पूर्वोत्तर के विकास की गति तेज करनी होगी, रोजगार के अवसर बढ़ाने होंगे, ताकि नौजवान उग्रवादी गुटों के प्रभाव में न आएं। धर्म और जाति के नाम पर बंटे समाज को एकजुट रखना होगा। इस समय पूर्वोत्तर के कुछ राज्य धार्मिक तनाव के केंद्र भी बने हुए हैं। अगर इन हालात पर काबू नहीं पाया गया तो बाहरी ताकतें निश्चित तौर पर इसका लाभ उठाएंगी।

मणिपुर में उग्रवादी गतिविधियों ने फिर से सिर उठा लिया है। पिछले हफ्ते के एक बड़े उग्रवादी हमले में असम राइफल्स के सैन्य अधिकारी और उनका परिवार शहीद हो गया। मणिपुर में हुए इस हमले ने देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए चुनौती पैदा कर दी है। इससे पहले 2015 में राज्य के चंदेल जिले में नगा आतंकियों ने एक बड़ा हमला किया था, जिसमें अठारह सैनिक शहीद हो गए थे।

अरुणाचल प्रदेश सीमा पर चीन से तनाव के बीच म्यांमा सीमा पर स्थित मणिपुर में यह उग्रवादी हमला एक खतरनाक संकेत है। हालांकि अभी यह साफ नहीं हुआ है कि हमला किया उग्रवादी गुट ने है। वैसे हमले की जिम्मेदारी नगा पीपुल्स फ्रंट और पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने ली है। यह हमला ऐसे वक्त में हुआ है जब पूर्वोत्तर के राज्यों को पूर्वी एशिया के देशों के साथ जोड़ने की योजना बना कर इस क्षेत्र के विकास के लिए प्रयास किए जा रहे हैं।

पिछले कई दशकों से पूर्वोत्तर के राज्यों में सक्रिय उग्रवादी संगठन भारत के लिए चुनौती रहे हैं। सरकारी तंत्र में भारी भ्रष्टाचार और मादक पदार्थों के बढ़ते कारोबार ने आतंकी संगठनों की जमीन को और मजबूत किया है। यह एक बड़ा कारण है जिसकी वजह सेपूर्वोत्तर के राज्य लंबे समय से अलगाववादी गुटों की हिंसा झेल रहे हैं। आज भी उग्रवादी संगठनों का तानाबाना कमजोर नहीं पड़ा है।

हालांकि इसके और भी कारण हैं। पूर्वोत्तर में मौजूद कई जनजातियों के बीच आपसी तनाव और विवाद केंद्र और राज्य सरकारों के लिए बड़ी चुनौती रहे हैं। ये जनजातियां आपसी हितों को लेकर टकराती रही हैं। मणिपुर की दो जनजातियां नगा और कुग्गी का आपसी संघर्ष दशकों से है। इसलिए उग्रवादी गुटों के बीच भी हितों का टकराव कायम है। इन उग्रवादी गुटों के अपने-अपने एजंडे हैं। मादक पदार्थों का कारोबार इस टकराव को और बढ़ाता है। विदेशी ताकतों से मिलने वाली आर्थिक मदद इन्हें शांति वार्ता के मेज पर आने से रोकती है।

मणिपुर में हाल में हुए हमले का एक आयाम यह भी है कि चीन पूर्वोत्तर में उग्रवादी गुटों को हवा देने की रणनीति पर चल रहा है। इसके लिए वह पूर्वोत्तर के आतंकी संगठनों का इस्तेमाल चीन कर रहा है। यह तो कोई छिपी बात नहीं है कि सीमा विवाद को लेकर चीन भारत पर दबाव बनाने के मकसद से पूर्वोत्तर राज्यों में सक्रिय उग्रवादी संगठनों की मदद लंबे समय से करता रहा है। वह पूर्वोत्तर के उग्रवादी गुटों को पैसे और हथियार मुहैया कराने से लेकर प्रशिक्षण भी देता रहा है। नगालैंड, मणिपुर और मिजोरम में सक्रिय अलगाववादी गुट लंबे समय से चीन के संपर्क में रहे हैं।

पूर्वोत्तर के राज्यों की सीमा चीन, म्यांमा और बांग्लादेश से मिलती है। चीन साठ के दशक से ही पूर्वोत्तर में सक्रिय अलगाववादी गुटों को हवा देता रहा है। पूर्वोत्तर के अरुणाचल प्रदेश में भारत और चीन के बीच सीमा विवाद है। अरुणाचल प्रदेश पर चीन लंबे समय से दावेदारी कर रहा है। इसलिए इस इलाके में भारत पर दबाव बनाए रखने के लिए चीन दशकों से पूर्वोत्तर के आतंकी गुटों की मदद लेता और देता रहा है।

इतना ही नहीं, चीन इसके लिए म्यांमा की धरती का भी इस्तेमाल किया। दरअसल चीन तो भारत के लिए पूर्वोत्तर में स्थायी समस्या है। मणिपुर में असम राइफल्स के काफिले पर हमला करवाने में चीन की भूमिका पर इसलिए चर्चा भी हो रही है क्योंकि यह हमला तब हुआ जब लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश की सीमा पर दोनों तरफ के सैन्य बलों के बीच भारी तनाव बना हुआ है।

पूर्वोत्तर में सक्रिय नगा और मिजो आतंकी गुटों के सदस्यों को चीन युन्नान प्रांत और तिब्बत में प्रशिक्षण देने की खबरें भी आ चुकी हैं। बाद में चीन ने एक रणनीति के तहत पूर्वोत्तर में सक्रिय अलगाववादी गुटों के प्रशिक्षण केंद्रों को म्यांमा में स्थानांतरित करवा दिया। हालांकि उग्रवादी गुटों को लेकर म्यांमा की नीति स्थायी नहीं रही है। भारत के दबाव में म्यांमा ने कई बार इन उग्रवादी पर अपनी सीमा में कार्रवाई भी की है। इसके बावजूद म्यांमा में नगा और मिजो आतंकी गुट मौजूद हैं। दरअसल म्यांमा में लंबे समय तक सैन्य शासन रहा है और जो आज भी है, उसका खमियाजा भारत को भुगतना पड़ा है। म्यांमा का सैन्य प्रतिष्ठान चीन के इशारे पर इन आतंकी गुटों की मदद भी करता है तो भारत के दबाव में दिखावे के तौर इनके खिलाफ कदम भी उठाता दिखता है।

गौरतलब है कि 2015 में भारतीय सैन्य बलों ने म्यांमा की सीमा में मौजूद उग्रवादी संगठनों के ठिकानोंं पर कार्रवाई की थी। ये ठिकाने सोशलिस्ट काउंसिल आफ नागालैंड के थे। इस कार्रवाई में कई नगा उग्रवादी मारे गए थे। इस सैन्य कार्रवाई में भारत को म्यांमा सेना ने सहयोग दिया था। लेकिन 2015 म्यांमा के लिए भी महत्त्वपूर्ण था। यहां लोकतंत्र मजबूत हो चुका था। उसी साल नवंबर में म्यांमा में चुनाव हुए। 2010 के बाद लोकतांत्रिक गुटों का दबाव म्यांमा की सेना पर खासा बढ़ गया।

पूर्वोत्तर के राज्यों को म्यांमा, बांग्लादेश और पूर्वी एशिया के साथ जोड़ने की कवायद तेज होने लगी थी। इसका सीधा असर पूर्वोत्तर के राज्यों में सक्रिय उग्रवादी संगठनों पर भी पड़ा। 2019 में भारत और म्यांमा के सैन्य बलों ने अपने-अपने इलाकों में कामतपुर लिबरेशन आर्गनाइजेशन, नेशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल आफ नगालैंड (खापलांग), द यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट आफ असम और नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट आफ बोडोलैंड के खिलाफ सैन्य अभियान चलाया था। पर इसी साल म्यांमा में सेना ने सत्ता पर कब्जा कर लिया। तख्ता पलट करने वाले सैन्य शासक चीन के नजदीक थे।

भारत के लिए इस वक्त चिंता की बड़ी बात यह है कि म्यांमा की एक हजार छह सौ चालीस किलोमीटर लंबी समय पूर्वीतर के राज्यों से लगती है। म्यांमा के सैन्य शासक चीन के दबाव में पूर्वोत्तर के उग्रवादी संगठनों को मदद दे सकते हैं। इसलिए पूर्वोत्तर के राज्यों को लेकर भारत को ठोस नीति बनानी होगी। पूर्वोत्तर राज्यों में उग्रवादी संगठनों से लंबे समय से हो रही बातचीत के सुखद परिणाम देखने को नहीं मिले हैं। नगा विद्रोही गुट भारत सरकार से बातचीत करते रहे, लेकिन अभी तक कोई ठोस समाधान नहीं निकला।

भारत की एक और चिंता स्वर्ण त्रिभुज (गोल्डन ट्रायंगल) को लेकर है, जो मादक पदार्थों की तस्करी से जुड़ा हुआ वह क्षेत्र है जो म्यांमा, लाओस और थाईलैंड को आपस में जोड़ता है। इस रास्ते तमाम नशीले पदार्थ भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में आते हैं। एक वक्त इसी स्वर्ण त्रिभुज के रास्ते चीन में भी नशे का कारोबार पनपा हुआ था। लेकिन चीन ने कार्रवाई कर हालात काबू में कर लिए। संयुक्त राष्ट्र ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि इस स्वर्ण त्रिभुज के रास्ते भारत में नशीली दवाओं की तस्करी बढ़ी है। इनके निशाने पर पूर्वोत्तर के राज्य हैं।

इसमें कोई शक नही है कि मादक पदार्थों की तस्करी में पूर्वोत्तर के उग्रवादी गुट भी शामिल हैं और इनकी आमदनी का यह बड़ा जरिया है। इसलिए उग्रवादी गुटों से मुकाबले के लिए बहुस्तरीय प्रयास करने होंगे। पूर्वोत्तर के विकास की गति तेज करनी होगी, रोजगार के अवसर बढ़ाने होंगे ताकि नौजवान उग्रवादी गुटों के प्रभाव में न आए। धर्म और जाति के नाम पर बंटे समाज को एकजुट रखना होगा। इस समय पूर्वोत्तर के कुछ राज्य धार्मिक तनाव के केंद्र भी बने हुए है। अगर इन स्थितियों पर काबू नहीं पाया गया तो बाहरी ताकतें निश्चित तौर पर इसका लाभ उठाएंगी।