बढ़ती आबादी, उपभोक्तावादी जीवन शैली, शहरीकरण, विकास के नाम पर जंगलों की अंधाधुंध कटाई, वैश्विक तापवृद्धि, जलवायु परिवर्तन आदि के चलते न केवल बारिश की मात्रा घट रही है बल्कि उसकी आवृत्ति में भी तेजी से उतार-चढ़ाव आ रहा है। हाल ही में सरकार ने संसद को बताया कि देश में औसतन हर साल तीस हजार हेक्टेयर खेती-योग्य भूमि कम होती जा रही है। कई इलाके तो ऐसे हैं जहां सूखा तकरीबन स्थायी रूप ले चुका है। इसके बावजूद सरकारी प्रयास तात्कालिक राहत पहुंचाने से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। गौरतलब है कि सूखा प्रबंधन की मौजूदा व्यवस्था दशकों पहले ब्रिटिश शासकों द्वारा तैयार की गई थी, जिसे उस दौर में ‘अकाल संहिता’ कहा जाता था। तब से इसे संशोधित करके समकालीन जरूरतों के मुताबिक बनाया जाता रहा है। लेकिन उसका मूल भाव वही है कि सूखा-पीड़ित इलाकों में तदर्थ राहत उपाय मसलन पेयजल, खाना, चारा और रोजगार आदि उपलब्ध कराया जाए। इसी का नतीजा है कि बार-बार आने वाला सूखा अब अपने साथ रेगिस्तान की सौगात लेकर आ रहा है। देखा जाए तो धरती के मरुस्थलीकरण के लिए बहुआयामी कारक जिम्मेदार हैं। अत: इसे समझने के लिए हमें समग्र दृष्टि अपनानी होगी।
ईसा से दो हजार वर्ष पूर्व सिंधु घाटी में वर्षा की मात्रा में भारी कमी आ गई थी, जिससे इस क्षेत्र का मरुस्थलीकरण शुरू हो गया और देखते-देखते दुनिया की पहली नगरीय सभ्यता रेगिस्तान में तब्दील हो गई। कुछ ऐसी ही स्थिति एक बार फिर आने वाली है। संयुक्त राष्ट्र की एक समिति के मुताबिक रेगिस्तान के फैलते दायरे को रोकने की गंभीर कोशिश नहीं की गई तो अन्न के लाले पड़ सकते हैं। आज प्रति मिनट तेईस हेक्टेयर उपजाऊ भूमि बंजर में तब्दील हो रही है जिसके परिणामस्वरूप हर साल खाद्यान्न उत्पादन में दो करोड़ टन की कमी आ रही है। इसके लिए वन विनाश, लुटेरी खनन नीति, प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन और नकदी खेती जिम्मेदार हैं।
गौरतलब है कि मिट्टी की ऊपरी बीस सेंटीमीटर मोटी परत ही हमारे जीने का आधार है। यदि यह जीवनदायी परत नष्ट हो गई तो खाद्य पदार्थों की कीमतें तेजी से बढ़ेंगी और दुनिया भर में संघर्ष की नई स्थितियां पैदा होंगी। गहन खेती के कारण 1980 से अब तक धरती की एक-चौथाई उपजाऊ भूमि नष्ट हो चुकी है। इसी को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने 2010-2020 को मरुस्थलीकरण विरोधी दशक के रूप में मनाने का निश्चय किया। वर्ल्ड वॉच इंस्टीट्यूट के अनुसार पच्चीस सेंटीमीटर मोटी मिट्टी की ऊपरी परत के नवीकरण में दो सौ से एक हजार साल का समय लगता है। इसके बावजूद वह सरकारों व किसानों की कार्यसूची में स्थान नहीं बना पाती तो इसका कारण यह है कि मिट्टी क्षरण बहुत ही धीमी गति से होता है और इसका असर दिखने में सैकड़ों वर्ष लग जाते हैं। जहां-जहां इसका असर दिखने लगा है वहां-वहां भोजन और पानी की कमी तथा संषर्ष की स्थितियां पैदा हो गई हैं। यदि अफ्रीका व एशिया में होने वाले संघर्षों, गृहयुद्धों की पड़ताल की जाए तो उसकी जड़ उत्पादक भूमि और पानी में होने वाली कमी में ही मिलेगी।
बढ़ती जनसंख्या से कृषि भूमि पर दबाव बढ़ रहा है। अनुमान है कि 2050 तक विश्व जनसंख्या नौ अरब हो जाएगी। स्पष्ट है अगले पैंतीस वर्षों में धरती पर दो अरब लोग बढ़ जाएंगे। ऐसे में खाद्यान्न में चालीस फीसद की बढ़ोतरी करनी होगी और इसका अधिकांश हिस्सा उस उपजाऊ मिट्टी पर उगाया जाएगा जो कि कुल भूभाग का ग्यारह फीसद ही है। खाद्यान्न उत्पादन के अधीन अब नई भूमि लाना संभव नहीं है, जो भूमि बची है वह भी तेजी से क्षरित हो रही है। उदाहरण के लिए, मध्य एशिया के गोबी मरुस्थल से उड़ी धूल उत्तर चीन से लेकर कोरिया तक के उपजाऊ मैदानों को निगल रही है, वहीं भारत में थार की रेत उत्तर भारत के मैदानों को दफना रही है।
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की रिपोर्ट के मुताबिक राजस्थान तक सिमटे थार मरुस्थल ने अब हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा मध्यप्रदेश को अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया है। थार के विस्तार का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1996 तक 1.96 लाख वर्ग किमी में फैले रेगिस्तान का विस्तार अब 2.10 लाख वर्ग किमी तक हो गया है। विशेषज्ञों के अनुसार थार मरुस्थल मानसूनी हवाओं द्वारा प्रेरित रेतीला रेगिस्तान है। यहां गर्मी के मौसम में वायु अपरदन एक बड़ी समस्या रहती है। दरअसल, अरावली की पहाड़ियां अरब सागर और बंगाल की खाड़ी की ओर बहने वाले पानी के लिए जल विभाजक का काम करने के साथ-साथ रेतीले राजस्थान को हरे-भरे राजस्थान से अलग भी करती हैं। इससे पर्यावरण संतुलन बना रहता है। अरावली के पूरब में दक्षिण राजस्थान हरा-भरा, झीलों, नदियों और प्राकृतिक संपदा से भरपूर हुआ करता था। लेकिन पिछले कई वर्षों से यहां वर्षा की मात्रा घट जाने से जलस्रोत और हरियाली का नामोनिशान नहीं बचा। झीलों की नगरी कहे जाने वाले उदयपुर की झीलें अब सूखे मैदान में बदलती जा रही हैं। जहां पहले कभी अकाल नहीं आता था वह इलाका अब सूखे व अकाल की चपेट में है। बारिश के दौरान जिन नदियों व झीलों में थोड़ा-बहुत पानी आ जाता है वह कुछ ही महीनों में खत्म हो जाता है।

राजस्थान में सामान्यत: हवा की दिशा दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व की ओर होती है। इसीलिए इस दिशा में मरुस्थल का विस्तार अधिक हुआ है। विशेषज्ञों के अनुसार थार मानसूनी हवाओं द्वारा प्रेरित रेतीला रेगिस्तान है। यहां गर्मी के मौसम में वायु अपरदन एक बड़ी समस्या रहती है। अरावली की पहाड़ियां मरुस्थल के विस्तार में दीवार की भांति बाधा खड़ी करती रही हैं। लेकिन अंधाधुंध खनन के कारण इस प्राकृतिक दीवार में कई गलियारे बन गए हैं जो मरुस्थल के विस्तार में सहायता पहुंचा रहे हैं। इसके अलावा भूजल के अत्यधिक दोहन, अधिक पानी मांगने वाले फसलों की खेती, अवैध खनन को बढ़ावा देने वाले आधारभूत ढांचे की मांग के कारण रेगिस्तान का विस्तार हो रहा है। लेकिन न तो हमारी सरकारें और न ही लोग इसके प्रति गंभीर है। केंद्र सरकार की ओर से गठित समिति उच्चतम न्यायालय के समक्ष यह राय जाहिर कर चुकी है कि पर्यावरण की दृष्टि से अति संवेदनशील मानी जाने वाली अरावली की पहाड़ियों को बचाने के लिए तत्काल कदम उठाने की जरूरत है। इसके बावजूद इन पहाड़ियों को काट कर उन पर फार्म हाउस, बैंक्वेट हॉल, रिहाइशी कॉलोनियां, स्कूल-कॉलेज, धर्माचार्यों के आश्रम आदि के निर्माण की इजाजत दिए जाने और गैर-कानूनी खनन पर सरकारें आंखें मूंदे हुई है।

दरअसल, इस इलाके में पत्थरों की कटाई और खनन की छूट अरावली को मृत पहाड़ मान कर दे दी जाती है। लेकिन इस क्रम में यह भुला दिया जाता है कि अरावली न केवल थार की रेतीली हवा को दिल्ली के साथ हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उपजाऊ इलाके में आने से रोकती है, बल्कि इस पूरे क्षेत्र में भूजल के संतुलन को बनाए रखने में भी काफी मदद करती है। दरअसल, अरावली पहाड़ियों में बड़े पैमाने पर वैध-अवैध खनन होने से जंगल खत्म हो रहे हैं और पहाड़ गर्त में बदलते जा रहे हैं। संगमरमर खनन और उसकी प्रोसेसिंग यूनिटों से भारी मात्रा में सफेद पाउडर निकलता है। यह पाउडर जमीन के ऊपर फैल कर पानी सोखने की क्षमता को खत्म कर देता है जिससे वर्षा जल के भूजल बनने में बाधाएं आती हैं। दूसरी ओर, सिंचाई और पेयजल के लिए भूजल का अंधाधुंध दोहन जारी रहा। इसके चलते इन इलाकों का भूजल स्तर लगातार गिरता जा रहा है।
खेती के लिए नलकूपों के अंधाधुंध इस्तेमाल ने इस संकट को और गहरा किया है। इसके परिणामस्वरूप सिंचाई की सुविधा खत्म होते जाने के कारण खेती-योग्य जमीन भी बंजर होती जा रही है। लेकिन पर्यावरण संरक्षण और पारिस्थितिकी संतुलन की हमारी चिंताएं कागजों और विशिष्ट दिनों पर आयोजित होने वाले समारोहों तक ही सिमटी हुई हैं। इसी कामचलाऊ नीति का नतीजा है कि देश के दूसरे हिस्सों का भी तेजी से मरुस्थलीकरण हो रहा है। अमदाबाद स्थित स्पेस एप्लीकेशंस सेंटर (एसएसी) ने सत्रह अन्य राष्ट्रीय एजेंसियों के साथ मिल कर मरुस्थलीकरण और भूमि की गुणवत्ता के गिरते स्तर पर देश का पहला एटलस बनाया है। इसके अनुसार देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र (टीजीए) का कोई पच्चीस फीसद हिस्सा रेगिस्तान हो चुका है और बत्तीस फीसद भूमि की गुणवत्ता घटी है। इसके अलावा देश के उनहत्तर फीसद हिस्से को शुष्क क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
समग्रत: धरती के मरुस्थलीकरण और मिट्टी की ऊपरी परत के क्षरण को रोकने का सबसे बेहतर तरीका है जल प्रबंधन, वृक्षारोपण, सूखा-रोधी बीज और मिट्टी बचाने वाले समुदायों की आर्थिक सहायता। पृथ्वी पर कार्बन का पच्चीस फीसद मिट्टी में ही है। ऐसे में मिट्टी के संरक्षण से कार्बन उत्सर्जन में कमी आएगी और वैश्विक तापवृद्धि रोकने में भी मदद मिलेगी। दुर्भाग्यवश जलवायु परिवर्तन के इस महत्त्वपूर्ण पहलू की ओर से दुनिया नजर फेरे हुए है। इसी का नतीजा है कि रेगिस्तान का दायरा फैलता जा रहा है। पर यह उदासीनता बहुत महंगी पड़ेगी, क्योंकि इतने बड़े पैमाने पर हो रहे मरुस्थलीकरण का नतीजा अंतत: खाद्य संकट और पेयजल संकट के रूप में आएगा।