जब जादूगर काम पर जुटा है तो कयासों के कारोबारियों को कंगाल ही होना था। राजग नेता बैठक से पहले कह रहे थे कि सर्वसम्मति से निर्णय होगा। और जब नाम सामने आता है तो विपक्षी एकता चारों खाने चित। अब जो भी रामनाथ कोविंद का विरोध करेगा, वह दलित विरोधी होगा। तो दलित विरोधी होने से बचने के लिए मीरा कुमार के अलावा विकल्प भी क्या था? विपक्षी एकता का प्रतीक था बिहार। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस से उम्मीद थी बसपा-सपा को मिलाने की, पर उसने परहेज किया। कांग्रेसमुक्त वाया विपक्षमुक्त भारत के लिए बिहार से बन रही विपक्षी एकता को तोड़ना जरूरी था। यह हुआ भी। कोविंद का नाम आते ही सबसे पहले पक्ष के पक्षकार बने नीतीश कुमार।
मोदी की केंद्र सरकार की अगुआई में दादरी से लेकर रोहित वेमुला और सहारनपुर जिनका औजार बन सकता था, वे मायावती कहती हैं कि हम रामनाथ कोविंद के नाम का विरोध नहीं करेंगे क्योंकि वे दलित हैं। अगर विपक्ष किसी और दलित का नाम लेकर सामने आता है तो फिर बात करेंगे। मायावती अपने सार्वजनिक बयान में स्वीकारती हैं कि कोविंद का रिश्ता भाजपा और संघ से रहा है, और इनकी राजनीति को वे समर्थन नहीं दे सकती हैं। लेकिन वे कोविंद की उम्मीदवारी को समर्थन देंगी क्योंकि वे दलित हैं, यह सत्य सामने रहने के बावजूद कि वे संघ की पसंद हैं। हालांकि उन्होंने दलित पहचान की अनिवार्य शर्त पर मीरा कुमार को समर्थन दिया।

मायावती खुद ही दलित पहचान की राजनीति करती आई हैं। और, इसी पहचान की राजनीति का असर है कि वे दलित शब्द पर आपत्ति नहीं कर सकती हैं। रोहित वेमुला से लेकर सहारनपुर तक के मुद्दे, जिन पर राजनीतिक लड़ाई तेज होनी थी, वहीं मायावती संघ से जुड़े नाम पर समर्पण करती हैं तो दलित पहचान के कारण। उनकी राजनीति ही व्यक्तिपरक हो गई है जिसमें दलितमुक्ति की सामूहिक चेतना के लिए जगह नहीं है।

रामनाथ कोविंद के नाम के सामने आते ही महागठबंधन अपनी-अपनी पहचान के साथ तितर-बितर हो गया था। नीतीश कुमार बिहार में कोविंद के राम-राज्य का गुणगान कर रहे थे। तर्क दिया गया कि बिहार के राज्यपाल के रूप में रामनाथ कोविंद ने सार्थक भूमिका निभाई, राजभवन को साजिश का अड्डा नहीं बनने दिया गया। लेकिन सवाल यह है कि बिहार का राजभवन साजिश का अड्डा बनता ही क्यों जब मुख्यमंत्री निवास केंद्र से दोस्ती गांठने में लगा था? शराबबंदी के साथ नोटबंदी वाली सामूहिक तान के साथ नीतीश यूपीए के भोज को ठुकरा राजग के साथ सहभोज कर चुके थे। सहयोगी लालू यादव के परिवार पर जब सीबीआइ से लेकर आयकर और न जाने किस-किस तरह के मामले अचानक सामने आए तो नीतीश कुमार ने पूरी तरह राजनिवास वाले राजधर्म का ही साथ दिया। जब केंद्र और राज्य के अगुआ एक-दूसरे की तारीफों के कसीदे पढ़ेंगे तो राज्यपाल क्यों इस शांतिकाल में बाधा बनेंगे?

राजग के उम्मीदवार की कयासबाजी में नाकाम लोग कोविंद की उम्मीदवारी के साथ ही कहने लगे कि महागठबंधन की उम्मीदवार तो मीरा कुमार ही होंगी। और इस कयास को सही ही होना था, क्योंकि पहचान के बरक्स खड़ी की गई दलित की पहचान महिला और बिहार के जोड़ के साथ। लालू यादव ने कुमार का नाम सामने आते ही कहा कि बिहार की बेटी का समर्थन करें नीतीश कुमार।

तो, कोविंद के नाम के साथ ही दलित कार्ड का हंगामा भी बरपा। लेकिन भारत की सियासत में यह कोई पहली बार तो नहीं हुआ है। ज्ञानी जैल सिंह हों या प्रतिभा पाटील, कभी महिला कार्ड तो कभी अल्पसंख्यक कार्ड। कुल मिलाकर मकसद है केंद्र सरकार के लिए ‘जी हुजूर’ वाला। लेकिन ज्ञानी जैल सिंह और प्रतिभा पाटील के पत्ते से यह पत्ता थोड़ा अलग है। सवाल हो सकता है कि अंतर क्या है और नया खतरा क्या है? जैल सिंह हो या प्रतिभा पाटील, ये व्यक्तिपरक व्यवस्था के नुमाइंदों की मुहर बनाए गए थे चाहे इंदिरा गांधी के लिए हो या सोनिया गांधी के लिए। इनकी निष्ठा व्यक्तिपरक थी। लेकिन जब प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री के बाद अब जब राष्टÑपति का पद भी संघ के निर्देश से हो तो जाहिर है कि निष्ठा भी बदलेगी। अब वह एक व्यक्ति के प्रति नहीं, एक संगठन के प्रति होगी जो फिलहाल ज्यादा बड़ा खतरा दिख रहा है।

जाति और धर्म के ऊपर ‘परिवार’ धर्म। सरकार की यही तैयारी है। तीन साल हो चुके हैं और दो साल बाद आपको चुनाव में उतरना है। धर्म और राष्टÑवाद की छतरी से निकल कर छात्रों से लेकर किसानों तक की बगावत सामने आ चुकी है। छंटनी और बेरोजगारी के कड़ाहे में कामगारों का असंतोष भी खौल रहा है। उत्तर प्रदेश में महाजीत के बाद भी रोमियो विरोधी दस्ते के अलावा आपके हाथ कुछ नहीं आया है। कश्मीर के बाद अब दार्जीलिंग में पत्थर बरसने लगे हैं। बेरोजगारी, छंटनी को ज्यादा दिनों तक दबाया नहीं जा सकता है। दिल्ली में केंद्र की नाक के नीचे भीम सेना दो बार अपना शक्ति प्रदर्शन कर चुकी है। सरकार की अभी की रणनीति देख यही लग रहा है कि 2019 में इन्हें कुछ ऐसे फैसले करने पड़ सकते हैं जिसके लिए आधी रात को भेजे आदेश पर मुहर लगाने की जरूरत पड़ सकती है।

मोदी सरकार को कड़े फैसले लेने में अभी तक राज्यसभा और संघीय ढांचा ही बाधा रहे हैं। और, इस संघीय ढांचे को लेकर संघ की अपनी एक अवधारणा है। संघीय ढांचे की रक्षा को लेकर संविधान पर भी सवाल उठ चुके हैं। पिछले तीन सालों में अलग-अलग हवनकुंडों में शपथ ले रहे जनप्रतिनिधियों के बीच शायद सबसे ज्यादा भुलाया जाना वाला शब्द संविधान ही है। यह बात कई बार सामने आ चुकी है कि आरक्षण और संविधान की समीक्षा चाहता है संघ।
संघ के राजमार्ग से राजनीति में आए मोदी जी की खासियत रही है कि जो मुद्दा उनकी हिंदुत्ववादी राजनीति में बाधक बनता है, उस मुद्दे को वह इतना मलिन कर देते हैं कि हाशिए को केंद्र में लाने की मांग करती वह आवाज खुद ही हाशिए पर कर दी जाती है। लोकसभा चुनावों के दौरान ‘सेकुलर’ शब्द को इस रूप में पेश किया गया कि इसने अपनी आभा खो दी और अब यह एक अप्रासंगिक शब्द बन गया है।

लोकतंत्र के बहुलतावाद के लिए धर्मनिपरपेक्षता एक मूल्य है। और, अगर आपने धर्मनिरपेक्षता को खारिज किया है तो मतलब आप बहुलतावाद की कब्र पर मिट्टी डाल चुके हैं। पहचान की राजनीति ने हाशिए पर पड़े समाज को एक-दूसरे से और दूर कर दिया। वर्गीय चेतना के खात्मे का यह भयावह नतीजा है कि दलितमुक्ति के सामूहिक स्वर का गला बैठ रहा है।
धर्मनिरपेक्षता के बाद अब दलितमुक्ति की सामूहिक चेतना को मलिन करने की बारी है। जब दलित घोषित रूप से राजनीति का एक पत्ता हो जाए तो दलित शब्द के साथ शोषण से मुक्ति का मूल्य मर जाता है। दलित तो सामूहिक मुक्ति का स्वर है। संघ जिस पहचान की राजनीति का विशेषज्ञ हो चुका है, वह सामूहिक मुक्ति की इस चेतना को व्यक्तिगत मुक्ति की चेतना में बदल चुका है। पहचान की राजनीति का सबसे बड़ा संकट यही है कि वह सामूहिक चेतना को कम कर सत्ता का हस्तांतरण करता है। अब सिर्फ एक नाम और उसकी एक पहचान है। यह आंबेडकर की सामूहिक चेतना नहीं है। यह सामूहिक मूल्य को व्यक्तिगत मूल्य में बदल देता है। आंबेडकर की सामूहिक चेतना वर्ण के बाद जाति और उपजातियों में बंट चुकी है।

तो पहचान की राजनीति अब इस मोड़ पर आ चुकी है कि कोविंद का विरोध करने वाला दलित विरोधी हो जाएगा और आपके पास मीरा कुमार के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाएगा। रामनाथ कोविंद को देश के अगुआ के उम्मीदवार के लिए सिर्फ इसलिए नहीं चुना गया कि वे किसी खास जाति में पैदा हुए हैं बल्कि इसलिए भी चुना गया कि उनकी पृष्ठभूमि संघ-भाजपा की राजनीति है। लेकिन मायावती या बहुत से अन्य दल सिर्फ इसलिए इस नाम का विरोध नहीं कर सकते हैं कि वे दलित जाति में पैदा हुए हैं। रामनाथ कोविंद जब किसी बड़े राजनैतिक या सामाजिक मसले पर मुहर लगा रहे होंगे तो उस समय उनके जेहन में आंबेडकर की चेतना होगी या संघ का संकल्प?
कोविंद और कुमार के इस टकराव ने राष्ट्रपति चुनाव को दिलचस्प तो बना दिया है। फिलहाल अंकशास्त्र कोविंद के पक्ष में भले दिख रहा हो लेकिन इससे उठे व्यक्तिगत बनाम सामूहिक मुक्ति के विमर्श का हासिल तो राजनीतिशास्त्र और समाजशास्त्र में दिखेगा ही।