जिस बैठक में मिस्र से एक बेहतर संकेत निकलना चाहिए था, हरित ऊर्जा पर जोर होना चाहिए था, ताकि जलवायु का बिगड़ता संतुलन और न बिगड़े, वह दिखा नहीं। पिछली डेढ़ सदी में हमने तरक्की की जो मिसाल कायम की है, वह सब कुछ पर्यावरण की कुर्बानी देकर हासिल हुआ है। नतीजा सामने है। हवा, पानी, जमीन और जंगल को लेकर हर कहीं चिंता पैदा हो गई है। हालांकि आबोहवा में तब्दीली हमें महसूस तो पचास साल पहले ही होने लगी थी, लेकिन उसे लगातार नजरअंदाज करने का नतीजा यह है कि धरती खतरनाक स्थिति में पहुंच चुकी है।
गर्मी, बारिश, सूखा, बाढ़, ठंड के बेवक्त और जबरदस्त प्रकोप से डगमगाए संतुलन ने घबराहट पैदा कर दी है। अब जब थोड़ा चेते हैं, तो रस्मअदायगी के सम्मेलनों की बाढ़-सी आ गई है। मगर जो हाल है और जैसा चल रहा है अगर वैसा ही चलता रहा तो जलवायु परिवर्तन पर होने वाले तमाम सम्मेलन और दूसरी गतिविधियां कहीं महज उत्सव बन कर न रह जाएं।
आज बात भले पृथ्वी के बढ़ते तापमान, उसमें भी 1.5 डिग्री सेल्सियस, को लेकर हो या इससे उपजे दूसरे दुष्परिणामों की, पर्यवारण को नुकसान पहुंचा कर तरक्की हासिल करने तथा बचे-खुचे संसाधनों के दोहन से पीछे हटने को कोई तैयार नहीं है। औद्योगिक क्रांति की बढ़ती भूख, खासकर धरती पर मौजूद संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के न जाने कितने दुष्परिणाम भोग कर भी चुप्पी साधे रहना धरती के साथ हमारा कैसा इंसाफ है? ऐसे दुष्परिणामों की भरपाई तो दूर, पहले कुछ सोचा नहीं और अब जब सोचा जा रहा है, तो सोचने का दिखावा हो रहा है।
वाकई काफी देर हो चुकी है। फिर भी हम हैं कि मानते नहीं और इसी होड़ में विकास से ज्यादा विनाश की इबारत लिख रहे हैं। होना तो यह चाहिए था कि जैसे ही पर्यावरण असंतुलन का अहसास होने लगा, तुरंत चरणबद्ध तरीके से गलती सुधारने में जुट जाना था। मगर यह हुआ नहीं, जागरूकता पैदा करने के नाम पर दुनिया भर में बड़े-बड़े संगठन बन गए, कोष इकट्ठा हुए, एजंडे तय हुए। उससे लगा कि धरती के साथ न्याय होगा। मगर कितना न्याय हुआ, नतीजा सबके सामने है।
महीने भर पहले पूरी दुनिया की उम्मीदें संयुक्त राष्ट्र के तत्त्वावधान में मिस्र के शर्म अल-शेख में आयोजित विश्व जलवायु सम्मेलन पर टिकी थीं। उम्मीद थी कि पिछली छब्बीस बैठकों के मुकाबले इसमें कुछ ठोस जरूर होगा। वजह भी थी कि बीते साल भर में जलवायु परिवर्तन से जुड़ी जितनी भी घटनाएं हुर्इं, उनको सबने देखा, महसूस किया और चिंता में डूबे दिखे।
मगर जब मिस्र में सब जुटे तो जलवायु परिवर्तन पर गंभीर चिंता के बजाय अमेरिका की अफ्रीका से नई पाइप लाइनें बिछा कर जीवाश्म गैसें लाने की दिलचस्पी सुर्खियों में रही। अक्षय ऊर्जा पर कोई ठोस बहस नहीं हुई। निश्चित रूप से जो मौजूदा परिस्थितियां हैं, उससे तो यही लगता है कि कहीं ऊर्जा संकट जलवायु संकट पर भारी न पड़ जाए।
जलवायु परिवर्तन से नुकसान की भरपाई को लेकर इतने मतभेद उभरे कि लगने लगा कि कोई निष्कर्ष निकल भी पाएगा या नहीं। ‘क्षरण और क्षति’ पर पूरी बहस केंद्रित थी, जिसकी भरपाई कार्बन उत्सर्जन के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार देशों से कराने की मांग थी। सहमति न बन पाने और मतभेद ज्यादा होने से बैठक को एक दिन और बढ़ाना पड़ा। अब भरपाई कैसे हो पाएगी, यह वक्त बताएगा। फिलहाल धरती की बिगड़ती हालत के परिणामों में कहीं कोई कमी दिखती नहीं है। भावी पीढ़ी को लेकर कपट भरी चिंताएं या दिखावा धरती के अस्तित्व के लिए बेहद गंभीर संकेत हैं।
अगर अफ्रीकी द्वीप समूह से आवाज उठती है कि वे जीवाश्म र्इंधन पर निर्भर औद्योगीकरण से दूर रहेंगे और अमीर देशों के मनमाने और औपनिवेशिक हितों, खासकर यूरोपीय देशों का सताया नहीं कहलाएंगे, तो बुरा क्या है? इधर अमेरिका है कि येन केन प्रकारेण अफ्रीका से नई गैस पाइपलानें बिछाने के लिए अरबों डालर का निवेश करना चाहता है। यूरोपीय समूह असल में रूसी गैस का विकल्प ढूंढ़ रहा है।
वह इसलिए भी अफ्रीका को ललचाई और स्वार्थ भरी निगाहों से देख रहा है, क्योंकि उसको पता है कि रूस के मुकाबले अफ्रीका हर मोर्चे पर पीछे रहेगा। दुनिया के तमाम उदाहरणों को भी देखना होगा, जब तेल को लेकर कहां-कहां और कैसी-कैसी लड़ाइयां हुई हैं। हो सकता है कि अमेरिका और यूरोपीय समूह के लिए अफ्रीकी देश, रूस के मुकाबले बेहद आसान लक्ष्य हों।
हकीकत यह है कि समूची दुनिया में जीवाश्म गैसों के कुल उत्पादन में छह फीसद हिस्सेदारी ही अफ्रीका की है, जबकि जलवायु परिवर्तन से वहां की फसलों पर जबरदस्त दुष्प्रभाव पड़ा है। वहीं अफ्रीका में अब भी साठ करोड़ से ज्यादा लोगों के घरों में बिजली नहीं पहुंची है। ऐसे में अंधेरे अफ्रीकी देश यूरोप को रोशन करेंगे, सुन कर ही कितना अजीब लगता है।
बात भारत में साल दर साल बढ़ती भयावह गर्मी की हो या फिर 2022 में इंग्लैंड और पूरे यूरोप की भयावह गर्मी या उस सूखे की, जो पांच सौ साल का कीर्तिमान था या फिर पाकिस्तान में आई विनाशकारी बाढ़ की हो। दुनिया के तेजी से पिघलते ग्लेशियरों के चलते समुद्री जलस्तर से दुनिया के कई इलाकों के डूबने के खतरे हों या जलवायु परिवर्तन झेल रहे तमाम देशों की, इस पर कब चेतेंगे?
अभी तो हमने केवल 1.2 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि में ऐसे हालात देखे हैं, अगर यही वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस या इससे भी आगे बढ़ी, तो हालात कैसे होंगे, कल्पना मात्र से सिहरन हो उठती है। सब कुछ जानते-समझते हुए भी दुनिया के तमाम ताकतवर देश और पर्यावरण हितैषी संगठन तापमान नियंत्रण की चिंता छोड़ कर अपना हित और व्यापार देख रहे हैं। जिस बैठक में मिस्र से एक बेहतर संकेत निकलना चाहिए था, हरित ऊर्जा पर जोर होना चाहिए था, ताकि जलवायु का बिगड़ता संतुलन और न बिगड़े, वह दिखा नहीं।
अक्षय ऊर्जा के लिए पर्याप्त धन देकर प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता न बढ़ाने की सहमति बनानी थी, वैसा न कर एक मौका और गंवा दिया। आखिर कब तक दुनिया भर में चुकते प्राकृतिक संसाधन हमारे लिए अवसर बनते रहेंगे? शायद यही वह वक्त है जब जलवायु संतुलन पर जलवायु प्रेमी संगठनों के दखल की जरूरत है, जिसमें सरकारों से अलग जनभागीदारी से लोगों में यह संदेश पहुंचे और भावुक तौर-तरीके अपनाए जाएं, जिससे दुनिया के हर आम आदमी को दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जलवायु को सुधारने की कैसी कोशिशें हों, समझाई जाएं।
सवाल सिर्फ सरकारों के एजेंडे, देशों की तरक्की, पैसा कमाने की होड़ या बाहुबली बनने के लिए कुछ भी किया जाए, न होकर आने वाली उस पीढ़ी की चिंता पर है। इसी पर 2015 में पृथ्वी दिवस के दिन अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी अपनी गंभीर चिंता जताई थी और कहा था कि इससे निपटने की जवाबदेही नई पीढ़ी पर भला कैसे छोड़ी जा सकती है? उनका इशारा भावी पीढ़ी के साथ जबरदस्त और कभी भरपाई न हो सकने वाली मुसीबत की ओर था।
भला भावी पीढ़ी का इसमें क्या दोष? क्यों भुगते हमारी भावी पीढ़ी पर्यावरण असंतुलन का खमियाजा, जो इस मामले में अबोध, नासमझ है, कूटनीति, राजनीति या अर्थनीति की ज्यादा जानकारी नहीं रखती है। बहुतेरों को पर्यावरण, प्रदूषण या जलवायु परिवर्तन की समझ भी नहीं है, लेकिन प्रकृति के बदलते मिजाज को लेकर मन में जरूर कुछ न कुछ हलचल तो होती होगी। बस इसी को जगाना है। सच तो यह है कि समूची दुनिया में प्राकृतिक संतुलन को लेकर एक वैश्विक क्रांति की जरूरत है।