इसके दायरे में शहरों में रहने वाले पचास फीसद और गांवों में रहने वाले पचहत्तर फीसद लोग हैं। इस कल्याणकारी योजना पर एक लाख चालीस हजार करोड़ रुपए सबसिडी के रूप में दिया जाता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ‘हमारी संस्कृति में किसी को भूखे पेट नहीं सोने देने की परंपरा है।’ न्यायमूर्ति एमआर शाह और हिमा कोहली की पीठ ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति तक भोजन पहुंचाना केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है। न्यायालय कोरोना महामारी के दौरान बंदी के चलते प्रवासी श्रमिकों की कठिनाइयों से संबंधित जनहित मामले पर सुनवाई कर रहा है। अदालत ने इस मामले का स्वत: संज्ञान लिया है।
इस संबंध में सरकार का दावा है कि पिछले आठ वर्षों में भारत में लोगों की प्रति व्यक्ति आमदनी बढ़ी है। यह वृद्धि औसतन 33.4 फीसद तक है। इसलिए प्रति व्यक्ति बड़ी आमदनी के चलते बड़ी संख्या में गरीब परिवार उच्च आयवर्ग के दायरे में आ गए हैं। सरकार को यह दलील इसलिए देनी पड़ी, क्योंकि न्यायालय ने कहा था कि 2011 की जनगणना के आंकड़ों तक इस योजना के लाभ को सीमित न रखा जाए। अन्य जरूरतमंदों को भी इसमें शामिल किया जाए।
केंद्र सरकार प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के अंतर्गत 2020 से गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहे परिवारों को प्रति व्यक्ति पांच किलो अनाज हर महीने निशुल्क दे रही है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत 81.35 करोड़ लाभार्थी हैं। कोरोना महामारी के दौरान जब काम-धंधे पूरी तरह बंद हो गए थे, तब रोज कुआं खोद कर प्यास बुझाने वाले लोगों के सामने भोजन का संकट गहरा गया था।
इसलिए भारत सरकार ने उन्हें राहत पहुंचाने के लिए पहले से मिल रहे सस्ते अनाज के अलावा पांच किलो मुफ्त अनाज और देने की पहल की थी, जो आज भी जारी है। हालांकि इस दौरान बंदी पूरी तरह खोल दी गई है। नतीजतन, शहरी और ग्रामीण अर्थव्यवस्थाएं पटरी पर लौटने लगी हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में प्राण फूंकने का काम धार्मिक पर्यटन ने पूरे देश में कर दिया है। ऐसे में अन्न योजना अनिश्चित आय वाले लोगों के लिए सोने में सुहागा है।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून पूरे देश में लागू है। इसके तहत देश भर के 81.35 करोड़ लोगों को दो रुपए किलो गेहूं और तीन रुपए किलो चावल मिलता है। सस्ते अनाज के इस अधिकार को इस कानून का उज्ज्वल पक्ष माना जाता है। मगर इतनी बड़ी संख्या में देश के लोग भूखे हैं, तो यह चिंता का विषय है कि आजादी के अमृत महोत्सव में भी यह भूख क्यों बनी हुई है।
इसलिए संदेह लाजिमी है कि नीतियां कुछ ऐसी जरूर हैं, जो बड़ी संख्या में लोगों को रोटी के हक से वंचित बनाए रख रही हैं। पूंजी और संसाधनों पर अधिकार चंद लोगों की मुट्ठी में सिमटता जा रहा है। इस लिहाज से भूख की समस्या का यह हल सम्मानजनक और स्थायी नहीं है। इस परिप्रेक्ष्य में अब देश के नीति-नियंताओं की कोशिश होनी चाहिए कि लोग श्रम से आजीविका कमाने के उपायों से खुद जुड़ें और आगे भूख सूचकांक का जब भी नया सर्वेक्षण आए तो उसमें भूखों की संख्या घटती दिखे? न्यायालय की यही चिंता है।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के तहत करीब सड़सठ फीसद आबादी को रियायती दर पर अनाज दिया जा रहा है। इसके दायरे में शहरों में रहने वाले पचास फीसद और गांवों में रहने वाले पचहत्तर फीसद लोग हैं। इस कल्याणकारी योजना पर एक लाख चालीस हजार करोड़ रुपए सबसिडी के रूप में दिया जाता है। लोगों तक इस अनाज को पहुंचाने के लिए पीडीएस की एक लाख इकसठ हजार 854 दुकानों पर ईपीओएस मशीनें लगाई गई हैं, जिससे अनाज की तौल सही हो। सही लोगों को इसका लाभ मिले, इसके लिए राशन कार्डों को आधार नंबर से भी जोड़ा गया है।
इसके बावजूद पूरे देश में यह वितरण प्रणाली संदिग्ध बनी हुई है। निशुल्क अनाज योजना के अंतर्गत एक हजार लाख टन से अधिक अनाज प्रतिमाह बांटा जा रहा है। अब तक इस योजना पर 3.40 लाख करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं। इसलिए पूंजीवाद के समर्थक अर्थशास्त्री और उद्योगपति इस योजना का विरोध कर रहे हैं। विश्व व्यापार संगठन की भी यही मंशा है। हालांकि ऐसा नहीं कि सरकार केवल गरीबों को अनाज में सबसिडी देती हो। उद्योगपतियों के भी हजारों करोड़ के कर हर साल माफ कर दिए जाते हैं। सरकारी कर्मचारियों और जनप्रतिनिधियों के न केवल वेतन, बल्कि सुविधाएं भी बढ़ा दी जाती हैं। इसलिए वंचितों को राहत देना आवश्यक है।
दरअसल, किसी भी देश की प्रतिबद्धता विश्वव्यापार से कहीं ज्यादा देश के गरीब और वंचित तबकों की खाद्य सुरक्षा के प्रति होती है। लिहाजा, जेनेवा में 2014 में आयोजित एक सौ साठ सदस्यों वाले डब्लूटीओ सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने समुचित व्यापार अनुबंध पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था। इस करार की सबसे महत्त्वपूर्ण शर्त थी कि संगठन का कोई भी सदस्य अपने देश में पैदा होने वाले खाद्य पदार्थों के मूल्य का दस फीसद से ज्यादा अनुदान खाद्य सुरक्षा पर नहीं दे सकता।
जबकि भारत के साथ विडंबना है कि खाद्य सुरक्षा कानून और मुफ्त अन्न योजना के तहत देश की सड़सठ फीसद आबादी खाद्य सुरक्षा के दायरे में है। इसके लिए बतौर सबसिडी जिस धनराशि की जरूरत पड़ती है, वह सकल फसल उत्पाद मूल्य के दस फीसद से कहीं ज्यादा बैठती है। इस लिहाज से प्रधानमंत्री ने करार पर हस्ताक्षर नहीं करके यह मंशा जता दी थी कि उनकी सरकार गरीबों के हक में है। इस कानून में गरीब गर्भवती महिलाओं, स्तनपान कराने वाली माताओं और बच्चों के लिए अलग से पौष्टिक आहार की व्यवस्था भी है।
सरकार को सबसे बड़ी चुनौती अनाज की खरीद और उसके उचित भंडारण की रहती है। अनाज ज्यादा खरीदा जाएगा तो उसके भंडारण की अतिरिक्त व्यवस्था करनी होती है, जो नहीं हो पा रही है। गोदामों में लाखों टन अनाज हर साल खराब हो जाता है। इस अनाज से एक साल तक दो करोड़ लोगों को भरपेट भोजन कराया जा सकता है। अनाज की यह बर्बादी भंडारों की कमी के बजाय अनाज भंडारण में बरती जा रहीं लापरवाहियों के चलते कहीं ज्यादा होती है।
देश में किसानों की मेहनत और जैविक तथा पारंपारिक खेती को बढ़ावा देने के उपायों के चलते कृषि पैदावार लगातार बढ़ रही है। अब तक हरियाणा और पंजाब ही गेहूं उत्पादन में अग्रणी प्रदेश माने जाते थे, लेकिन अब मध्यप्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में भी गेहूं की खूब पैदावार हो रही है। 2021-22 में उनतीस करोड़ टन अनाज की पैदावार हुई है, जिससे बढ़ती आबादी के अनुपात में खाद्यान्न मांग की आपूर्ति की जा सके। इसमें धान, गेहूं, मक्का, ज्वार, दालें, मोटे अनाज तथा तिलहन भी शामिल हैं।
साठ के दशक में हरित क्रांति की शुरुआत के साथ ही अनाज भंडारण की समस्या भी चिंताजनक रही है। एक स्थान पर बड़ी मात्रा में भंडारण और फिर उसका संरक्षण अपने आप में एक चुनौती भरा और बड़ी धनराशि से हासिल होने वाले लक्ष्य है। न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज की पूरे देश में एक साथ खरीद, भंडारण और फिर राज्यवार मांग के अनुसार वितरण का दायित्व भारतीय खाद्य निगम को है, जबकि भंडारों के निर्माण का काम केंद्रीय भंडार निगम संभालता है।
इसी तर्ज पर राज्य सरकारों के भी भंडार निगम हैं। विडंबना है कि आजादी के पचहत्तर साल बाद भी बढ़ते उत्पादन के अनुपात मे केंद्र और राज्य स्तर पर अनाज भंडारण के मुकम्मल इतंजाम नहीं हो पाए हैं। नतीजतन, हजारों टन खुले में रखा अनाज बेमौसम बारिश से सड़ जाता है, जबकि लाखों लोग रोटी की आस में भूखे पेट सो जाते हैं।