विजय प्रकाश श्रीवास्तव
जो लोग प्रतिभा प्रबंधन के क्षेत्र से जुड़े रहे हैं और जिन्हें ग्रामीण युवाओं से मिलने, उनका साक्षात्कार लेने या उन्हें काम पर रखने का अवसर मिला है, यह दृढ़ मत रखते हैं कि इन युवाओं में फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने की क्षमता भले न आ पाई हो, पर उनके जज्बे और कर्मठता में कोई कमी नहीं है। बात केवल अवसर मिलने की है।
तमाम चिंताओं के बावजूद देश में रोजगार की उपलब्धता में कोई ज्यादा सुधार देखने को नहीं मिल रहा है। जिस तेजी से पढ़े-लिखे नौजवानों की फौज तैयार होती जा रही है, उस अनुपात में रोजगार के नए अवसर नहीं बन रहे हैं। देश में वैसे तो बहुत-सी समस्याएं हैं, पर इनमें बेरोजगारी को सबसे ऊपर रखा जा सकता है। विशेषज्ञ कहते भी रहे हैं कि सरकार को आर्थिक विकास के उत्प्रेरक के रूप में कार्य करना चाहिए और इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि यह निजी क्षेत्र के साथ पूरा हाथ बंटाए।
साथ ही यह भी कहा जाता है कि प्रतिभा का मोल हर जगह होता है, पर हकीकत यह है कि देश में प्रतिभाएं उपेक्षित भी हैं। यदि किसी योग्य व्यक्ति को उसकी काबिलियत के अनुसार काम न मिले, तो यह एक प्रकार से उसकी प्रतिभा की उपेक्षा ही कही जाएगी। यहां यह समझ लेने की जरूरत है कि हर मामले में प्रतिभाएं ही काम की मोहताज नहीं हैं। लोग अच्छे संगठनों में कार्य करने को उत्सुक रहते हैं, तो संगठनों को भी लोगों की जरूरत होती है। एक का काम दूसरे के बिना नहीं चल सकता। दरअसल उद्योग व्यापार के कई क्षेत्रों में आज उपयुक्त प्रतिभाओं की कमी महसूस की जा रही है।
भारत भले गांवों का देश हो और इसकी करीब दो तिहाई आबादी ग्रामीण क्षेत्र में रहती हो, पर वास्तविकता यह है कि संगठित क्षेत्र में नियोजित व्यक्तियों में वर्चस्व शहरी आबादी का ही है। यदि यह सवाल उठाया जाए कि क्या प्रतिभा केवल शहर के लोगों में होती है, तो इसका उत्तर यही मिलेगा कि प्रतिभाशाली लोग शहर या गांव कहीं भी हो सकते हैं। पर यह भी एक सत्य है कि साधनों के बंटवारे में, चाहे ये शिक्षा, उद्योग या किसी भी क्षेत्र से जुड़े हुए हों, देश में शुरू से ही गंभीर असंतुलन रहा है।
शहर ज्यादा साधन संपन्न बने हैं और तमाम परिवर्तनों के बाद भी गांव उपेक्षित बने हुए हैं। सरकारी नौकरियों में तो ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों का प्रतिनिधित्व फिर भी है, पर निजी क्षेत्र की उत्तम कंपनियों में शहरी पृष्ठभूमि के लोगों का ही बाहुल्य है। यह स्थिति सामाजिक-आर्थिक समानता स्थापित करने के आदर्श से कतई मेल नहीं खाती।
पिछले कुछ वर्षों के आंकड़ों को देखें तो स्पष्ट होगा कि सरकारी नौकरियों की संख्या दिनोंदिन घटती जा रही है। रोजगार के क्षेत्र पर कोरोना संकट की छाया का असर अब भी बना हुआ है। ऐसे में युवाओं के लिए रोजगार के नए अवसरों की कमी तब तक रहेगी, जब तक अर्थव्यवस्था पूरी तरह पटरी पर नहीं आ जाती। जो भर्तियां हो रही हैं, उनमें ज्यादा उम्मीद कारपोरेट क्षेत्र से ही है।
कारपोरेट जगत को चाहिए कि वह ग्रामीण प्रतिभाओं को अपनी जनशक्ति में शामिल करने हेतु कुछ अभिनव कदम उठाए। ग्रामीण युवाओं के लिए स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसरों की भारी कमी है। केवल कृषि स्थानीय ग्रामीण युवाओं को नियोजित करने के लिए पर्याप्त नहीं है। वैश्विक मानकों से तुलना करें तो भारत में कृषि में लगे लोगों की संख्या वास्तविक जरूरत से अधिक रही है। जोत भले ही छोटी हो, लेकिन पूरा का पूरा परिवार उसी पर लगा दिखता है। पर अब यहां एक बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है।
दरअसल कृषि उत्पादन बढ़ने के बावजूद इसमें लगे लोगों की संख्या में निरंतर कमी आ रही है। इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि कई खेतिहर परिवारों के युवा अब खेती को छोड़ कर कोई और काम अपनाना चाहते हैं। जो ग्रामीण युवा पहले से बेरोजगार हैं और जो अब खेती से हट कर कुछ और करना चाहते हैं, कारपोरेट जगत उन्हें रोजगार प्रदान कर एक प्रकार से अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वाह कर सकता है।
जो लोग प्रतिभा प्रबंधन के क्षेत्र से जुड़े रहे हैं और जिन्हें ग्रामीण युवाओं से मिलने, उनका साक्षात्कार लेने या उन्हें काम पर रखने का अवसर मिला है, वे यह दृढ़ मत रखते हैं कि इन युवाओं में फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने की क्षमता भले न आ पाई हो, पर उनके जज्बे और कर्मठता में कोई कमी नहीं है। बात केवल अवसर मिलने की है। अंग्रेजियत का वर्चस्व टूटने के बाद सिविल सेवाओं में ग्रामीण युवाओं का बोलबाला बढ़ा है। इसके कई निहितार्थ हो सकते हैं। अनुभव यह भी बताता है कि सामान्य शिक्षा व साधारण पृष्ठभूमि के युवाओं को संगठन की जरूरतों के अनुसार ढालना अपेक्षाकृत आसान होता है।
कारपोरेट जगत में ग्रामीण युवाओं के प्रवेश के कई माडल हो सकते हैं। कंपनियां गांवों के युवाओं को शुरू में प्रशिक्षण पर रख सकती हैं और कामकाज संतोषजनक पाए जाने के बाद उन्हें नियमित रोजगार दे सकती हैं। यह भी हो सकता है कि कंपनियां ग्रामीण इलाकों में पढ़ाई पूरी करने वालों में से युवाओं को चुन कर उन्हें गहन प्रशिक्षण दें और बाद में नियोजित कर लें। यदि कंपनियां कुछ ग्रामीण किशोरों या युवाओं के लिए इंजीनयरिंग, प्रबंधन जैसे पेशेवर पाठ्यक्रम प्रायोजित करें और इनके पूरा होने के बाद उन्हें अपने यहां रखें, तो यह भी एक अच्छी पहल हो सकती है। कंपनियां अपने पास यह विकल्प भी रख सकती हैं कि वे पढ़ाई का कुछ या पूरा खर्चा नियोजित व्यक्ति को नौकरी में मिलने वाले वेतन से किस्तों में वसूल कर लें। यह सभी के लिए फायदे का सौदा होगा।
सेंटर फार क्रिएटिव लीडरशिप के अनुसार करीब सत्तर फीसद सीख काम के दौरान ही मिलती है। ग्रामीण पृष्ठभूमि से निकले लोगों को तकनीकी रूप से प्रशिक्षित करने की जरूरत ज्यादा हो सकती है, पर काम करते-करते वे भी वह सब कुछ सीख जाने में सक्षम हैं जो शहरी पृष्ठभूमि के युवा सीखते हैं। यहां कंपनियों को सीआइआइ और फिक्की जैसे उद्योग संगठनों की उन रिपोर्टों को भी ध्यान में रखना चाहिए जिनमें देश के इंजीनियरिंग व प्रबंधन स्नातकों में से तीन चौथाई से अधिक युवाओं को नौकरी पर रखे जाने लायक नहीं समझे जाने की बातें कही गई हैं। जाहिर है, इस वर्ग में भी शहरी युवाओं का ही बाहुल्य है। यदि ऐसा है तो ग्रामीण युवाओं को प्रशिक्षित कर काम पर रखने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए।
ग्रामीण प्रतिभाओं के नियोजन की नीति अपना कर कंपनियां जनशक्ति में विविधता भी बढ़ाएंगी, जो इन दिनों कारपोरेट क्षेत्र की मानव संसाधन नीतियों का एक प्रमुख लक्ष्य है। संगठनों को निष्ठावान, उत्साही, कर्मठ व लंबे समय तक टिके रहने वाली जनशक्ति मिलेगी। एक व्यापक दृष्टिकोण वाले संगठन को इससे फर्क नहीं पड़ता कि उनके द्वारा नियोजित कार्मिक शहरी पृष्ठभूमि के हैं या ग्रामीण पृष्ठभूमि के। उनका सरोकार तो काम और परिणाम से होता है।
बहुत से संगठन खुद को समान अवसर प्रदान करने वाला नियोजक बताते हैं, उनकी मंशा पर कोई संदेह नहीं होता, पर कहीं न कहीं उनकी प्रणालियों में कुछ ऐसा होता है जो कम अंग्रेजी जानने वालों और छोटी जगहों से आने वालों को दूसरों से पीछे कर देता है। इस विभेदकारी स्थिति को दुरुस्त करना अब बेहद जरूरी हो चुका है। प्रतिभा प्रबंधन के विशेषज्ञों का मानना है कि कार्मिकों का चयन केवल उनकी डिग्रियों से नहीं, बल्कि उनमें मौजूद संभावनाओं के आधार पर किया जाना चाहिए।
ग्रामीण युवा पीढ़ी में ऐसी भरपूर संभावना मौजूद है। कारपोरेट क्षेत्र ने देश के विकास तथा इसकी अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में काफी योगदान दिया है। उनके लाभ का एक बड़ा हिस्सा ग्रामीण क्षेत्रों से आता है। इस दृष्टि से भी ग्रामीण भारत के प्रति उनकी जिम्मेदारी बनती है। इससे न केवल उनका संगठन मजबूत होगा, बल्कि सामाजिक-आर्थिक विषमता दूर करने और सामाजिक संतुलन कायम करने में भी मदद मिलेगी।