बांग्लादेश के बंदारबान जिले के बौद्ध विहार के सत्तर साल के प्रमुख मोर शू यू के चाहने वालों ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि एक ऐसा शख्स, जिसकी किसी से अदावत नहीं थी उसे बर्बर ढंग से कुल्हाड़ियों से मार दिया जाएगा। मोर शू यू की हत्या के चंद रोज पहले राजशाही जिले के तानोर तहसील के सूफी प्रचारक शाहिदुल्ला को- जो किराने की दुकान भी चलाते थे- को उसी बर्बर ढंग से मारा गया था। शाहिदुल्ला की हत्या के चंद रोज पहले तंगाली जिले के हिंदू दर्जी निखिल जोर्डर भी उसी तरह हत्यारों की बर्बरता का शिकार हो गए।

फिलवक्त मोर शू यू की हत्या के लिए किसी ने जिम्मेदारी नहीं ली है, लेकिन इस बात के मद्देनजर कि बांग्लादेश में इन दिनों स्वतंत्रमना आवाजों को, असहमति रखने वाले स्वरों को या अल्पसंख्यक समुदाय के प्रतिनिधियों की हत्याओं का सिलसिला इस्लामी अतिवादी जिस तरह जारी रखे हुए हैं, उससे उनकी तरफ ही शक की सूई घूम रही है। इन अतिवादियों ने पच्चीस अप्रैल को बांग्लादेश की एकमात्र ‘गे’ पत्रिका ‘रूपबान’ के संपादक झुलहाज मन्नान और उनके दोस्त तनय मजूमदार को झुलहाज के घर में घुस कर उसकी मां के सामने कुल्हाड़ी से काट डाला था। उसके महज दो रोज पहले राजशाही विश्वविद्यालय के अंग्रेजी के प्रोफेसर रिजाउल करीम सिद्दीकी, जो धार्मिक स्वभाव के व्यक्ति थे, मगर चूंकि अपने करीबियों को संगीत सुनने के लिए प्रोत्साहित करते थे, इसलिए आईएस से संबंधित अतिवादियों के कहर का शिकार हुए थे। अप्रैल माह की शुरुआत में नाजिमुद्दीन समद नाम का छात्र कार्यकर्ता, जो अपने सेक्युलर विचारों को आॅनलाइन साझा करता था, उनकी कुल्हाड़ियों का शिकार हुआ था।

इस्लामी विचारों से असहमति रखने वाले ब्लागरों तथा अल्पसंख्यक समुदाय के प्रतिनिधियों की सुनियोजित हत्याओं के सिलसिले में इधर बीच तेजी आई दिखती है। अपने आप को सेक्युलर कहलाने वाली अवामी लीग की सरकार का रवैया ऐसी हत्याओं को लेकर बहुत ढुलमुल है, जिसके एक वरिष्ठ मंत्री ने ब्लागरों की हत्याओं के लिए एक तरह से उनके लेखन को ही जिम्मेवार ठहराया है और एक तरह से इन हत्यारों को शह दी है। याद रहे कि यों तो इस्लामी कट्टरपंथियों की तरफ से सेक्युलर आवाजों को दबाने के लिए निशाना बना कर की जा रही हत्याओं का सिलसिला काफी पुराना है। इसमें जबर्दस्त उछाल 1971 में बांग्लादेश मुक्तियुद्ध के दिनों में आया था, जब पाकिस्तानी सेना के साथ मिल कर अल बदर जैसे संगठनों के नाम से उन्होंने सुनियोजित हत्याओं को अंजाम दिया था।

बांग्लादेश के महान लेखक हुमायूं आजाद अपनी कलम व जुबान से इस्लामी कट्टरपंथियों की राजनीति और विचारधारा को बेपर्द करते थे। आज से बारह साल पहले उन पर इस्लामी आतंकियों ने तब हमला किया था (27 फरवरी 2004) जब वह ढाका के ‘एकुशे पुस्तक मेले’ से बाहर निकल रहे थे। वह बुरी तरह घायल हुए, मगर बचा लिये गए थे। बाद में अगस्त 2004 में जर्मनी में उनकी रहस्यमयी परिस्थितियों में मौत हुई, जहां वह अध्ययन के लिए गए थे। वर्ष 2015 में उसी एकुशे पुस्तक मेले के बाहर कट्टरपंथियों ने बांग्लादेशी-अमेरिकी लेखक व कार्यकर्ता अविजित रॉय तथा उनकी पत्नी पर हमला करके उसी रक्तरंजित इतिहास को दोहराया था। अविजित रॉय की मौके पर ही मौत हो गई। मुख्यत: बांग्ला भाषा में लिखने वाले अविजित की विज्ञान, दर्शन और भौतिकतावाद पर लिखी एक दर्जन से अधिक किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘आस्था के वायरस’ में उनका प्रमुख तर्क रहा है कि ‘आस्था आधारित आतंकवाद समाज पर कहर बरपा करेगा।’

इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में ऐसी हत्याओं में नया उछाल आया था जब इन इस्लामी कट्टरपंथियों ने निशानदेही से हत्याएं करके, सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर बम फेंक कर या एक साथ बांग्लादेश के सभी शहरों में बम विस्फोट आयोजित कर अपनी ताकत का परिचय दिया था। उन दिनों जब राष्ट्रपति शासन के दौरान नए चुनावों की तैयारियां चल रही थीं, सरकार ने जबर्दस्त राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए इस्लामी कट््टरपंथियों के खिलाफ मुहिम चलाई थी, उनके संगठनों पर पाबंदी कायम की थी, उनके सैकड़ों कार्यकर्ताओं को हिरासत में लिया था, कुछ को इंसानियत के खिलाफ अपराधों के लिए सजा-ए-मौत भी दी थी, तब कुछ समय तक इन हत्याओं में गिरावट देखी गई थी।

याद रहे तीन साल पहले मुक्तियुद्ध के युद्ध-अपराधियों को दंडित करने की मांग को लेकर वहां व्यापक जनांदोलन खड़ा हुआ था, जिसे शाहबाग आंदोलन का नाम दिया गया। इस आंदोलन के चलते इस्लामी कट्रपंथियों को नए सिरे से बचाव का पैंतरा अख्तियार करना पड़ा था, उसके बाद से ही निशानदेही लगा कर की जानेवाली हत्याएं नए सिरे से शुरू हुर्इं। शाहबाग आंदोलन के सेक्युलर तत्त्वों को डराने के लिए कट्टरपंथियों के हत्यारे दस्ते ने अहमद राजिब हैदर नामक ब्लॉगर को उसके घर के सामने मार डाला था। कट्टरपंथियों की निगाह में राजिब का सबसे बड़ा गुनाह यह था कि वह नास्तिक था। दरअसल, राजिब ब्लॉगरों के उस समूह का हिस्सा था जिसने एक तरह से शाहबाग आंदोलन को खड़ा करने में पहल की थी। राजिब हैदर पर हुए हमले के महज एक माह पहले आसिफ मोहिउद््दीन नामक एक और ब्लागर को अंसारुल्ला बंगाली टीम के अतिवादी दस्ते ने चाकुओं से गोद दिया था, जिसमें वह बच गए थे। राजिब की हत्या के तीन सप्ताह बाद सुनयुर रहमान नामक एक ब्लॉगर और ऑनलाइन एक्टिविस्ट जो ‘नास्तिक नबी’ नाम से मशहूर था उस पर भी चाकुओं से हमला हुआ था।

इस्लामी अतिवादियों द्वारा ‘हिट लिस्ट’ भी जारी की गई है। पिछले दो साल में ही वहां आठ नास्तिक ब्लॉगर मार दिए गए और अपने आप को सेक्युलर कहलाने वाली अवामी लीग सरकार इन आततायियों के खिलाफ सख्त कदम उठाएगी ऐसी कोई उम्मीद नहीं दिखती। इस पृष्ठभूमि में तीन ब्लागरों ने अपने नाम से एक बयान जारी किया है। अपने बयान में वे लिखते हैं कि किस तरह आज ‘शब्द हिरासत में हैं और हत्यारे खुल्लमखुल्ला घूम रहे हैं।’

याद रहे कि पिछले दिनों सीएनएन ने बांग्लादेश के इन ब्लॉगरों से संपर्क किया जिनकी खुद की जान खतरे में है और समूचे घटनाक्रम पर उनके विचार जानने चाहे। उसकी तरफ से कहा गया कि इसमें उनकी सुरक्षा होगी अगर वे अपने नाम से नहीं लिखते हैं, मगर इन तीनों ने अपने विचारों को अपने नाम से साझा करने पर जोर दिया क्योंकि उनका मानना था कि नाम गुप्त रखने से ‘अतिवादियों के हौसले बुलंद हो सकते हैं और वे हम लोगों पर अधिक हमले कर सकते हैं यह सोचते हुए कि उन्होंने कुछ हासिल किया है और हमें अपना नाम छिपाने के लिए मजबूर किया है और अगर वे हत्याओं का सिलसिला जारी रखेंगे तो ऐसा लेखन पूरी तरह बंद किया जा सकता है।’

‘बांग्लादेश ब्लागर्स ऐंड ऑनलाइन एक्टिविस्ट नेटवर्क’ के इमरान सरकार, जो गण जागरण मंच जैसे सेक्युलर आंदोलन के प्रवक्ता हैं, ने लिखा है कि ‘हत्यारे मुक्त चिंतन के रास्ते में एक के बाद एक बैरिकेड खड़े कर रहे हैं। फिलवक्त यह नहीं बताया जा सकता कि हत्याओं का यह सिलसिला कहां रुकेगा, अगली बार निशाने पर कौन होगा? मगर एक बात समझने की है कि स्वतंत्रमना आवाजों को खामोश करने के मामले में बांग्लादेश अकेला नहीं है। यह एक ऐसा वक्त है जब दक्षिण एशिया के इस हिस्से में बहुसंख्यकवादी ताकतें अपने-अपने इलाकों में कहीं धर्म तो कहीं समुदाय के नाम पर स्वतंत्रमना आवाजों को खामोश करने में लगी हैं।

पिछले दो साल के अंदर भारत में इस प्रवृत्ति का शिकार तीन शख्सियतें हुई हैं। हमने डॉ नरेंद्र दाभोलकर, कामरेड गोविंद पानसरे और प्रोफेसर कलबुर्गी को खोया है। गौरतलब है कि सिलसिला यहीं रुका नहीं है। कइयों को धमकियां मिली हैं। ऐसा समां बनाया जा रहा है कि कोई आवाज भी न उठाए, उनके फरमानों को चुपचाप कबूल कर ले। दक्षिण एशिया के महान शायर फैज अहमद फैज ने शायद ऐसे ही दौर को अपनी नज्म में बयान किया था- ‘निसार मैं तेरी गलियों पे ऐ वतन, के जहां/ चली है रस्म के कोई न सर उठा के चले…’

ध्यान रहे कि पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में भी स्वतंत्रमना ताकतें- लोग जो तर्क की बात करते हैं, न्याय, प्रगति व समावेशी समाज की बात करते हैं, वे भी कट्टरपंथ के निशाने पर हैं। ‘ईशनिंदा’ के नाम पर जेल में बंद आसियाबी का समर्थन करने पहुंचे पंजाब के तत्कालीन गवर्नर सलमान तासीर- जिन्होंने ईशनिंदा कानून का विरोध किया था और वहां के मंत्री शाहबाज बट्टी- इसी तरह इस्लामी अतिवादियों के हाथों मारे गए थे। वहां शिया मुसलमानों, अहमदी मुसलमानों पर भी हमले हो रहे हैं। कट्टरपंथी तत्त्व पोलियो का टीका लगाने में मुब्तिला कर्मचारियों को भी अपने हमले का निशाना बना रहे हैं।

अगर हम श्रीलंका को देखें तो वहां भी वातारकिया विजिथा थेरो जैसे विद्रोही बौद्ध भिक्खु, जिन्होंने बोण्डु बाला सेना जैसे बौद्ध उग्रवादी समूहों के निर्देशों को मानने से इनकार किया, उन पर हमले हुए हैं; उन्हें मरा हुआ मान कर छोड़ दिया गया। म्यांमा में रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने में विराथू जैसे बौद्ध संत- जिन्हें म्यांमा का ‘बिन लादेन’ कहा जाता है- ही आगे हैं। हमें इस बात पर अवश्य सोचना चाहिए कि क्या ऐसा समाज कभी वास्तविक तौर पर तरक्की के रास्ते पर आगे बढ़ सकता है जहां संदेह करने की, सवाल उठाने की, तर्क करने की, विचार करने की आजादी पर ताले लगे हों।