गुंजन मिश्रा

अभी तक देश में विकास के लिए जो भी योजनाएं बनीं हैं, वे स्थायी समाधान प्रदान नहीं करतीं। जैसे हरित क्रांति ने देश की उपजाऊ मिट्टी, स्वास्थ्य, पशुधन आदि को, बांधो ने नदियों को और अर्थव्यवस्था ने मानवता व पर्यावरण को निगल लिया है।

देश के नीति निर्माताओं को अभी की जरूरत, वर्तमान संकट का उपाय जैसे शब्दों को नकार कर अब देश की समस्याओं के लिए स्थायी समाधान तलाशने की ओर बढ़ने पर जोर देना चाहिए। भ्रष्टाचार, निरक्षरता, शिक्षा व्यवस्था, स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली, गरीबी, जलवायु परिवर्तन, घटता भूजल स्तर, वायु प्रदूषण, ठोस अवशेष, महिला सशक्तिकरण, बेरोजगारी, कृषि संकट, बाढ़, सूखा, लंबित न्याय, सकल घरेलू उत्पाद आदि मुद्दे आज देश के सामने हैं, जिनको आज प्राथमिकता के आधार पर समाधान तलाशने की जरूरत है।

भारत को आज एक ऐसी न्याय संगत अर्थव्यवस्था की जरूरत है जो देश में असमानता को कम कर सके। वैश्विक असमानता रिपोर्ट के अनुसार भारत एक ऐसे ‘गरीब और असमानता वाले देश के रूप में खड़ा है, जहां शीर्ष दस फीसद लोगों के पास कुल राष्ट्रीय आय का सत्तावन फीसद हिस्सा है। इसमें भी शीर्ष एक फीसद लोगों का कुल राष्ट्रीय आय के बाईस फीसद पर कब्जा है। चौंकाने वाली बात यह कि कोविड महामारी का दौर अरबपतियों के लिए स्वर्णयुग साबित हुआ है। इससे साबित होता है कि जिंदा रहने के लिए कौशल और जीने के लिए मानवीय पाठ्यक्रम जब तक शिक्षा में शामिल नहीं होंगे, तब तक एक आदर्श और चक्रीय अर्थव्यवस्था स्थापित कर पाना संभव नहीं हो सकेगा।

सवाल है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था, कृषि, रोजगार, जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएं में से किस मुद्दे को केंद्र या प्राथमिकता में रख कर बढ़ा जाए, जिसमे सभी समस्याओं का हल निकल सके। क्योंकि स्वास्थ्य को लेकर फिर से चेतावनियां आ रही हैं। जलवायु परिवर्तन की समस्या से छुटकारा पाने के लिए जीवाश्म ईंधन का उपयोग कम करने के लिए प्रयास की बात जोरशोर से पूरी दुनिया में उठ रही है। कोई डार्विन के सिद्धांत पर खेती करने की बात करता है, तो देश के नीति निर्माता किसान की आय बढ़ाने के लिए सिंचाई के लिए बांध बनाने की बात करते हैं। पलायन रोकने के लिए उद्योगों की जरूरत बताई जाती है, यानी आदि अलग-अलग तरीके से समस्याओं को हल करने की बात होती है। पर समाधान कहीं से निकलता नहीं दिखता।

भारत जैसे देश में अहिंसात्मक कृषि ही एक ऐसा माध्यम है जिसमें सभी समस्याओं का हल मौजूद है। अहिंसात्मक कृषि से ही जल, जमीन, जैव विविधता, जलवायु परिवर्तन, मिट्टी, रोजगार, कुपोषण जैसी समस्याओं का हल मिल सकता है। इसलिए सरकार को चाहिए कि कृषि को केंद्र में रख कर योजनाएं बनाई जाएं, तभी देश ‘सर्व जन हिताय, सर्व जन सुखाय’ के सिद्धांत को प्रतिपादित कर सकता है।

अभी तक देश में विकास के लिए जो भी योजनाएं बनीं हैं, वे स्थायी समाधान प्रदान नहीं करतीं। जैसे हरित क्रांति ने देश की उपजाऊ मिट्टी, स्वास्थ्य, पशुधन आदि को, बांधो ने नदियों को और अर्थव्यवस्था ने मानवता व पर्यावरण को निगल लिया है। उदाहरण के लिए जब खाद्य सुरक्षा की बात आती है तो जनसंख्या भारत के लिए एक दायित्व बन गई है। दुनिया के कुल भूमि क्षेत्र के केवल 2.4 प्रतिशत के साथ भारत के पास दुनिया की कुल आबादी का चौदह प्रतिशत हिस्सा है।

जल संसाधनों का लगभग चार फीसद हिस्सा है। यही कारण है कि भारत जल संकट से जूझ रहा है। 1951 में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता पांच हजार एक सौ सतहत्तर घन मीटर थी, जो 2011 में घट कर एक हजार पांच सौ पैंतालीस घन मीटर रह गई। यानी साठ वर्षों में लगभग सत्तर फीसद की गिरावट हुई। सेंटर फार साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में जैव विविधता वाले चार बड़े केंद्र हैं और इन क्षेत्रों का नब्बे फीसद हिस्सा नष्ट हो चुका है।

इतना ही नहीं, शिकागो विश्वविद्यालय के वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक (एक्यूएलआइ) की रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया का सबसे प्रदूषित देश है, जहां प्रदूषण का स्तर नियमित रूप से परिमाण के क्रम में दुनिया में कहीं और पाए जाने वाले स्तर से काफी अधिक है। अगर जलवायुपरिवर्तन को लेकर बात की जाए औसत तापमान सामान्य से 0.91 फीसद ज्यादा दर्ज किया गया। पिछले एक सौ बयालीस सालों में यह चौथा मौका था जब नवंबर 2021 में बढ़ा हुआ तापमान दर्ज किया गया।

एक सर्वे के मुताबिक यह भी पता चला कि विश्व में सत्तासी प्रमुख खाद्य फसलें संपूर्ण या आंशिक रूप से परागण से ही संचालित हो पाती हैं। परागण कि इस प्रक्रिया में मधुमक्खियां बहुत योगदान देती हैं, जिससे वे हजारों पशु-पक्षियों की विभिन्न प्रजातियों को भोजन उपलब्ध कराती हैं। पृथ्वी पर पौधों की विविध प्रजातियां पाई जाती हैं और इसके लिए मधुमक्खियां ही उत्तरदायी होती हैं। इसलिए विलुप्त होती प्रजातियों एवं प्रकृति के चक्रों को संतुलित करने के लिए भारत को चाहिए कि पर्यावरण संरक्षण के लिए तेजी से कदम उठाए। इसके लिए वैश्विक स्तर पर प्रयासों की जरूरत है।

पूरे विश्व में एक कानून लागू हो और पर्यावरण से खिलवाड़ अंतरराष्ट्रीय अपराध घोषित हो। इसके लिए विश्व बैंक जैसे संस्थानों को चाहिए कि भारत जैसे विकासशील देशों के लिए ऐसी योजनाएं भी बनाएं जिनमे पैसे की जगह वस्तु विनिमय की शुरुआत की जाए, ताकि कुटीर उद्योगों को बढ़ावा मिलेगा। इससे कुछ हद तक असमानता की खाई को पाटा जा सकता है।

दुनिया के महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने भी पूंजीवाद को लेकर यह कहा था कि दुनियाभर में विकास निजी पूंजी वाले एक छोटे से कुलीन वर्ग और चंद देशों की मुट्ठी में सिमट कर रह गया है। निजी पूंजी की इस शक्ति को लोकतांत्रिक रूप से संगठित राजनीतिक समाज भी प्रभावी ढंग से नियंत्रित नहीं कर सकता है। कुल मिला कर प्राकृतिक संसाधनों का खनन या उपयोग देश की पर्यावरणीय क्षमता का आकलन करने के बाद ही किया जाना चाहिए। इसके लिए देश में पंचतत्वों के लिए एक समग्र कानून बने क्योंकि जैव विवधता, जल, वायु आदि के लिए अलग-अलग नियम-कानून होने के कारण इनके कार्यान्वयन में दिक्कतें आती है। अत: पर्यावरण को जान बूझ कर नुकसान पहुंचाने वाले आसानी से बच निकलते हैं।

सरकार को चाहिए कि स्नातक व परास्नातक स्तर के छात्रों को जीवन के सभी पहलुओं विज्ञान, उदारता, अर्थ, समाज के बारे में व्यावहारिक जानकारी देने वाली शिक्षा पर जोर दे। युवाओं को कृषि के जोड़ने के लिए किसानों के पास तीन से छह महीने के लिए व्यावहारिक प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए खेती के कामों में लगाया जा सकता है। इससे कृषि क्षेत्र में और गांवों के स्तर पर कृषि उद्योगों को बढ़ावा भी मिलेगा।

विकास के लिए बड़ी-बड़ी परियोजनाओं की जरूरत नहीं है, बल्कि छोटी-छोटी योजनाओं से भी सुखद परिणाम हासिल किए जा सकते हैं। गांधी के दर्शन और सिद्धांतों को केंद्र में रख कर भविष्य की विकास योजनाएं बनाई जाएं तो देश एक समग्र विकास की ओर न्याय संगत तरीके से चल पाएगा। हालांकि केंद्र सरकार ने ग्राम स्वराज्य के लिए कई योजनाएं लागू तो कीं, लेकिन सकल घरेलू उत्पाद की अवधारणा के चलते कुछ पहलुओं को नकार दिया जाना देश के विकास के लिए अच्छा नहीं माना जा सकता है।

उदाहरण के लिए नदी गठजोड़ परियोजना के तहत केन बेतवा नदी गठजोड़ परियोजना जिसमें जल, जंगल, जमीन के वास्तविक मूल्य को नकार दिया गया। जबकि ये सिद्ध हो चुका है कि तालाबों के माध्यम से बिना किसी नुकसान के लोगों को सिंचाई व पेयजल उपलब्ध करवाया जा सकता है। अत: सरकार को चाहिए कि विकास परियोजनाओं में मानवीय दृष्टिकोण को ज्यादा अहमियत दी जाए, जिसमें आम आदमी की भागीदारी सुनिश्चित, तभी हम गांधी का भारत खुशहाल बना सकेंगे।