दिल्ली विधानसभा के चुनाव में जनता ने एग्जिट पोल के तमाम नतीजों से कहीं आगे बढ़ कर आम आदमी पार्टी को बहुमत देकर यह साबित कर दिया है कि इक्कीसवीं सदी के भारतीय लोकतंत्र में कोई भी प्रधानमंत्री चक्रवर्ती सम्राट बनने की कोशिश न करे। चक्रवर्ती सम्राट अगर कोई है तो वह जनता है। वह कभी किसी को सत्ता पर बिठाती है तो कभी भी उतार सकती है। जनता ने अगले दस सालों तक देश पर अखंड शासन का सपना देख रहे नरेंद्र मोदी को ऐसा झटका दिया है, जिसकी वे कल्पना नहीं कर सकते थे। वे पूरे देश में भाजपा के लिए एक के बाद एक जीत का शंखनाद करते हुए कह रहे थे कि जो देश का मूड है वही दिल्ली का मूड है। जो देश चाहता है, वही दिल्ली चाहती है। वे कह रहे थे कि जब मैं नसीब वाला आपके सामने हूं तो बदनसीब को वोट देने की क्या जरूरत है।
उन्होंने और उनकी पार्टी के लोगों ने अपनी वाणी और विज्ञापन के माध्यम से विपक्षी अरविंद केजरीवाल को बंदर और भगोड़ा ही नहीं कहा, बल्कि उनके गोत्र को भी खराब बताया। दिल्ली की पढ़ी-लिखी जनता ने मोदी और भाजपा को दिल्ली की सत्तर में से महज तीन सीटों पर सीमित करके यह बता दिया कि लोकतंत्र में बहस की मर्यादा क्या है और एक प्रधानमंत्री से जनता की क्या अपेक्षाएं हैं। जनता ने यह साफ संदेश दिया है कि कोई यह न समझे कि वह अगर विधानसभा में जीता है तो लोकसभा में भी जीतेगा और उसी तरह से कोई यह न समझे कि अगर वह लोकसभा में जीता है तो विधानसभा में भी उसका झंडा ऊंचा रहेगा। दिल्ली की छोटी-सी विधानसभा के छोटे से चुनाव में जनता ने पूरे देश के लिए बड़ा संदेश दिया है और इसे उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और आने वाले दूसरे राज्यों के लिए भी समझा जाना चाहिए।
लेकिन हमारे चैनलों और दूसरे मीडिया की विडंबना यह है कि उन्होंने दिल्ली के छोटे से चुनाव को राष्ट्रीय महत्त्व का बना दिया, लेकिन उसके मुद्दों को या तो मनोविज्ञान तक सीमित रखा या दिल्ली के बिजली, पानी जैसे छोटे मुद्दों तक। उन्होंने यह नहीं बताया कि यह चुनाव राष्ट्रीय अहमियत का क्यों है? क्या यह महज मोदी की प्रतिष्ठा का सवाल था? या यह केजरीवाल को पूरा मौका देने का मामला था, ताकि जनता देख सके कि वे अधिकतम क्या कर सकते हैं? क्या यह करने और धरने के बीच का फर्क था? क्या यह साल भर से ठहरी हुई दिल्ली को फिर से विकास की गति देने का मामला था या फिर राष्ट्रपति शासन में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में बढ़ते भ्रष्टाचार को रोकने का मामला था?
कोई लाख भागे और इनकार करे, लेकिन यह चुनाव स्पष्ट तौर पर नरेंद्र मोदी की आठ महीने पुरानी सरकार पर जनमत संग्रह था। भाजपा कह सकती थी कि यह जनमत संग्रह तो महाराष्ट्र, कश्मीर, हरियाणा और झारखंड में भी हो सकता था, पर क्यों नहीं हुआ? पर इसका स्पष्ट जवाब है कि उन राज्यों में कांग्रेस या गठबंधन सरकारें लंबे समय से शासन या कुशासन कर रही थीं, इसलिए वहां भाजपा लंबे समय बाद एक विकल्प के रूप में आई है। लेकिन दिल्ली में केंद्र की भाजपा सरकार के सारे काम और करतूतें उजागर हो रही थीं। इसलिए यहां जनता ने जो आदेश दिया है उसका संबंध स्पष्ट तौर पर केंद्र की मोदी सरकार की कार्यप्रणाली से है।
दिल्ली महज राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र या उत्तर प्रदेश, बिहार से आकर बसे पुरबियों या हरियाणा के जाट, गूजर या पंजाब से आकर बसे पंजाबियों का रिहायशी इलाका नहीं है।
यह लंबे समय तक मुगलों की राजधानी रही है और अब देश का कोई इलाका ऐसा नहीं है, जहां का कोई न कोई व्यक्ति दिल्ली में न हो। इस लिहाज से दिल्ली लघु भारत है और यहां भाजपा को भू-लुंठित कर देने वाली पराजय और कांग्रेस को रसातल में पहुंचा देने वाले जनादेश का संदेश पूरे मुल्क के लिए है।
दिल्ली का यह जनादेश इस बात के लिए है कि महज भाषणबाजी और लफ्फाजी से काम नहीं चलने वाला। जनता को ठोस परिणाम चाहिए और वह परिणाम बड़े-बड़े विज्ञापनों और मन की बात में नहीं, बल्कि जमीन पर उतरना चाहिए। तेल के दाम अंतरराष्ट्रीय बाजार में जिस गति से गिर रहे हैं उस लिहाज से तो पेट्रोल-डीजल तीस रुपए के आसपास होना चाहिए, लेकिन सरकार उत्पाद कर कमाने में लगी है और जनता को महज ओस चटा रही है। आखिर तेल के दाम गिरने का दिखावा करने वाली सरकार फल, सब्जियों और अनाज के दाम क्यों नहीं कम कर पा रही है? जिस सरकार ने वादा किया था कि लोगों के खाते में काले धन के पंद्रह-पंद्रह लाख रुपए आ जाएंगे वही अब क्यों कहने लगी कि वह तो भाषण में कही गई बात थी, उसे जमीनी हकीकत पर लाना संभव नहीं है?
बात इतनी नहीं है। आखिर अच्छे दिन लाने और लोगों को नौकरियां देने का वादा कहां गया? यह अहसास महज मजदूर वर्ग को नहीं है कि उसे कभी भी छंटनी करके निकाला जा सकता है, इस बात का अहसास मध्यवर्ग को भी है, जिसके आइटी क्षेत्र के तमाम प्रोफेशनल को चुटकी बजाते ही बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। उससे भी बड़ी बात यह कि इस सरकार ने एक खास विचारधारा के लोगों को न सिर्फ संवैधानिक संस्थाओं में बिठाने का अंधाधुंध खेल शुरू किया, बल्कि मीडिया और बाजार की दूसरी संस्थाओं में एकाधिकार कायम करने का निर्लज्ज प्रयास शुरू कर दिया है।
मोदी और उनकी सरकार के नेताओं के बड़बोलेपन से ज्यादा बुरा जनता को यह लगा कि यह सरकार वोट जनता का लेती है और फायदा कॉरपोरेट को देती है। यह बात महज कुछ घरानों के प्रमुखों द्वारा प्रधानमंत्री की पीठ थपथपाने से नहीं, उन घरानों को फायदा पहुंचाने के लिए देश और विदेश तक में पैरवी करने और नियम-कानून को ताक पर रख कर उनके लिए खजाना खोलने के रूप में सामने आई है।
भूमि अधिग्रहण के जिस कानून को यूपीए के शासन में कांग्रेस के साथ भाजपा ने बदलवाया था और उससे किसानों को कुछ राहत मिलती दिख रही थी, उसे ही अपने शासन के चंद महीनों के भीतर मोदी ने अध्यादेश की मार्फत पलट दिया। यह एक प्रकार से जनविरोधी कदम ही नहीं, संविधान के साथ विश्वासघात था। तभी कॉरपोरेट के पक्ष में कानून को पलटने के हिमायती लोगों ने भी इसे संवैधानिक धोखाधड़ी और अध्यादेश राज की संज्ञा दी। बल्कि यहां सुप्रीम कोर्ट के 1986 के उस फैसले की याद ताजा हो गई कि अध्यादेशों को फिर से जारी करना संवैधानिक धोखाधड़ी है और जो काम आप संसद से कानून बना कर नहीं कर सकते उसे अध्यादेश के माध्यम से नहीं करना चाहिए।
मगर इस चुनाव की सबसे मजेदार बात यह रही है कि जनता ने तमाशाबीनों को सबक सिखाया है। अमेरिकी राष्ट्रपति को गणतंत्र दिवस के मौके पर सरकारी मेहमान बनाना उचित था और भारत-अमेरिका के ठंडे पड़े रिश्तों में गरमाहट लाने का प्रयास भी सराहा जाना चाहिए। लेकिन उसे अतिरेकपूर्ण तरीके से प्रस्तुत करना, उस दौरान प्रधानमंत्री द्वारा अपने को ओबामा का लंगोटिया यार बताना और दस लाख का सूट पहन कर प्रदर्शन करना हास्यास्पद और खोखलापन लगा। पता नहीं इस देश की विदेश नीति के जानकारों ने इस बात पर प्रधानमंत्री को क्यों नहीं आगाह किया, लेकिन इस देश की जनता ने उन्हें इसका सबक और संदेश दे दिया।
संदेश तो उसी तीन दिन के दौरे में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी दे दिया था कि भारत का भविष्य तभी तक उज्ज्वल है जब तक वह धार्मिक आधारों पर विभाजित न हो और असहिष्णुता न दिखाए। अगर मोदी और उनके मंत्रियों को यह संदेश न सुनाई पड़ा हो तो उन्होंने उसे ज्यादा स्पष्ट तरीके से अमेरिका से भी जाकर दोहराया। हो सकता है अब इन नतीजों से विकासवाद का लबादा ओढ़े मोदी हिंदुत्ववादी संघ पर अंकुश लगाने की कोशिश करें।
ओबामा का यह संदेश केजरीवाल और उनकी पार्टी ने पकड़ लिया और भाजपा पर खूब आक्रमण किया। लड़कियों को जीन्स न पहनने और मोबाइल न रखने की हिदायत देना, हिंदुओं को चार बच्चे पैदा करने की सलाह देना, दूसरे धर्म के लोगों की घर वापसी करने का कार्यक्रम चलाना और किसी को रामजादा तो किसी को हरामजादा कहना और संघ के नेताओं का देश को हिंदू राष्ट्र बताना यह सब मोदी और उनकी पार्टी पर भारी पड़ा। संदेश साफ है कि विकास की आड़ में गुप्त एजेंडा नहीं चलेगा।
एक विविधतापूर्ण देश को एक धर्म के रंग में ढालना और स्वाधीनता संग्राम के तमाम योद्धाओं को कमजोर, देशद्रोही बताना और उन पर हमला करने वालों को देशभक्त बताना यह सब देश मंजूर नहीं करेगा। यह सरकार महात्मा गांधी मार्ग पर नाथूराम गोडसे सेतु बनाना चाहती है, उसे देश के दिल दिल्ली ने ठुकरा दिया है। यह बात सही है कि जनता ने कांग्रेस को और कड़ा संदेश दिया है, पर वह इसलिए कि कांग्रेस जनता के संदेश को सुनने के बजाय कान में तेल डाल कर बैठी है।
दिल्ली के इस जनादेश का संदेश आम आदमी पार्टी के पक्ष में है और उसके पंजाब, हरियाणा और बिहार जैसे राज्यों में बढ़ने के संकेत दे रहा है। लेकिन उसमें यह भी बात छिपी है कि आप पार्टी ने जनता के जिन मुद्दों को लेकर आंदोलन किए थे, वे समाप्त नहीं हुए हैं। भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, असंतुलित विकास और कॉरपोरेट लूट इन सबके खिलाफ परिवारवादी और जातिवादी दलों से बाहर निकल कर एक विपक्षी गोलबंदी होनी चाहिए। पर वह गोलबंदी अकेले आप से नहीं होगी। क्योंकि देश की समस्त वैकल्पिक विचारधारा का प्रतिनिधि वही एक पार्टी नहीं है और न देश की सारी अक्ल वहां जमा बुद्धिजीवियों के पास है।
देश के सामने संघ परिवार के हिंदुत्व से लड़ने की बड़ी चुनौती अब भी है और उसे ताकत दे रही कॉरपोरेट पूंजी से जनता के हक का संघर्ष बरकरार है। देश का सच्चा विपक्ष और जिसे बाद में देश का सत्ता पक्ष बनना होगा, वह जनता के इन्हीं मुद्दों से निकलेगा और वही दल, वही नेता सच्चा चक्रवर्ती होगा।
अरुण कुमार त्रिपाठी
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