जलवायु संकट पर पेरिस में हो रहे सम्मेलन में तमाम देशों के राष्ट्राध्यक्ष, सरकारी प्रतिनिधिमंडल, पर्यावरणविद और कार्यकर्ता भाग ले रहे हैं। यह सम्मेलन इसलिए बहुत मायने रखता है कि अगर वर्तमान हालात नहीं बदले गए तो दुनिया का तापमान चार डिग्री सेंटीग्रेट तक बढ़ सकता है। और अगर यह हो गया तो फिर जो बर्फ का पिघलाव होगा वह अनेक देशों को समुद्र के पानी में डुबा देगा। इसके साथ ही यूरोप के ठंडे देश इतने गर्म हो सकते हैं कि वहां की आबादी के लिए खतरनाक साबित हों।
पिछले साल पेरु के लीमा में हुए सम्मेलन में जो निर्णय लिए गए थे अगर उन पर अमल हो तो वर्ष 2030 तक अकेले अमेरिका में बत्तीस प्रतिशत जहरीली गैसों का उत्सर्जन कम हो जाएगा। औपचारिक रूप से अमेरिका ने इसके प्रति अपनी वचनबद्धता व्यक्त की थी। अमेरिका ने यह भी प्रयास करने की रजामंदी दी थी कि वह कारों का प्रयोग कम करेगा। और जहां अभी लगभग सत्ताईस करोड़ कारें चल रही हैं अगर उनमें से पचास प्रतिशत कारें भी कम हो जाएं तो कॉर्बन उत्सर्जन काफी कम हो जाएगा।
पेरिस सम्मेलन में यह भी प्रस्ताव विचारणीय है कि जो विकासशील देश हैं वे प्रतिव्यक्ति ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन 1.44 टन तथा विकसित देश 2.66 टन से आगे न होने दें। इसके साथ ही पेरिस सम्मेलन की विषयवस्तु यह भी है कि दुनिया का तापमान कम करने के लिए एक खरबों डॉलर का कोष तैयार किया जाए जिसमें विकसित देश अपने उत्सर्जन के हिस्से के अनुपात में राशि अदा करें। इस लक्ष्य के लिए सबसे बड़ी रकम देने का निर्णय कनाडा ने किया है जिसने लगभग दो अरब डॉलर की राशि देने की पेशकश की है। अमेरिका एक अरब डॉलर, ब्रिटेन 2 करोड़ 65 लाख पाउंड और आस्ट्रेलिया ने दस लाख डॉलर देने की तैयारी दिखाई है।
पिछले वर्षों में संपन्न और पढ़े-लिखे तबके के एक हिस्से में जलवायु संकट के प्रश्न पर जागृति बढ़ी है। बहुत-से विदेशी मदद प्राप्त एनजीओ भी इसमें सक्रिय हैं। यूरोपीय देशों की ग्रीन पार्टियां भी अपने प्रचार तंत्र के माध्यम से इस विषय को चर्चा में बनाए हुए हैं। हांलाकि फोर्ड फाउंडेशन जैसी संस्थाओं से मदद मिलना न केवल आर्श्यचजनक है, बल्कि विचारणीय भी है।
निस्संदेह दुनिया में कारें, थर्मल पॉवर (ताप विद्युत), परमाणु, विद्युत गैस उत्सर्जन के बड़े माध्यम हैं और उन्हें निंयत्रित करना आवश्यक है।
अमेरिका में वैसे भी कारें बनाने वाली जो सबसे बड़ी कंपनी थी, जनरल मोटर्स, जिसका बजट एक जमाने में अमेरिका सरकार के बजट से ज्यादा होता था, अब वह मंदी व बंदी के कगार पर है। अमेरिका और यूरोप अब कारोें के बाजार में बहुत पीछे हैं, बल्कि कार बाजार में कोरिया, जापान आगे जा रहे हैं। इसलिए भी उन्हें यह इलहाम उपयोगी है ताकि उनके यहां कारों का आयात कम हो। अब अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, आदि साइकिल की ओर मुड़ रहे है, यानी छोटी व शहरी यात्राएं साइकिल से और बड़ी यात्राएं हवाई जहाज से कर रहे हैं।
पिछले लगभग डेढ़ दशक से मैं लगातार सरकारों से लेखों तथा सभाओं के माध्यम से यह मांग करता रहा हूं कि भारत में कारों पर लगाम लगाई जाए। आज देश की राजधानी दिल्ली में औसतन दो व्यक्ति पर एक कार है। अगर सामूहिक और सामुदायिक यातायात के तरीके अपनाए जाएं तो भारत काफी हद तक जलवायु परिवर्तन के संकट से बच सकता है। पेरिस सम्मेलन के पहले जापान, सिडनी, बर्लिन, लंदन, न्यूयार्क आदि में हजारों छोटे-बड़े प्रदर्शन हुए हैं जिनके द्वारा गैस उत्सर्जन करने वालों का विरोध किया गया। पेरिस में तो प्रदर्शनकारियों को अनुमति नहीं मिलने के विरोध में उन्होंने विरोध का नया तरीका ईजाद किया और सड़कों पर हजारों जूते रख दिए। हालांकि यह जूता परंपरा पेरिस के लिए नई है और भारतीय लोग खुश हो सकते हैं कि हमने जूता संस्कृति को पेरिस तक पहुंचा दिया!
ग्लोबल वार्मिंग का न केवल जलवायु पर बल्कि इंसान और खेती पर भी बहुत विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। डॉ स्वामीनाथन के अनुसार इसके प्रभाव से भारत में सत्तर लाख टन गेहूं का उत्पादन कम हो सकता है। यानी देश की कुल गेहूं की पैदावार का बड़ा हिस्सा घट सकता है। पर जो चिंता का या बहस का महत्त्वपूर्ण विषय होना चाहिए उस पर कोई विशेष चर्चा नजर नहीं आती है। पूंजीवाद पहले समस्या को पैदा करता है। जलवायु परिर्वतन की समस्या के निदान के लिए दुनिया के संपन्न और बौद्धिक तबके के द्वारा निम्न तरीके बताए जा रहे हैं। एक, गैसों के उत्सर्जन में कमी और उसके लिए थर्मल पॉवर या कारों की कमी। दो, जंगलों को काटने के बदले में नए जंगल लगाने का लक्ष्य। तीन, इनको पूरा करने के लिए हिस्सेदार देशों का तुलनात्मक योगदान और एक वैश्विक कोष का निर्माण।
पर ये उपाय बहुत तार्किक नहीं हैं। निस्संदेह अगर कारें डीजल-पट्रोल के बजाय गैस या सौर ऊर्जा से चलेंगी तो उत्सर्जन कम होगा। पर एक मूल प्रश्न यह भी है कि क्या इतनी कारों की आवश्यकता है? भारत जैसे देश में तो कारें हैसियत और विलासिता का माध्यम बन गई हैं। किसके पास कितनी ज्यादा कारें हैं, किसके पास कितनी महंगी कारें हैं, यह हैसियत का प्रमाण है। यूरोप और अमेरिका के समाज में जीवन जीने की एकांतिक जीवन शैली भी ज्यादा कारों के लिए उत्तरदायी है। ज्यादा कारों के निर्माण के लिए अधिकाधिक लौह खनन की लाचारी होती है। लौह खनन में बडेÞ पैमाने पर जंगल और खेती नष्ट होती है। विस्थापन की समस्या पैदा होती है। अत: बेहतर यह होगा कि दुनिया कारों के रोग से मुक्ति का उपाय खोजे। भारतीय दर्शन और महात्मा गांधी ने जिन बातों को दुनिया के सामने रखा था अगर उन पर दुनिया अमल करती या आगे करे तभी समस्याओं का स्थायी हल निकल सकता है।
गांधी ने कहा था कि प्रकृति के पास दुनिया की जरूरतों की पूर्ति करने के लिए सब कुछ है, पर वह किसी के लालच की पूर्ति नहीं कर सकती। व्यक्तिगत कार स्थायी जरूरत नहीं है, और अगर सामुदायिक यातायात को बेहतर बनाया जाए तो इसकी जरूरत न्यूनतम भी हो सकती है। गांधी के बताए हुए ग्रामीण और कुटीर उद्योग, जिसे लोहिया ने छोटी इकाई तकनीक और छोटी मशीन के रूप मेंप्रस्तुत किया, उसको अमल में लाया जाए तो करोड़ों लोगों को रोजगार के लिए अनावश्यक यात्रा नहीं करनी पडेÞगी। अगर ग्राम या छोटी इकाई आधारित विकास का ढांचा हो तो इससे भी करोड़ों लोगों की रोजमर्रा यात्रा का बोझ घट सकता है।
आजकल कुछ तबके प्रकृति का पोषण नहीं, दोहन कर उसे नष्ट कर रहे हैं। प्रकृति दोहन के लिए है या उपयोग के लिए? गांधी ने तो उपयोग का कहा था। हमारा भारतीय समाज हजारों सालों से वन, नदी, वायु, सूर्य, आदि की पूजा करता आया है, और जिसकी पूजा की जाती है वह दोहन या शोषण के लिए नहीं होती। दरअसल, यह भारत की सांस्कृतिक शिक्षा थी जो कुछ अलग माध्यम से समाज को सिखाई व पढ़ाई जाती थी। अभी एक उद्योगपति ने अपने बेटी की शादी पर पचास करोड़ रुपए खर्च किए। आखिर यह रुपया किस चीज पर खर्च हुआ होगा, जेवरात यानी खनन यानी प्रकृति को नष्ट करना व विस्थापन। बिजली यानी खनन और विस्थापन। क्या एक शादी सामान्य तरीके से नहीं हो सकती? दूसरे, पहले जंगल काटो, फिर जंगल लगाओ यह जरूरी है, पर बहुत संगत नहीं है। जहां धातु का खनन होता है वहीं इतनी उलट-पलट होती है कि जंगल लगाना इतना आसान काम नहीं है।
अब दुनिया को और विशेषत: भारत, अफ्रीका और खाड़ी देशों को आबादी नियत्रंण पर भी निर्णय करना चाहिए। अगर आबादी को नियंत्रित नही किया जाएगा तो भी एक बेहतर और खुबसूरत दुनिया नहीं बन सकेगी। वर्तमान में अमेरिका में अगर सोलह करोड़ कारें हैं तो वे उनकी आबादी का आधा हैं, जिन्हें वे क्रमश: कम कर रहे हैं। अगर अमेरिका अपनी कारों की संख्या घटा कर सोलह करोड़ पर ले आया है तो यह एक उपलब्धि है। भारत जैसे देशों को भी सोचना होगा। राजधानी दिल्ली में आइटीओ के पास के तापमान और पालम के आसपास के तापमान में औसतन दो-तीन डिग्री का फर्क होता है। जबकि आइटीओ से पालम की दूरी दस-बारह किलोमीटर है। आइटीओ का तापमान कारों के दबाब में बढ़ जाता है और पालम का तुलात्मक रूप से कम रहता है।
प्रधानमंत्री एक सौ बाईस देशों का गठबंधन जलवायु मुद्दे पर बनाना चाहते हैं। हालांकि उपायों के बारे में उन्होंने कोई ठोस कार्यक्रम नहीं रखा है। मेरी राय में जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग की समस्या पूंजीवादी व्यवस्था व विलासी संस्कृति की समस्या ज्यादा है। अच्छा होगा अगर प्रधानमंत्री पेरिस में एक ही कार्यक्रम दें ‘चलो, मूल भारत की ओर, चलो गांधी की ओर’। ‘भारत’ और ‘गांधी’ इन दो शब्दों में दुनिया की इन सभी समस्याओं का यानी प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन आदि का हल मौजूद है। भारतीय दर्शन प्रकृति के साथ जीने और सह-अस्तित्व का है। पूंजीवादी दर्शन प्रकृति को लूटने, शोषण और नष्ट करने का है। दुनिया इतना ही याद रखे कि जो प्रकृति को नष्ट करेगा उसका स्वत: नष्ट होना अवश्यंभावी है।