सिद्धायनी जैन
बड़ी कंपनियां भी ऐसी स्थिति में अपने कर्मचारियों की संख्या में कमी करने पर विवश हो जाती हैं। यानी महंगाई के साथ बेरोजगारी भी बढ़ने लगती है।दुनिया एक बार फिर आर्थिक मंदी का सामना कर सकती है। विश्व बैंक के समूह अध्यक्ष डेविड मालपास ने कहा है कि ‘अर्थव्यवस्था के मामले में वैश्विक उन्नति की रफ्तार कम हो रही है। अगर ऐसा ही रहा तो अधिकांश देशों को आर्थिक मंदी का सामना करना पड़ेगा। इसके दूरगामी प्रतिकूल परिणाम होंगे, जिसका सबसे बुरा असर विकासशील अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ेगा।’ विश्व व्यापार संगठन की मुखिया नगोजी ओकोंजो आइवियेला ने भी कहा है कि दुनिया तेजी से आर्थिक मंदी की ओर सरक रही है।
आर्थिक क्षेत्र से जुड़े दुनिया के शीर्ष संगठनों के पदाधिकारियों का डर बेबुनियाद नहीं हो सकता। दुनिया भर में केंद्रीय बैंक अपनी ब्याज दरें बढ़ाने लगे हैं। बड़े-बड़े प्रतिष्ठानों ने अपने उत्पादनों को सीमित कर दिया है। बाजार में खरीदारों का उत्साह मंद पड़ गया है। डालर के मुकाबले दुनिया भर की मुद्राएं हांफने लगी हैं। अमेरिका, चीन और यूरो मुद्रा वाले देशों को दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक ताकतों में गिना जाता है और इन देशों की अर्थव्यवस्थाओं में आर्थिक मंदी के आसार लगातार प्रबल होते जा रहे हैं। केवल रुपए की कीमतों पर प्रतिकूल असर नहीं पड़ रहा, पौंड, यूरो, युआन, येन भी थरथराते से दिखने लगे हैं। जो देश खाद्य पदार्थों और तेल का आयात करने पर विवश हैं, उनकी हालत भी मंदी की संभावनाओं को देखते हुए पतली होने लगी है।
दरअसल, लोगों की क्रयशक्ति अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा संबल होती है। खुली अर्थव्यवस्था ने इसीलिए उपभोक्तावाद को जम कर प्रोत्साहित किया है। लोगों में अपने सामर्थ्य से बढ़ कर चीजों को खरीदने की प्रवृत्ति बढ़ी है, क्योंकि आसान किश्तों पर महंगी चीजें दिलाने के लिए बाजार में आसान ऋण की सुविधा उपलब्ध है। मगर जब मंदी की आहट सुनाई देने लगती है तो ज्यादा से ज्यादा निवेश आकर्षित करने के लिए केंद्रीय बैंक अपनी ब्याज दरों को बढ़ा देते हैं। इससे ऋण महंगे होते हैं। उपभोक्ता पर किश्तों का भार बढ़ता है। बढ़ी हुई किश्तें जेब की सामर्थ्य को चुनौती देती प्रतीत होती हैं।
यही कारण है कि यूरोप के कई देशों में खरीदारी के प्रति लोगों का उत्साह उदासीनता में बदल गया है। अमेरिका इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। वहां महंगाई लगातार बढ़ रही है और लोगों की तनख्वाह में उसके अनुसार बढ़ोतरी नहीं हुई हैै। परिणाम यह हुआ कि लोगों ने महंगे उत्पाद खरीदने के बजाय अपने धन की बचत पर ध्यान देना शुरू कर दिया है। इससे स्थिति और बिगड़ी है, क्योंकि सहजता से बाजार में प्रवाहित होने वाला पैसा अब खामोशी से कहीं ठहरने लगा है। ब्याज दरें बढ़ने से व्यापारियों की मुश्किलें बढ़ गई हैं।
जब बाजार में कच्चे माल की कीमतें बढ़ती हैं, तो उत्पाद की कीमतों पर असर पड़ता है, उधर ढांचागत विकास के लिए लिए गए ऋण पर बढ़ी ब्याज दरों का भुगतान भी अंतत: करना तो उपभोक्ताओं को ही होता है। ऐसे में सारे यूरोप और अमेरिका में दाम आसमान पर चढ़ रहे हैं। ब्रिटेन सरकार ने हालात से निबटने के लिए करों की दरों में व्यापक कटौती करके जनता को राहत देने की घोषणा की है, लेकिन वह इससे होने वाले राजकोषीय घाटे की भरपाई का कोई तरीका अभी तक नहीं सोच सकी है। इस तरह सरकारी खजाने पर पड़ने वाला बुरा असर कल्याणकारी योजनाओं या विकास कार्यों पर प्रतिकूल असर डाल सकता है।
जब भी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं में सकल घरेलू उत्पाद की दर लगातार घटने लगती है, तो उस स्थिति को तकनीकी तौर पर आर्थिक मंदी कहा जाता है। यानी जब किसी देश की अर्थव्यवस्था बढ़ने के बजाय नीचे की ओर गतिशील होने लगे तो इसे आर्थिक मंदी का सूचक माना जाता है। जब आर्थिक मंदी बढ़ती है तो उपलब्ध मुद्रा का बाजार मूल्य लगातार कम होने लगता है, जबकि बाजार में उत्पाद और सेवाओं के दाम बढ़ने लगते हैं। बड़ी कंपनियां भी ऐसी स्थिति में अपने कर्मचारियों की संख्या में कमी करने पर विवश हो जाती हैं। यानी महंगाई के साथ बेरोजगारी भी बढ़ने लगती है। अनिश्चय की स्थिति निवेश और शेयर बाजार को भी प्रभावित करती है।
आजादी के बाद भारत सन 1958, 1966, 1973 और 1980 में आर्थिक मंदी का सामना कर चुका है। सन 1957-58 में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर न केवल कम हुई थी, बल्कि ऋणात्मक 1.2 हो गई थी। इसका कारण अप्रत्याशित रूप से बढ़े हुए आयात को माना गया। फिर 1965-66 में भयानक सूखा पड़ा, तो उसने भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी तोड़ दी। 1973 में अरब देशों के तेल उत्पादक संघ ‘ओपेक’ ने जब उन देशों को तेल का निर्यात करने से इनकार कर दिया था, जो योम किप्पूर युद्ध में इजराइल का साथ दे रहे थे, तो इसकी मार भारत पर भी पड़ी।
उस समय तेल की कीमतें चार सौ प्रतिशत तक बढ़ गर्इं। जीवन सचमुच बहुत मुश्किल हो गया, क्योंकि तेल की कीमतें इतनी बढ़ने का मतलब है महंगाई का बेतहाशा बढ़ना। महंगाई ने आम लोगों और अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी। 1980 में भी मध्य-पूर्व में बिगड़ी राजनीतिक और सामाजिक परिस्थियों के कारण दुनिया में तेल की कीमतें बढ़ीं और भारत के निर्यात में आठ फीसद तक की गिरावट दर्ज की गई। नतीजतन, सकल उत्पाद दर फिर ऋणात्मक हो गई। सन 2020 में तो कोरोना के कारण सारी दुनिया में ही व्यापार कंपकंपाने लगा था और अर्थव्यवस्था लड़खड़ाने लगी थी।
मगर आर्थिक मंदी का सबसे बुरा दौर दुनिया ने सन 1929 में देखा था। तब दुनिया के अधिकांश देशों में उत्पादन घट गया था, रोजगार के अवसरों में कमी आ गई थी, व्यापार तहस-नहस हो गया था। बड़ी संख्या में लोग गरीबी और भुखमरी का शिकार हुए थे। बड़े-बड़े उद्योगपति कर्ज में डूब गए थे। दरअसल, प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान जापान और अमेरिका में बड़े बड़े कारखाने खोले गए थे। उनमें उत्पादन होता रहा, जबकि युद्ध के बाद बाजार में उन उत्पादों की मांग कम हो गई। मांग से अधिक माल की उपलब्धता ने आर्थिक दिक्कतें पैदा कर दीं, क्योंकि तब उत्पादित वस्तुओं को बहुत सस्ता बेचना पड़ा। इस नुकसान की भरपाई करने के लिए उत्पादन को और बढ़ाया गया तो हालात और विकट हो गए। यही हाल कृषि क्षेत्र में भी हुआ। उधर युद्ध की अवधि में लिए गए कर्ज ने भी कई देशों की रीढ़ की हड्डी पर प्रहार किया।
आमतौर पर भारतीय समाज आर्थिक मंदी से कम प्रभावित होता है, क्योंकि हमारे स्वभाव में कठिन समय के लिए छोटी- छोटी बचत करना शामिल है। मगर पिछले कुछ दशकों में स्थिति बदली है। नीतियां छोटी बचत को प्रोत्साहित करने के स्थान पर बाजार में धन खर्च करने का समर्थन करती है। पैसा अब हाथ में आने के बजाय सीधा बैंकों में जाता है और घरेलू महिलाओं की बचत उस धन से होती है, जो किसी बहाने उनके हाथों तक पहुंच जाता है।
ऐसे में यह सवाल महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि अगर आर्थिक मंदी आई, तो परिवारों को छोटी बचत से मिलने वाले सहारे के अभाव में क्या हालत और दुरूह होंगे? जलवायु परिवर्तन के कारण यूरोप में पैदा हुई स्थितियां, कोरोना के कारण सारी दुनिया विशेष रूप से चीन के व्यापार पर पड़े असर, रूस और यूक्रेन के मध्य युद्ध जैसी स्थितियों ने तो इस आशंका को बढ़ाया ही है। भारत के नीति नियंता इस प्रयास में लगे हैं कि निवेशकों को आकर्षित कर सकें, ताकि आसन्न खतरे का सामना किया जा सके।