पिछले तीन दशक में चीन ने विलक्षण प्रगति की है। इस अवधि में वह अमेरिका के बाद विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हो गया है। उसकी आकांक्षा जितनी जल्दी हो सके अमेरिका से आगे निकलने की है। हालांकि इस तरह की तुलनाएं सरलीकृत मानकों के आधार पर होती हैं। पर अमेरिका में चीन को एक चुनौती के रूप में देखा जाने लगा है। अमेरिका एक पूर्णत: औद्योगिक अर्थव्यवस्था है और चीन अगले तीन दशक में, 2049 तक, एक पूर्णत: औद्योगिक अर्थव्यवस्था हो जाना चाहता है। उसकी इस तीव्र आर्थिक प्रगति ने भारत में एक तरह की ईर्ष्या पैदा की है। भारत में भी तीव्र आर्थिक प्रगति की आकांक्षा बलवती हो रही है। लेकिन इस मार्ग पर आगे बढ़ते हुए हमें चीन की गलतियों से सीख लेने की आवश्यकता है और साथ ही साथ साध्य और साधन के बारे में विचार करने की भी।
चीन की सफलता के पीछे एक व्यावहारिक आर्थिक रणनीति देखी जा सकती है। चीन ने अपनी प्रगति का यह अध्याय चेयरमैन माओ की 1978 में मृत्यु के बाद लिखना आरंभ किया था। माओ की विदाई और सांस्कृतिक क्रांति के नेताओं के अवसान के कारण चीनी अर्थव्यवस्था को एक नई दिशा में मोड़ना संभव हुआ। सबसे पहले किसानों को केंद्रीय नियंत्रण से अलग किया गया। 1979 में तीस वर्ष बाद फिर से परिवार आधारित खेती की छूट दी गई।
कृषि उत्पाद का मूल्य राज्य द्वारा नियंत्रित रहा। लेकिन चीन सरकार ने प्रयासपूर्वक कृषि वस्तुओं के दाम विश्व बाजार की कीमतों से अधिक रखे। ऊंचे दाम और साम्यवादी नियंत्रण से मुक्ति ने चीनी किसानों को उत्साह से भर दिया। साम्यवादी नेताओं ने 1979 से 1990 तक खेती और छोटे उद्योगों की नींव मजबूत की। इसके साथ ही सोवियत सहायता से खड़े किए गए सैन्य उद्योगों की अतिरिक्त क्षमता का उपयोग औद्योगिक वस्तुएं पैदा करने में किया।
इसके बाद 1990 में चीन ने उद्योगों की तरफ ध्यान देना आरंभ किया। चीन में केंद्रीय नीतियों और योजना के क्रियान्वयन का अधिकार पूरी तरह प्रांतीय और स्थानीय नेतृत्व को सौंप दिया गया। सरकारी बैंकों को खुले हाथ ऋण देने और चुका न पाने वाली इकाइयों को भी आगे ऋण देते रहने का निर्देश दिया गया। कच्चे माल और ऊर्जा की अबाधित आपूर्ति सुनिश्चित की गई। इसके साथ ही चीन ने आर्थिक क्षेत्र बना कर विदेशी निवेश आमंत्रित किया। चीन ने यूरोपीय अनुभव से ही यह व्यावहारिक सीख ली थी कि तेजी से औद्योगीकरण के लिए विदेशी पूंजी, विदेशी तकनीक और विदेश व्यापार आवश्यक है।
पहले विदेशी पूंजी और विदेशी कंपनियों को निर्यात करने वाले उद्योगों में ही छूट दी गई। पर एक दशक बाद उन्हें चीन के आंतरिक बाजार के लिए भी औद्योगिक सामान पैदा करने की छूट दे दी गई। नियंत्रित अर्थव्यवस्था होने के कारण विदेशी कंपनियों को सरकारी तंत्र से पूरा सहयोग मिला और देखते-देखते सस्ती लागत के लोभ में यूरोप और अमेरिका की कंपनियां चीन के उद्योग तंत्र को खड़ा करने में जुट गर्इं। पिछले एक दशक में चीन विश्व का सबसे बड़ा निर्यातक देश हो गया है। दूसरी तरफ अमेरिका औद्योगिक वस्तुएं पैदा करने वाले विश्व के अग्रणी देश से औद्योगिक वस्तुओं का उपभोग करने वाले देश में बदल गया है।
औद्योगिक विकास की यह वही रणनीति है, जो इससे पहले यूरोप और अमेरिका में बनाई गई थी। अंतर केवल इतना है कि अपने सामंती दौर में आंतरिक उपनिवेशों पर निर्भर रहने वाला यूरोप अपनी विश्व विजय के बाद बाह्य उपनिवेशों से पूंजी भी जुटा सका और उसके औद्योगिक सामान के लिए बाजार भी बन गया। चीन के पास कोई बाह्य उपनिवेश नहीं थे, इसलिए उसने साम्यवादी शासन द्वारा अपनी अधिकांश आबादी को निम्न जीवन स्तर पर रखते हुए उद्योग तंत्र खड़ा किया। फिर भी पूंजी और तकनीक के लिए विदेशी निर्भरता आवश्यक थी और उसके लिए उसे विदेश व्यापार तंत्र का अंग बनना आवश्यक था। यह याद रखना चाहिए कि चीन अपनी इस रणनीति पर अमेरिका की मौन-मुखर स्वीकृति के कारण ही चल पाया। क्योंकि विदेश व्यापार पर अब भी अमेरिका का पर्याप्त नियंत्रण है।
पिछले तीन दशक की चीन की आर्थिक प्रगति की अलबत्ता यह बड़ी सरलीकृत कथा है, जिसे अर्थशास्त्री बड़े श्रमपूर्वक बताते हैं। लेकिन चीन की इस प्रगति के पीछे पिछले तीन दशक की तथाकथित उदारीकरण की नीतियां ही नहीं हैं, इस प्रगति को संभव बनाने में उससे पहले के तीन दशकों का और भी बड़ा योगदान है। एक लंबे गृहयुद्ध के बाद 1949 में माओ के नेतृत्व में चीनी साम्यवादी दल सत्ता में आया था। एक चतुर सेनापति की अपनी छवि को एक क्रांतिकारी नेता की छवि में बदलते हुए माओ ने सोवियत रूस के अनुकरण पर चीन को कम्यून के ढांचे में ढालना शुरू किया। यह आसान नहीं था और इसके लिए व्यापक हिंसा का सहारा लिया गया। सोवियत रूस की सहायता से आरंभ में ही एक आधुनिक सेना और सैन्य उद्योग खड़ा कर लिया गया, जो किसी भी राजनीतिक विरोध को कुचलने और देश को आंतरिक और बाह्य चुनौतियों से सुरक्षित करके स्थिरता देने में सहायक हुआ।
माओ ने दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान तीव्र उद्योगीकरण की दिशा में आगे बढ़ने के लिए लंबी छलांग लगाने का प्रयत्न किया और चीन की पूरी जनसंख्या को स्टील बनाने में लगा दिया। माओ के निरंकुश नेतृत्व का विरोध करना संभव नहीं था। इस अव्यावहारिक अभियान में खेती की अनदेखी हुई और उसके फलस्वरूप पडे अकाल में दो से साढ़े चार करोड़ लोग मारे गए। 1961 में दो वर्ष पहले ही यह अभियान छोड़ दिया गया। लेकिन माओ के नेतृत्व को मिलने वाली चुनौती को समाप्त करने के लिए सांस्कृतिक क्रांति के रूप में एक नया अभियान छेड़ा गया। 1966 से 1976 तक चले इस अभियान में बड़ी संख्या में लोगों को बुर्जुआ घोषित करते हुए इतना प्रताड़ित किया गया कि अधिकतर लोग अपनी जान से हाथ धो बैठे। सांस्कृतिक क्रांति के दौरान पैदा किए गए साम्यवादी आवेश ने पति, पत्नी और बच्चों तक को एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा होने के लिए विवश किया।
इसने चीनी लोगों को भयग्रस्त करते हुए राज्यतंत्र का आज्ञापालक बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। माओ के जीवनकाल में ही चीनी जनता को बलपूर्वक एक आहूत सेना में बदल दिया गया था, जिसे फिर चीन को आर्थिक शक्ति बनाने के लिए जुटाने में बहुत मुश्किल नहीं हुई। 1978 के बाद की अनुकूल परिस्थितियों में यह जन-सेना निम्न जीवन स्तर पर रहते हुए चीन को औद्योगिक शक्ति बनाने में लग गई।
पिछले छह दशकों में चीन को औद्योगिक शक्ति बनाने के लिए बडेÞ पैमाने पर हिंसा का सहारा लिया गया है। इससे पहले यूरोप और अमेरिका में इससे भी अधिक लंबे समय तक और इससे भी भीषण रूप में हिंसा का सहारा लिया गया था। क्योंकि यह पक्ष अर्थशास्त्रियों के दायरे में नहीं आता, इसलिए उसकी बात नहीं होती। पर सच्चाई यह है कि पश्चिमी तरह का उद्योगीकरण बिना हिंसा के हो ही नहीं सकता। यह औद्योगीकरण बड़े पैमाने के उत्पादन पर निर्भर है। ऐसा उत्पादन जिस मशीनीकरण से संभव है उसके लिए पूंजी चाहिए। इसकी प्रक्रिया उस उत्पादन तंत्र से उलट है जिसके हम भारतीय अभ्यस्त हैं।
हमारे यहां लोग अपनी कुशलता और अन्य साधनों से जो पैदा करते हैं उसका विभाग बाद में होता है। लेकिन औद्योगिक उत्पादन के लिए पंूजी पहले चाहिए। वह दूसरों का भाग छीन कर ही पाई जा सकती है। इस प्रवाह को बनाए रखने के लिए कोई न कोई उपनिवेश चाहिए। अगर बाह्य उपनिवेश नहीं होगा, तो आंतरिक उपनिवेश यानी देश के भीतर ही उपनिवेश खोजा जाएगा। यूरोप ने बाहरी उपनिवेशों के बल पर औद्योगिकीकरण के अपने अभियान को आगे बढ़ाया तो चीन ने आंतरिक उपनिवेश के बल पर। अमेरिका पहले अफ्रीका से बलात लाए गए गुलामों के बल पर और अपनी बड़ी आबादी को श्रमिक बना कर पंूजीकरण कर रहा था। बाद में जब अपने लोगों को निम्न जीवन स्तर पर रखना मुश्किल होने लगा तो उसने अपने उद्योगों को चीन स्थानांतरित कर दिया।
चीन अभी अपनी अधिकांश जनसंख्या को निम्न जीवन स्तर पर रख कर औद्योगिक शक्ति बनने का प्रयत्न कर रहा है। वह विश्व की अमेरिका के बाद सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, लेकिन प्रति व्यक्ति आय में वह विश्व में बयासीवें स्थान पर है। धीरे-धीरे चीनी लोग अपना जीवन स्तर सुधारने की मांग करेंगे और उनकी निर्वाह लागत बढ़ेगी। अगर चीन को अमेरिका की तरह अपने उद्योग तंत्र को दूसरों के कंधों पर डालने में सफलता नहीं मिली तो उसे अपनी जनसंख्या को बलपूर्वक आंतरिक उपनिवेश बनाए रखना पड़ेगा।
वास्तव में भारत और चीन पश्चिम के जिस आर्थिक ढांचे की नकल कर रहे हैं वह मूलत: एक राजनीतिक ढांचा है। उसमें अपने उपयोग के लिए उत्पादन नहीं किया जाता, व्यापार के लिए उत्पादन किया जाता है। यह व्यापार तंत्र ही शक्ति तंत्र है और इस शक्ति तंत्र के द्वारा पश्चिमी देशों में बुर्जुआ सत्ता खड़ी हुई है तो साम्यवादी देशों में राज्यतंत्र ही ये सारी भूमिकाएं निभा रहा है।
साम्यवादी देशों में अधिकांश आबादी शक्ति तंत्र का उसी तरह पुर्जा भर है जैसी वह पूंजीवादी देशों में है। चीन ने अपने समाज को यूरोपीय जाति के पतनकारी ढांचे में धकेल दिया है। भारत को अपना कोई अलग रास्ता ढूंढ़ना चाहिए। आज कोई भी देश औद्योगिक तंत्र खड़ा करने से बच नहीं सकता, क्योंकि उसी से आज की युद्ध सामग्री पैदा होती है और आत्मरक्षा के लिए यह सामग्री आवश्यक है। लेकिन औद्योगिक तंत्र खड़ा करने का एकमात्र यूरोपीय तरीका ही नहीं है। भारत को अपनी शास्त्रीय बुद्धि, ऐतिहासिक अनुभव और सभ्यता के उच्चतर मानकों के आधार पर वह तरीका खोजना है।
बनवारी
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