रघु ठाकुर

चीन ने भी एक प्रकार से वैश्विक साहूकारी शुरू कर दी तथा श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश और दुनिया के अनेक देशों को आर्थिक सैन्य व कूटनीतिक मदद और कर्ज देकर अपने प्रभाव में लिया। नेपाल में ओली के समर्थन से प्रचंड के प्रधानमंत्री बनने के पीछे स्पष्ट रूप से चीन की भूमिका है, जबकि ओली और प्रचंड एक दूसरे के विरुद्ध चुनाव लड़े थे।

भारत-चीन की सीमा पर पिछले कुछ समय से तनाव बढ़ रहा है और खासौतर पर तवांग की घटना के बाद कुछ ज्यादा ही। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारतीय सेना के जवानों ने तवांग में चीनी घुसपैठ के प्रवास को साहसपूर्वक न केवल विफल कर दिया, बल्कि अपने शक्ति शौर्य का जबरदस्त प्रदर्शन भी किया। इससे भारतीय सेना का आम जन में गौरव बढ़ा है और देशवासियों में आत्मविश्वास का संचार भी हुआ है।

फिर भी अभी राष्ट्र की सुरक्षा की दृष्टिकोण से कुछ चिंताएं आमजन के मस्तिष्क में हैं। खबरें आर्इं कि चीनी सैनिक निरंतर घुसपैठ करने के प्रयास में लगे हुए है। पिछले वर्ष भारत की सीमा में जो सैनिक घुस आए थे और जिन्होंने लगभग दो से ढाई सौ वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा किया था, वहां से चीनी सैनिकों को भारत अभी तक हटा नहीं सका है।

चीनी और भारतीय सैनिक अधिकारियों के बीच निरंतर बैठकें हुई हैं, उनमें यह समझौता भी हुआ कि भविष्य में चीनी और भारतीय सैनिकों के बीच अपनी-अपनी सीमाओं की सुरक्षा को लेकर अगर कोई मतभेद या विवाद होता है तो किसी भी पक्ष से आग्नेयास्त्रों का प्रयोग नहीं किया जाएगा। यानी केवल शारीरिक बल से एक दूसरे को रोकने का प्रयास किया जाएगा। यह समझौता युद्ध रोकने के दृष्टिकोण से तो उपयोगी हो सकता है, पर भारतीय सीमाओं के या पुरानी कब्जाई हुई जमीन वापस लेने के दृष्टिकोण से उपयोगी नहीं है।

वर्ष 1962 में चीन ने भारत पर हमला किया था और भारत की हजारों किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर लिया था जो कि अभी भी चीन के कब्जे में है और वह जमीन वापस नहीं ली जा सकी। लगभग तेईस वर्षों तक चीन और भारत के बीच रिश्ते कूटनीतिक सहित टूटे रहे। हालांकि चीन व भारत ने अपने-अपने दूतावास बंद नहीं किए थे। पर संबंधों में एक तीखा अवरोध पैदा हो गया था। यह सत्य है कि वर्ष 1978 में लगभग सोलह वर्षाें के बाद पहली बार भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री दिवंगत अटल बिहारी वाजपेयी चीन गए थे।

हालांकि तब भी चीन ने भारत सरकार को अपने मंसूबे स्पष्ट कर दिए थे। तब चीन ने वियतनाम पर हमला बोल दिया, जिसकी प्रतिक्रिया अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत तीखी हुई। उसके आठ वर्ष बाद 1985-86 में चीन की यात्रा करने वाले प्रथम भारतीय प्रधानमंत्री दिवंगत राजीव गांधी थे। संभव है कि अमेरिका की चीन के प्रति बदलती हुई नीति ने इन दौरों को प्रोत्साहित किया हो! दरअसल, अमेरिका अपनी विदेश नीति को दशकों पूर्व तय करता है और उस दिशा में दुनिया का दिमाग बनाता है।

सन 1991 में दिवंगत नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्री बनने के बाद और अंतरराष्ट्रीय पूंजीवाद के दस्तावेज विश्व व्यापार संगठन के समझौते के बाद भारत ने अपनी विदेश नीति को लगभग उल्टा खड़ा कर दिया। भारत ने 1991 के बाद ‘लुक टू द ईस्ट’ विदेश नीति का निर्धारण किया और पश्चिम के बदले मुख्य रूप से चीन, वर्मा, बांग्लादेश, नेपाल और आदि को विदेश नीति का लक्ष्य बनाया। भारत की विदेश नीति का यह परिवर्तन भी एक प्रकार से अमेरिका से प्रभावित था। अमेरिका ने चीन के साथ टूटे हुए व्यापार के बंधनों को फिर शुरू किया और चीन को अपना बाजार खोला।

उधर चीन ने अपना बाजार अमेरिका को खोला। वैश्विक स्तर पर एक नया जुमला शुरू हुआ कि अंतरराष्ट्रीय रिश्ते और विदेश नीति के लिए व्यापार ही मजबूत रास्ता बना सकता है। इसका एक परिणाम यह हुआ कि दुनिया के बाजारों पर चीन ने अपने सस्ते सामान को फैला दिया। चूंकि चीन में एक अर्थ में निरंकुश या तानाशाही शासन है, इसके कारण श्रम की लागत सस्ती रहती है। इसलिए चीन सस्ता सामान बनाने में सफल हुआ और उसके सस्ते सामान ने न केवल अमेरिका के, बल्कि दुनिया के बड़े भू-भाग पर कब्जा जमा लिया।

चीन की आर्थिक संपन्नता ने चीन को अपनी पूंजी और प्रभाव को फैलाने का अवसर दिया। चीन ने भी एक प्रकार से वैश्विक साहूकारी शुरू कर दी तथा श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश और दुनिया के अनेक देशों को आर्थिक सैन्य व कूटनीतिक मदद और कर्ज देकर अपने प्रभाव में लिया। नेपाल में हाल ही में ओली के समर्थन से प्रचंड के प्रधानमंत्री बनने के पीछे स्पष्ट रूप से चीन की भूमिका है, जबकि ओली और प्रचंड एक दूसरे के विरुद्ध चुनाव लड़े थे। चीन की आर्थिक क्षमता इतनी बढ़ी है कि अमेरिका को अमेरिका के भीतर भी वह टक्कर और आर्थिक मदद देने लगा। दुनिया में पैसे और सैन्य शक्ति के आधार पर जो प्रभाव और दबाव पहले अमेरिका का था, काफी हद तक उसे चीन ने अपने प्रभाव में ले लिया।

यूरोप के बाजारों तक पहुंच बनाने के लिए चीन ने ‘वन बेल्ट वन रोड’ की योजना शुरू की और चीन से लेकर ईरान तक एक सड़क मार्ग बनाकर अपने बाजार को पहुंचाने की योजना तैयार की। इस योजना पर चीन काफी आगे बढ़ा भी है, पर भारतीय विदेश नीति के निर्माताओं ने इस बाबत कोई ठोस चिंतन नहीं किया और पश्चिम को लगभग उपेक्षित कर दिया। नतीजतन, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान तक चीन की घुसपैठ गहरी हो गई। इस व्यापारिक सिद्धांत के तहत भारत ने अपनी राष्ट्रीय सीमाओं की वापसी और सुरक्षा पर ध्यान देना कम कर दिया। भारत के नीति निर्माताओं की सोच थी कि चीन अपने व्यापारिक, आर्थिक हितों के लिए अब आगे घुसपैठ नहीं करेगा।

नब्बे के दशक के पहले से ही भारत-चीन के सीमा विवाद को हल करने के लिए एक सत्ता पोषित बौद्धिक धड़ा कहने लगा था कि भारत चीन के बीच की जो सीमा रेखा अंग्रेजों ने खींची थी, जिसे ‘मैकमोहन लाइन’ कहा जाता है, वह छोड़ देना चाहिए और जो भूमि जिसके नियंत्रण में है, वहां तक उसके अधिकार को मान लेना चाहिए। यानी भारत की जो लगभग 30-40 हजार वर्ग किलोमीटर भूमि चीन ने 1962 से कब्जाई है, उसे चीन का मान लेना चाहिए। यह एक प्रकार से समझौते के नाम पर या व्यापार के नाम पर सीधा भारतीय भूमि का समर्पण था।

यहां यह उल्लेखनीय है कि राम मनोहर लोहिया ‘मैकमोहन लाइन’ को भी अंग्रेजों के द्वारा खींची गई गलत रेखा मानते थे और इसे वास्तविक सीमा नहीं मानते थे। वे कहते थे कि, भारत और चीन के बीच सीमा रेखा ‘मैकमोहन लाइन’ के आगे तक है, जिसमें संपूर्ण हिमालय और उसके आगे तक की मानसरोवर सहित भारतीय भूमि है। इतिहास में इसके प्रमाण है।

लेकिन भारतीय सत्ताधीशों ने भारत की प्राचीन विभाजन रेखा को तो भुला ही दिया, यहां तक की तीन सौ साल के बाद अंग्रेजों के द्वारा उनकी सुविधा के लिए खींची गई ‘मैकमोहन लाइन’ को भी भुला दिया और ‘लाइन आफ कंट्रोल’ के नाम पर भारत की 1962 में कब्जाई जमीन को भी इस जुमले से चीनी स्वीकार करने की मनोस्थिति बनाना शुरू कर दिया। लेकिन चीन की विस्तारवादी और साम्राज्यवादी नीति रुकने वाली नहीं है।

आज बाजार की आर्थिक शक्तियों को मुनाफा कमाना और उनसे जन्मी राजसत्ताओं का उद्देश्य केवल सत्ता पाना है। पिछले दिनों कितना प्रचार किया गया कि भारत सरकार ने कई प्रतिबंध चीन पर लगाए है, उनके ऐप बंद किए हैं आदि। भारत के व्यापारिक संगठनों ने जोर-शोर से चीनी माल के बहिष्कार के विज्ञापन छपवाए, पर वस्तुस्थिति यह है कि भारत का चीन से आयात बढ़ रहा है और लगभग तीन गुना बढ़ कर साढ़े नौ लाख करोड़ रुपए का हो गया है। मतलब साफ है कि बहिष्कार के नारे केवल धोखे के लिए हैं। देश को सावधान होना चाहिए वरना तिजोरियां भरती जाएंगी, सत्ताधीश बने रहेंगे पर देश की सीमाएं सिकुड़ती जाएंगी।