बच्चों को समाज और परिवार की साझी जिम्मेदारी समझने वाले हमारे देश में भी बाल यौन शोषण के आंकड़े डराने वाले हैं। यहां तक कि कोरोना काल की घर तक सिमट गई जिंदगी और जीवन की अनिश्चितता के दौर में भी देश में मासूमों के शोषण की कुत्सित सोच में बढ़ोतरी ही देखने को मिली। 2020 में अमेरिका में भी अधिकारियों को बाल शोषण सामग्री की रिकार्ड-तोड़ दो करोड़ सत्रह लाख रिपोर्टें मिलीं।
आभासी संसार में बिखरी अश्लील सामग्री बचपन को संकट में डाल रही है। बाल यौन शोषण की कुत्सित प्रवृत्ति को जन्म दे रही है। दुनिया भर में बाल यौन शोषण सामग्री का आसानी से आनलाइन उपलब्ध होना मासूमों के प्रति शोषण की सोच को बढ़ावा देने वाला अहम कारण बन गया है। यूनिवर्सिटी आफ साउथ वेल्स से जुड़े अपराध विज्ञान के प्रोफेसर माइकल साल्टर और डेलानी वुडलाक के मुताबिक तकनीकी तरक्की के चलते इंटरनेट और समार्ट गैजेट्स के प्रयोक्ताओं की संख्या तेजी से बढ़ी है। साथ ही, व्यावसायिक सोच के साथ विस्तार में जुटी इंटरनेट कंपनियों और सरकारों की लचर कार्रवाई के चलते बाल यौन शोषण सामग्री व्यापक रूप से आनलाइन उपलब्ध है। यह बाल यौन शोषण की बर्बर मानसिकता की पोषक बन रही है।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के ताजा आंकड़े बताते हैं कि देश भर में बच्चों के खिलाफ साइबर अपराध 2019 की तुलना में 2020 में चार सौ प्रतिशत से ज्यादा बढ़ गए हैं। वर्ष 2020 के इन आंकड़ों में बच्चों के विरुद्ध हुए आनलाइन अपराधों के सबसे ज्यादा 170 मामले उत्तर प्रदेश में दर्ज किए गए। कर्नाटक में 144 और महाराष्ट्र में 137 मामले दर्ज किए गए। साक्षरता के आंकड़ों में अव्वल केरल भी इस फेहरिस्त में शामिल है। यह कुत्सित प्रवृत्ति दुनिया भर में बढ़ रही है।
जर्मनी की केंद्रीय पुलिस के मुताबिक वहां बाल यौन शोषण की तस्वीरें देखने के इच्छुक लोगों की संख्या एक साल में दोगुनी हो गई है। 2020 में पुलिस को विभिन्न स्रोतों से बच्चों के यौन शोषण और उनके चित्रों के वितरण की पचपन हजार से ज्यादा सूचनाएं मिली थीं। बीते साल ऐसे मामलों में वहां तिरपन प्रतिशत वृद्धि हुई है। वैश्विक स्तर पर बच्चों के लिए मुसीबत बनी बाल पोर्न सामग्री डिजिटल दुनिया से माध्यम से बनाई और कई देशों में क्लिक भर में पहुंचाई भी जा रही है। इन्हीं दिनों बच्चों के अश्लील वीडियो बनाने और साझा करने के मामले में हमारे यहां भी सीबीआइ ने देश के चौदह राज्यों के सतहत्तर शहरों में छापेमारी की, जिससे चाइल्ड पोर्नोग्राफी का नेटवर्क सौ देशों तक फैले होने की जानकारी मिली है।
दरअसल, हर हाथ आए स्मार्ट फोन में झांकते रहने की आदत मनोवैज्ञानिक रूप से भी मानवीय विचार और व्यवहार को कई विकारों से जोड़ रही है। बच्चों को समाज और परिवार की साझी जिम्मेदारी समझने वाले हमारे देश में भी बाल यौन शोषण के आंकड़े डराने वाले हैं। यहां तक कि कोरोना काल की घर तक सिमट गई जिंदगी और जीवन की अनिश्चितता के दौर में भी देश में मासूमों के शोषण की कुत्सित सोच में बढ़ावा ही देखने को मिला। 2020 में अमेरिका में भी अधिकारियों को बाल शोषण सामग्री की रिकार्ड-तोड़ दो करोड़ सत्रह लाख रिपोर्टें मिलीं। वहीं आस्ट्रेलिया के इसेफ्टी आयुक्त के पास भी बाल शोषण सामग्री से जुड़ी अब तक की सर्वाधिक रिपोर्टें दर्ज की गई थीं।
इतना ही नहीं, आस्ट्रेलिया में बाल यौन शोषण अपराधों के लिए गिरफ्तारी और आरोपों में लगभग सत्तर फीसद की बढ़ोतरी हुई है। हमारे देश में भी इस दौरान बाल यौन शोषण सामग्री की सर्च में पंचानबे फीसद की वृद्धि देखी गई। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट बताती है कि भारत में साल भर में बच्चों के खिलाफ बाईस प्रतिशत यौन शोषण के मामले बढ़े हैं।
समझना मुश्किल नहीं है कि ऐसी सामग्री की उपलब्धता सीधे-सीधे बच्चों के लिए सुरक्षित परिवेश बनाने की जगह अवसर पाते ही शोषण करने की प्रवृत्ति पैदा कर रही है। ऐसे मामले भी सामने आ चुके हैं, जिनमें किशोरों ने भी आनलाइन सामग्री से दुष्प्रेरणा लेकर दूसरे बच्चों के साथ शारीरिक दुर्व्यवहार किया। बीते दिनों असम के नगांव जिले में हुई एक शर्मसार करने वाली घटना में तीन नाबालिगों ने मात्र छह साल की बच्ची को मोबाइल फोन पर पोर्न न देखने पर पीट-पीट कर मार डाला। इस वारदात के सभी आरोपियों की उम्र आठ से ग्यारह साल की है।
हाल के बरसों में विकृत मानसिकता और यौन शोषण के अपराधों को स्मार्ट फोन के जरिए मुठ्ठी में मौजूद कुत्सित समाग्री ने खूब बढ़ावा दिया है। अधिकतर मामलों का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष यह है कि ऐसी सामग्री देखने और बच्चों का शोषण करने वाले उनके परिचित ही होते हैं। तकनीकी घेरे और स्क्रीन की दुनिया में छाया यह खुलापन समाज के गरिमामयी ताने-बाने को बिखेरने में अहम भूमिका निभा रहा है। सोच और समझ के विचलन के इस दौर में अपने करीबी भी बच्चों को शिकार बनाने से नहीं चूक रहे।
आस्ट्रेलियन इंस्टीट्यूट आफ क्रिमिनोलाजी के ताजा विश्लेषण के मुताबिक उपचाराधीन अपराधियों में से पैंसठ फीसद तक अंतरंग साथी होते हैं। बाल यौन शोषण सामग्री का उपयोग करने वाले लोगों के परिवार के सदस्यों (गैर-आपराधिक) के लिए मदद और कानूनी सहायता की व्यवस्था करने वाले गैर-सरकारी संगठन पार्टनर स्पीक द्वारा किए गए अध्ययन में सामने आया है कि तिरासी प्रतिशत लोगों के जीवन में जिस व्यक्ति ने बाल शोषण सामग्री का उपयोग किया, वह कोई जानकार ही था।
इनमें से कई अपराधियों ने संबंधित सामग्री को देखा और अपराध को अंजाम दिया। इन अपराधों में बच्चों का यौन शोषण और सामग्री का उत्पादन और वितरण भी शामिल था। शोषक सोच का यह चक्रव्यूह बच्चों के शारीरिक शोषण की आपराधिक घटनाओं के लिए ही नहीं, मनोविकृति की पूरी संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए भी जिम्मेदार है। यही वजह है कि 2015 में सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बाद केंद्र ने साढ़े आठ सौ पोर्न साइटों पर प्रतिबंध लगाया था।
आम नागरिकों से लेकर समाज, सरकार और न्यायिक व्यवस्था तक सभी इस बात को जानते-समझते हैं कि बच्चों से जुड़ी अश्लील सामग्री ने बच्चों के शोषण के मामले बढ़ाए हैं। कुछ समय पहले राजस्थान में पोक्सो अदालत में पांच साल की बच्ची से दुष्कर्म के दोषी को फांसी की सजा सुनाते हुए न्यायाधीश ने इन वारदातों के पीछे नशे और पोर्नोग्राफी को बड़ा कारण बताया था। अभियुक्त के कुकृत्य को लेकर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की बात करते हुए उन्होंने कहा था कि इंटनरेट सुविधा और सर्वसुलभ मोबाइल फोन ऐसे अपराधों की बढ़ोतरी की अहम वजह बन गया है।
इंटरनेट पर छोटे बच्चों से वीभत्स तरीके से दर्शाए गए दृश्य युवाओं के मन-मस्तिष्क को विकृत कर रहे हैं। अफसोस कि सूचनाओं और संवाद के लिए बने साइबर संसार में वह परोसा जा रहा है, जो दुनिया भर में बच्चों के कामुक शोषण को बढ़ावा दे रहा है। इन्हें देख कर बच्चों के यौन शोषण की प्रवृत्ति तो बढ़ी ही है, इस सामग्री को बनाने के लिए भी बाल तस्करी, बच्चों में नशाखोरी की आदत डालना और डराने-धमकाने जैसे कई तरह के भयावह अपराध किए जा रहे हैं। यही वजह है कि शिक्षा, जागरूकता और कानूनी नियम कायदे भी इन पर लगाम नहीं लगा पा रहे हैं। डिजिटल दुनिया का यह अश्लील अंधेरा इंसानी सोच-समझ को ही लील रहा है।
महानगरों से लेकर दूर-दराज के गांवों तक विकृत मानसिकता को जन्म देने वाली यह अश्लील सामग्री अपनी जगह बना चुकी है। इंसानियत भरी सोच का हर पहलू हाशिए पर धकेल दिया गया है। तकनीक की पहुंच ने जागरूकता की जगह बच्चों का बचपन सहेजने की जद्दोजहद बढ़ा दी है। सोशल मीडिया मंचों पर ऐसे कई समूह सक्रिय हैं, जो बच्चों को गुमराह कर रहे हैं। जरूरी है कि इंटरनेट कंपनियां और सरकारें सख्ती के साथ इस पर लगाम लगाएं। साथ ही अभिभावक भी सजग रहते हुए बच्चों को आभासी दुनिया में बन रही शोषण और दिशाहीनता की स्थितियों से बचाएं।