हर साल अप्रैल-मई में मानसून की अटकलों का दौर शुरू हो जाता है। अगर औसत मानसून आए, तो देश में हरियाली और समृद्धि की संभावना बढ़ती है और औसत से कम आए तो पपड़ाई धरती और अकाल की क्रूर परछाइयां देखने में आती हैं। मौसम मापक यंत्रों की गणना के अनुसार अगर नब्बे फीसद से कम बारिश होती है, तो उसे कमजोर मानसून कहा जाता है।

भारतीय मौसम विभाग के महानिदेशक ने निजी मौसम संबंधी एजंसी ‘स्काईमेट’ के बारिश संबंधी अनुमानों को खारिज करते हुए मानसून सामान्य रहने की भविष्यवाणी की है। साथ ही स्पष्ट किया है कि मौसम से जुड़ा कोई भी पूर्वानुमान जारी करने के लिए मौसम विभाग एकमात्र आधिकारिक नोडल एजंसी है। सभी को उसके ही अनुमानों पर भरोसा करना चाहिए।

मौसम विभाग ने इस वर्ष औसत छियानबे फीसद वर्षा होने की संभावना जताई है। अल-नीनो प्रभाव को भी नकारते हुए कहा है कि यह कहना कठिन है कि इसकी वजह से वर्षा कम होगी। पिछले पंद्रह वर्षों में छह वर्ष ऐसे रहे हैं, जिनमें अल-नीनो प्रभाव के बावजूद मानसून पूरी तरह सामान्य रहा है। इस बार दीर्घकालिक मानसून का अनुमान है, उसमें औसतन 83.5 सेंटीमीटर तक वर्षा होगी।

दूसरी तरफ, इस भविष्यवाणी के ठीक एक दिन पहले ‘स्काईमेट’ ने मौसम का मिजाज उखड़ा हुआ घोषित करते हुए कहा था कि अप्रैल से मई के बीच भीषण गर्मी पड़ सकती है और फिर जून से सितंबर के बीच मानसूनी बारिश भी कम रहने का अनुमान है। इस अनुमान का सटीक बैठना इसलिए जरूरी होता है, क्योंकि बावन फीसद कृषि मानसून पर निर्भर है और अब देश के किसान इन भविष्यवाणियों के आधार पर फसल बोने लगे हैं।

जलवायु परिवर्तन से मौसम संबंधी महत्त्वपूर्ण घटनाओं का पूरे विश्व में पूर्वानुमान लगाना मुश्किल हो रहा है। भविष्य में इस चुनौती से निपटने के लिए रडारों की संख्या बढ़ाई जा रही है, वहीं उच्च परिणाम देने वाली गणना प्रणाली को भी अद्यतन किया जा रहा है। भारतीय मौसम विभाग के पास 1901 से लेकर अब तक का डिजिटल डेटा उपलब्ध है, बावजूद इसके वर्षा का स्पष्ट रुझान नजर नहीं आ पा रहा है। बीते पचास वर्षों के अध्ययन पर केंद्रित एक रिपोर्ट के अनुसार, मानसून के बादलों की सघनता धीरे-धीरे घट रही है। इस नाते कमजोर मानसून की आशंका प्रकट हो रही है।

हर साल अप्रैल-मई में मानसून की अटकलों का दौर शुरू हो जाता है। अगर औसत मानसून आए, तो देश में हरियाली और समृद्धि की संभावना बढ़ती है और औसत से कम आए तो पपड़ाई धरती और अकाल की क्रूर परछाइयां देखने में आती हैं। मौसम मापक यंत्रों की गणना के अनुसार अगर नब्बे फीसद से कम बारिश होती है, तो उसे कमजोर मानसून कहा जाता है।

96 से 104 फीसद बारिश को सामान्य मानसून कहा जाता है। अगर बारिश 104 से 110 फीसद होती है, तो इसे सामान्य से अच्छा मानसून कहा जाता है। 110 फीसद से ज्यादा बारिश होती है, तो इसे अधिकतम मानसून कहा जाता है। बावजूद इसके, बादलों के बरसने की क्षमता घट रही है। ऐसा जंगलों के घटते जाने के कारण हुआ है।

दो दशक पहले तक कर्नाटक में 46, तमिलनाडु में 42, आंध्रप्रदेश में 63, ओड़िशा में 72, पश्चिम बंगाल में 48, अविभाजित मध्यप्रदेश में 65 फीसद वन क्षेत्र थे, जो अब 40 फीसद रह गए हैं। इस कारण बादलों की मोटाई और सघनता कम होती गई है। नतीजतन, पानी भी कम बरसने लगा या फिर एक साथ बरस कर बाढ़ की विभीषिका लाने लगा है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि जब उत्तर-पश्चिमी भारत में मई-जून तपता है और भीषण गर्मी पड़ती है तब कम दाब का क्षेत्र बनता है। इस कम दाब वाले क्षेत्र की ओर दक्षिणी गोलार्ध से भूमध्य रेखा के निकट से हवाएं दौड़ती हैं। निरंतर चक्कर लगाने की इस प्रक्रिया से हवाओं में मंथन होता है और उन्हें नई दिशा मिलती है।

इस तरह दक्षिणी गोलार्ध से आ रही दक्षिणी-पूर्वी हवाएं भूमध्य रेखा को पार करते ही पलट कर कम दबाव वाले क्षेत्र की ओर गतिमान हो जाती हैं। ये हवाएं भारत में प्रवेश करने के बाद हिमालय से टकरा कर दो हिस्सों में विभाजित होती हैं। इनमें से एक हिस्सा अरब सागर की ओर से केरल के तट में प्रवेश करता है और दूसरा बंगाल की खाड़ी की ओर से प्रवेश कर ओड़िशा, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड हिमाचल प्रदेश हरियाणा और पंजाब तक बरसता है।

इन मानसूनी हवाओं पर भूमध्य और कश्यप सागर के ऊपर बहने वाली हवाओं के मिजाज का प्रभाव भी पड़ता है। प्रशांत महासागर के ऊपर प्रवाहमान हवाएं भी हमारे मानसून पर असर डालती हैं। वायुमंडल के इन क्षेत्रों में जब विपरीत परिस्थिति निर्मित होती हैं, तो मानसून के रुख में परिवर्तन होता है और वह कम या ज्यादा बरसात के रूप में धरती पर गिरता है।

बीते तीस वर्षों (1989 से 2018) में दक्षिण-पश्चिम मानसून से होने वाली वर्षा में उल्लेखनीय कमी देखी गई है। साथ ही अरुणाचल प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में भी बारिश घट रही है। 1970 से अब तक के वर्षा के दैनिक डेटा के विश्लेषण से पता चला है कि देश में भारी वर्षा के दिनों में वृद्धि हुई है, जबकि हल्की और मध्यम वर्षा के दिनों में कमी आई है। इसे जलवायु परिवर्तन का नतीजा माना जा रहा है। बिजली गिरने की घटनाओं में बढ़ोत्तरी और अरब सागर में चक्रवातों में तीव्रता इसी का परिणाम है।

बरसने वाले बादल बनने के लिए गरम हवाओं में नमी का समन्वय जरूरी होता है। हवाएं जैसे-जैसे ऊंची उठती हैं, तापमान गिरता जाता है। अनुमान के मुताबिक प्रति एक हजार मीटर की ऊंचाई पर पारा छह डिग्री नीचे आ जाता है। यह अनुपात वायुमंडल की सबसे ऊपरी परत ‘ट्रोपोपाज’ तक चलता है। इस परत की ऊंचाई अगर भूमध्य रेखा पर नापें तो करीब पंद्रह हजार मीटर बैठती है।

यहां इसका तापमान लगभग शून्य से 85 डिग्री सेंटीग्रेड नीचे पाया गया है। यही परत ध्रुव प्रदेशों के ऊपर कुल छह हजार मीटर की ऊंचाई पर भी बन जाती है और तापमान शून्य से पचास डिग्री सेंटीग्रेड नीचे होता है। इसी परत के नीचे मौसम का गोला या ट्रोपोस्फियर होता है, जिसमें बड़ी मात्रा में भाप होती है। यह भाप ऊपर उठने पर ट्रोपोपाज के संपर्क में आती है। ठंडी होने पर भाप द्रवित होकर पानी की नन्ही-नन्ही बूंदें बनाती है।

पृथ्वी से 5.10 किलोमीटर ऊपर तक जो बादल बनते हैं, उनमें बर्फ के बेहद बारीक कण भी होते हैं। पानी की बूंदें और बर्फ के कण मिलकर बड़ी बूंदों में तब्दील होते हैं और वर्षा के रूप में धरती पर टपकना शुरू होते हैं। लेकिन जलवायु परिवर्तन ने सतह पर बहने वाली हवाओं के तापमान में वृद्धि की है, जिससे वाष्पीकरण की दर में वृद्धि हुई है। चूंकि गर्म हवा में अधिक नमी होती है, इसलिए यह तीव्र बारिश का कारण बनती है।

दुनिया के किसी अन्य देश में मौसम इतना विविध, दिलचस्प हलचल भरा और प्रभावकारी नहीं है, जितना कि भारत में है। इसका मुख्य कारण है भारतीय प्रायद्वीप की विलक्षण भौगोलिक स्थिति। हमारे यहां एक ओर अरब सागर है और दूसरी ओर बंगाल की खाड़ी है और इन सबके ऊपर हिमालय के शिखर हैं। इस कारण देश का जलवायु विविधतापूर्ण होने के साथ प्राणियों के लिए बेहद हितकारी है।

इसीलिए पूरी दुनिया के मौसम वैज्ञानिक भारतीय मौसम को परखने में अपनी बुद्धि खपाते हैं। इतने अनूठे मौसम का प्रभाव देश की धरती पर क्या पड़ेगा, इसकी भविष्यवाणी करने में हमारे वैज्ञानिक क्यों चूक जाते हैं, इस सिलसिले में ऐसा माना जाता है कि आयातित सुपर कंप्यूटरों की भाषा अलगोरिथ्म, जिसे वैज्ञानिक ठीक से नहीं पढ़ पाते हैं। हमें सफल भविष्यवाणी के लिए कंप्यूटर की देशी भाषा विकसित करनी होगी।