पति-पत्नी के अलगाव के मामले में कानूनी उलझनों के साथ भावनात्मक पक्ष भी जुड़ा होता है। खासकर बच्चों के संरक्षण और इस जिम्मेदारी के सही निर्वहन से जुड़ी बातें एक साथ तीन पीढ़ियों को प्रभावित करती हैं। रिश्तों की बदलती संरचना और आपसी जुड़ाव को लेकर बढ़ती जद्दोजहद का ही नतीजा है कि देश के हर वर्ग में पारिवारिक विवाद बढ़ रहे हैं। नतीजतन, बहुत से बच्चों का भविष्य भी अधर में लटक जाता है।

अभिभावकों का अलगाव बच्चों के जीवन को भी अशांत और उलझन भरा बना देता है। चर्चित चेहरे हों या आम परिवार, माता-पिता के रिश्तों का बिखराव बच्चों के मन और जीवन को भी बिखेर देता है। पति-पत्नी के झगड़ों के अधिकतर मामलों में बरसों बरस चलने वाली कानूनी लड़ाई बच्चों का जीवन भी मुश्किल बना देती है।

बच्चों की देखरेख से लेकर उनकी सहज जरूरतों तक, बहुत-सी चीजों का बंटवारा बालमन को उलझा कर रख देता है। भावनात्मक मोर्चे पर बच्चे उलझनों में घिर जाते हैं, तो व्यावहारिक जीवन में असुरक्षा का भाव जड़ें जमा लेता है। कई मामलों में तो साझा परवरिश की जगह मां का अधिकार ज्यादा या पिता का हक अधिक का खेल, सालों साल चलता है। दोनों पक्ष आपसी बातचीत से अपने मामले को सुलझाने की राह पकड़ने के बजाय कानूनी पेचीदगियों में उलझ कर रह जाते हैं। दुखद है कि बिना किसी गलती की सजा के समान यह बिखराव बच्चों के हिस्से भी आता है।

आए दिन होने वाली अनबन और उलझन के हालात में बालमन की उम्मीदें भी बिखरती हैं। विस्कोन्सिन मेडिसिन यूनिवर्सिटी के शोध के मुताबिक जो बच्चे अस्थिर परिवारों में बड़े होते हैं, उनके व्यवहार में चिंता, तनाव और कम आत्मसम्मान देखने को मिलता है। रिसर्च यह भी बताता है कि बच्चों के विकास पर कई कारणों का असर पड़ता है, जैसे उदास माता-पिता के साथ रहना, अस्थिर और अशालीन माहौल में जीना, परिवार में अनबन देखना आदि, जिसके चलते वे न सिर्फ पढ़ाई में पिछड़ जाते, बल्कि मानवीय गुणों को सीखने-समझने में भी। बच्चे एक अधूरे से व्यक्तित्व के रूप में बड़े होते हैं। जो कई तरह की नकारात्मकता लिए होता है।

निस्संदेह, अभिभावकों के संबंधों की उलझनों से बच्चों के व्यक्तित्व और विचार दोनों पर ही दुष्प्रभाव पड़ता है। बालमन भी ऐसी परिस्थितियों से मिली उहापोह से नहीं बच पाते। अक्सर देखने में आता है कि अलग होने की प्रक्रिया और उसके बाद भी अभिभावकों की लड़ाई चलती ही रहती है। बच्चे के अभिभावकत्व को लेकर बरसों आपसी तनाव का माहौल बना रहता है।

इस खेल में बच्चों का जीवन बिखर कर रह जाता है। बच्चों का विश्वास टूटता है। मन में भय और असुरक्षा घर कर जाते हैं। बच्चे अपनों के बीच भी रह कर अकेले हो जाते हैं। किसी भी परिवार में साथ रहने की परिस्थितियां हों या अलगाव के हालात, संवेदनशील और सौहार्दपूर्ण व्यवहार जरूरी है। वरना बच्चे निराशावादी और अवसाद का शिकार बनने लगते हैं।

बड़ों की अनबन की वजह से बने हैरान-परेशान कर देने वाले पारिवारिक वातावरण के कारण बच्चों को अपना वर्तमान ही इतना उलझन भरा लगने लगता है कि उनका मन आने वाले कल को लेकर भी आशाएं नहीं संजोता। ऐसे में बच्चे आत्मकेंद्रित और अकेलापन जीने के आदी हो जाते हैं। अकेलेपन के शिकार बच्चे इलेक्ट्रानिक उपकरणों के भी लती होकर अपने आप तक सिमट जाते हैं।

समझना मुश्किल नहीं कि ऊपर से शांत दिखने वाले बालमन में उसकी गुस्से और चिंता का एक शोर दबा होता है। सबसे बड़ी मुश्किल तब आती है, जब इन कठिनाइयों के बीच पिसते बच्चों का धैर्य जवाब दे जाता है और वे आत्महत्या या घर छोड़ देने जैसा कदम उठा लेते हैं। ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं, जिनमें बच्चे अभिभावकों के झगड़ों से तंग आकर घर छोड़ देते हैं। आपराधिक तत्त्वों के चंगुल में फंस जाते हैं और कभी वापस नहीं लौट पाते।

दरअसल, बरसों साथ रहने के बाद भी वैवाहिक संबंधों का बिखरना आज का कटु सच बन गया है। ऐसे में तलाक के बढ़ते आंकड़े बच्चों के लिए भी नकारात्मक परिवेश बना रहे हैं। यही वजह है कि अलगाव की प्रक्रिया में भी सहज संवाद जरूरी है। साझा जीवन के बाद अलग होने की राह पर बहुत से मुद्दों पर सहमति नहीं होती। चाहे-अनचाहे कटुता भी डेरा जमा लेती है।

बीतते समय के साथ समस्याएं ज्यादा और आपसी सरोकार कम होते जाते हैं। ऐसे में न्यायालय द्वारा बातचीत से मामला सुलझाने की सलाह बेहद व्यावहारिक लगती है। इस सलाह के पीछे एक वजह लंबित मामलों की बढ़ती सूची भी है। ऐसे में मामले का निपटारा होने तक कई मामलों में तो बच्चों का बचपन ही निकल जाता है। बीते साल संसद में दिए गए आंकड़ों के मुताबिक देश की अलग-अलग पारिवारिक अदालतों में लगभग 11.4 लाख मामले लंबित हैं। गौरतलब है कि देश के छब्बीस राज्यों और संघ शासित प्रदेशों में कुल 715 पारिवारिक अदालतें हैं। बावजूद इसके, मामलों का निपटारा बरसों तक नहीं हो पाता।

भारत हर मामले में दुनिया में सबसे अधिक लंबित अदालती मुकदमों वाला देश है। कुल मिलाकर भारत की अदालतों में 4.70 करोड़ मामले लंबित हैं। इनमें 6.5 लाख से भी अधिक विवाह संबंधी मामले हैं। ऐसे में मामूली मनमुटाव से उपजी स्थितियां भी कई बार लंबी कानूनी लड़ाई का कारण बन जाती हैं। साथ ही आरोप-प्रत्यारोप का दौर बच्चों की मन:स्थिति बिगाड़ने वाला साबित होता है। वाकई यह गौरतलब पहलू है कि जिस समझदारी के साथ माता-पिता बच्चों और एक-दूजे के साथ पेश आते हैं, बच्चे उसी के अनुसार खुद को विकसित करते हैं।

अमेरिका के कैलिफोर्निया में अभिभावक और बच्चों के रिश्तों पर हुए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि आठ से चौदह साल के लगभग 53 प्रतिशत बच्चे अपने माता-पिता को एक दोस्त की तरह नहीं, बल्कि एक मार्गदर्शक की भूमिका में देखना चाहते थे। यानी बच्चों को अभिभावक क्या सिखाना चाहते हैं, इसका गहरा ताल्लुक इस बात से है कि वे स्वयं कैसे जीते हैं।

इसीलिए हर अभिभावक को यह खयाल रखना चाहिए कि जिस अनबन या व्यवहार को आम बात समझा जाता है, वह बच्चों पर बहुत गहरा असर करती है। इसीलिए अलग होने के हालात में भी सहज संवाद और मर्यादित व्यवहार बना रहे, तो बेहतर है। अच्छे-बुरे हालात में आपसी सरोकार और समझ का माहौल ताउम्र बच्चों के जीवन को दिशा देता है।

असल में देखा जाए तो पति-पत्नी के अलगाव के मामले में कानूनी उलझनों के साथ भावनात्मक पक्ष भी जुड़ा होता है। खासकर बच्चों के संरक्षण और इस जिम्मेदारी के सही निर्वहन से जुड़ी बातें एक साथ तीन पीढ़ियों को प्रभावित करती हैं। रिश्तों की बदलती संरचना और आपसी जुड़ाव को लेकर बढ़ती जद्दोजहद का ही नतीजा है कि देश के हर वर्ग में पारिवारिक विवाद बढ़ रहे हैं।

नतीजतन, बहुत से बच्चों का भविष्य भी अधर में लटक जाता है। कुछ समय पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने भी एक पारिवारिक विवाद में सुनाए अपने एक फैसले में कहा था कि ‘इसमें कोई दो राय नहीं कि बच्चों का पालन-पोषण एक खुशहाल परिवार में हो, तो उनके भावनात्मक रूप से मजबूत होने और पढ़ाई में उनका प्रदर्शन बेहतर होने की संभावनाएं ज्यादा होती हैं।’ गौरतलब है कि यह निर्णय लगभग बारह साल बाद एक-दूसरे अलग हो रहे दो बेटों के माता-पिता के मामले में सुनाया गया था।

कानूनविद भी कहते हैं कि अदालतें ऐसे मामलों में कानून से भी ज्यादा अहमियत बच्चों की बेहतर परवरिश को देती हैं। विचारणीय तो यह है कि अगर मामले का निपटारा होने के बजाय और उलझता जाए, तो बच्चों के जीवन का कोई भी पक्ष प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा। इसीलिए पहला पड़ाव आपसी संवाद से सहज हल निकालने का ही होना चाहिए।