं। चुनाव आयोग ने सेना के इशारे पर अभूतपूर्व कदम उठाते हुए पहली बार मतदान केंद्रों के अंदर सेना तैनात करने का फैसला किया, जबकि इसके पहले सुरक्षाकर्मियों को सिर्फ अतिसंवेदनशील मतदान केंद्रों के बाहर ही तैनात किया जाता था।

आम चुनाव के दौरान तीन लाख इकहत्तर हजार से अधिक जवानों को तैनात किया गया था, जो इसके पहले 2013 में हुए आम चुनाव से तीन गुना से अधिक थे। चुनाव आयोग ने सेना को यह अधिकार दिया कि मतदान के दिन मतदान केंद्रों में यदि कोई कानून को उल्लंघन करता हुआ पाया जाए तो उसे तुरंत गिरफ्तार कर लिया जाए और सजा दी जाए।

इसके अलावा मतपत्रों की छपाई करने वाले सरकारी छापेखानों को भी सेना के हवाले कर दिया गया था। यही नहीं, मतपत्रों एवं चुनाव से संबंधित अन्य सामग्रियों की हिफाजत का जिम्मा भी सेना को सौंप दिया गया था। चुनाव में सेना का इस बड़े पैमाने पर दखल किसी चुनावी फिक्सिंग का संकेत दे रहे थे।

इन सबके बावजूद पाकिस्तान की जनता को इमरान खान से बहुत उम्मीदें थीं, जो अब निराशा में बदल चुकी हैं। इमरान खान ने जनता को नए पाकिस्तान का सपना दिखाया था, लेकिन वे जनता से ज्यादा सेना के नुमाइंदे नजर आते हैं।

देश की आर्थिक स्थिति बद से बदतर हो गई है। सेना बलूचिस्तान सहित कई इलाकों में आम जनता, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और अल्पसंख्यकों को लगातार निशाना बना रही है। धन शोधन और आतंकियों को पैसे की मदद की रोकथाम के लिए पाकिस्तान वित्तीय कार्रवाई बल (एफएटीएफ) का भारी दबाव है और पाकिस्तान के समक्ष काली सूची में जाने का खतरा मंडरा रहा है।

लेकिन इमरान सरकार के लिए यह आसान काम नहीं है। सेना और आइएसआइ का आतंकियों को पूर्ण समर्थन है। ऐसे में इमरान खान की सरकार आतंकियों के खिलाफ कदम कड़े कदम उठाने में पूरी तरह नाकाम साबित हो रही है। इमरान खान को डर सता रहा है कि एफएटीएफ पाकिस्तान को काली सूची में डाल देता है तो पहले से ही लड़खड़ाई अर्थव्यवस्था पूरी तरह ढह जाएगी। अंतरराष्ट्रीय दबावों और प्रतिबंधों के कारण देश में महंगाई बढ़ रही है और आम जनता के लिए रोजी-रोटी जुटाना मुश्किल होता जा रहा है।

इमरान खान कूटनीतिक मोर्चे पर भी लगातार नाकाम रहे हैं। पाकिस्तान की इस्लामिक देशों के नेतृत्व की कूटनीति बेदम होने लगी है। तुर्की और ईरान के साथ लामबंद होकर उसने अपने परंपरागत मित्र सऊदी अरब को नाराज कर दिया है। इसलिए सऊदी अरब पाकिस्तान से अपना अरबों का बकाया कर्ज मांग रहा है।

संयुक्त अरब अमीरात ने भी पाकिस्तान के नागरिकों को कामकाजी वीजा देना बंद कर दिया है। इन देशों में पाकिस्तान के लाखों नागरिक काम करते हैं और पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति बेहतर रखने में इसका बड़ा योगदान रहता है। इसके मुकाबले इन देशों से भारत के संबंध बेहद मजबूत हुए हैं। पिछले दिनों भारत के सेना प्रमुख ने सऊदी अरब और अमीरात का दौरा भी किया था। इसे पाकिस्तान की नाकामी माना जा रहा है और इसे लेकर विपक्षी दल इमरान खान सरकार पर हमलावर हैं।

साल 2013 में शुरू हुए चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे को लेकर भी पाकिस्तान में आंतरिक अशांति बढ़ी है। बलूचिस्तान के लोग इसे अपने हितों के खिलाफ मानते हैं और बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी इस गलियारे की सुरक्षा में लगे सुरक्षाबलों और चीनी नागरिकों को लगातार निशाना बना रही है। चीन का रुख भी पाकिस्तान की परेशानी बढ़ाने वाला है।

पाकिस्तान की सरकार और सेना इस गलियारे को जल्दी पूरा करवाना चाहती है, जबकि ड्रैगन का रुख पाकिस्तान को लेकर बदल रहा है। 2016 में चीन के सरकारी बैंकों- चाइना डेवलपमेंट बैंक और एक्सपोर्ट इंपोर्ट बैंक आॅफ चाइना ने पाकिस्तान को पचहत्तर अरब डॉलर का कर्ज दिया था। 2019 में यह रकम घट कर मात्र चार अरब डॉलर रह गई थी। 2020 में चीन ने पाकिस्तान को केवल तीन अरब डॉलर का ही कर्ज दिया है। इससे साफ है कि चीन पाकिस्तान से जोड़ने वाले इस गलियारे की सुरक्षा को लेकर आशंकित है।

इन सबके बीच इमरान खान को लेकर पाकिस्तान का समाज भी बंटता जा रहा है। इमरान खान देश और बाहर अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए राष्ट्रवाद का नुस्खा आजमाने लगे हैं। वे सरकार के खिलाफ विपक्षी दलों की लामबंदी को भारत की साजिश से जोड़ कर जनता का भरोसा जितने की कोशिश करते नजर आ रहे हैं।

लेकिन इमरान खान के लिए सत्ता में बने रहना आसान नहीं है। 2014 में उनकी पार्टी ने आजाद मार्च के जरिए नवाज शरीफ की सरकार को उखाड़ फेंकने का बिगुल बजाया था। छह साल बाद एक बार फिर पाकिस्तान में वैसे ही हालात बन गए है। फर्क बस इतना है की इस समय जब देश के प्रधानमंत्री वे स्वयं हैं। बहरहाल पाकिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता से वहां सेना और आइएसआइ मजबूत होती है। पाकिस्तान एक बार फिर अस्थिरता की ओर बढ़ रहा है। ऐसे में फिर से सैन्य शासन की आशंकाओं को खारिज कर पाना आसान नहीं है।