इस बार मौसम विभाग ने मानसून सामान्य रहने की भविष्यवाणी की है। पंद्रह-बीस दिन में पूरे देश में मानसून छा जाने का अनुमान है। मौजूदा जल संकट को देखते हुए इस बरसात में हमें वर्षा जल संग्रहण के विशेष प्रयास करने होंगे। ऐसे प्रयासों से ही हम जल संकट का समाधान निकाल सकते हैं। नीति आयोग की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि गांवों में चौरासी फीसद आबादी जलापूर्ति से वंचित है। स्थिति इतनी भयावह है कि उपलब्ध जल में भी सत्तर फीसद जल प्रदूषित है। वैश्विक जल गुणवत्ता सूचकांक में एक सौ बाईस देशों में भारत एक सौ बीसवें स्थान पर है। यह रिपोर्ट वर्ष 2015-16 और 2016-17 के आंकड़ों पर तैयार की गई है।
पिछले दिनों स्टेट यूनिवर्सिटी, न्यूयार्क ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि बोतलबंद पानी में हजारों सूक्ष्मदर्शी प्लास्टिक कण पाए जाते हैं, जो स्वास्थ्य के लिहाज से काफी हानिकारक हैं। इस अध्ययन में ग्यारह किस्मों की ढाई सौ बोतलों पर शोध किया गया। शोध के अनुसार बोतलबंद पानी में प्लास्टिक के अलावा पॉलीप्रोपलीन, पॉलीएथिलीन टेरेफथेलेट (पीईटी) और नायलॉन का संक्रमण भी पाया गया। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में रोजाना चार हजार बच्चे जल संक्रमित बीमारियों के कारण काल के गाल में समा जाते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इस दौर में बोतलबंद पानी का चलन लगातार बढ़ता जा रहा है। अकसर लोग सोचते हैं कि टंकी के पानी के मुकाबले बोतलबंद पानी ज्यादा साफ होता है। यही कारण है कि जिन स्थानों पर टंकी का साफ पानी उपलब्ध है, वहां भी लोग बोतलबंद पानी को महत्त्व दे रहे हैं। इसीलिए बोतलबंद पानी की विभिन्न कंपनियां भी लोगों की इस मानसिकता का फायदा उठाते हुए अपने व्यापारिक हित साध रही हैं।
इस दौर में पानी भी व्यापार की चीज बन गया है। इसी कारण विभिन्न तौर-तरीकों से पानी पर दबाव बढ़ता जा रहा है। दरअसल, कृषि की बढ़ती जरूरतों, खाद्यान उत्पादन, ऊर्जा उपभोग, प्रदूषण और जल प्रबंधन की कमजोरियों की वजह से स्वच्छ जल पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। ऐसी स्थिति में यदि पानी की बबार्दी नहीं रोकी गई तो यह समस्या विकराल रूप ले सकती है। भूजल स्तर घटने के कारण जल्दी ही भारत को भी गंभीर जल संकट का सामना करना पड़ेगा। कहा जा रहा है कि अगला महायुद्ध पानी को लेकर ही होगा, इसलिए पिछले कुछ समय से बुद्धिजीवियों द्वारा पानी को लेकर चिंता व्यक्त की जा रही है। यह चिंता वाजिब है क्योंकि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, गुजरात और तमिलनाडु सहित देश के अनेक भागों में भूजल स्तर बहुत नीचे चला गया है।
जब तक जल संकट सरकारों के लिए आम आदमी की चिंता नहीं बनेगा, तब तक इससे उबरने के बारे में सोचना दिवास्वप्न ही होगा। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि जल संकट की चिंता बुद्धिजीवियों की गोष्ठियों से निकल कर आम आदमी तक पहुंचे। यह तभी संभव हो पाएगा जब आम जनता के बीच इस विषय को लेकर युद्ध स्तर पर जागरूकता अभियान चलाया जाए। बुद्धिजीवियों द्वारा जब भी जल संकट की चर्चा की जाती है तो इस चर्चा में वर्षा जल के संग्रहण की सलाह दी जाती है। सरकार जन-जागरण अभियान के तहत सरकारी औपचारिकताओं को निभाने के लिए वर्षा जल संग्रहण के विज्ञापन भी छपाती है। लेकिन इस मामले में अभी तक नतीजा ढाक के तीन पात ही है। भारत में मात्र पंद्रह प्रतिशत जल का उपयोग होता है, शेष जल बेकार बह कर समुद्र में चला जाता है।
जल संग्रहण मामले में इजराइल जैसे देश ने, जहां वर्षा का औसत पच्चीस सेंटीमीटर से भी कम है, एक अनोखा उदाहरण पेश किया है। वहां जल की एक बूंद भी खराब नहीं जाती है। अतिविकसित जल प्रबंधन तकनीक के कारण वहां जल की कमी नहीं होती है। जल संकट से निपटने के लिए हमें भी अपने देश में ऐसा ही उदाहरण पेश करना होगा। वर्षा के जल को जितना हम जमीन के अंदर जाने देंगे, उतना ही हम जल संकट को दूर रखेंगे। इस विधि से मिट्टी का कटाव भी रुकेगा और हमारे देश को सूखे और अकाल का सामना भी नहीं करना पडेगा। एक आंकडेÞ के अनुसार, यदि हम देश के जमीनी क्षेत्रफल में से सिर्फ पांच फीसद क्षेत्र में होने वाली वर्षा के जल का संग्रहण कर सकें तो एक अरब लोगों को प्रतिव्यक्ति सौ लीटर पानी प्रतिदिन मिल सकता है। आज हालात यह हैं कि वर्षा का पचासी फीसद जल बरसाती नदियों के माध्यम से समुद्र में चला जाता है। निचले इलाकों में बाढ़ आ जाती है। यदि इस जल को जमीन के भीतर पहुंचा दिया जाए तो इससे एक ओर बाढ़ की समस्या काफी हद तक समाप्त हो जाएगी और भूजल स्तर भी बढ़ेगा।
जनसंख्या में हुई तीव्र वद्धि से हमारे देश में जल की खपत तेजी से बढ़ रही है। हालांकि सतही और भूमिगत- दोनों ही स्रोतों से जल का उपयोग किया जा रहा है, लेकिन भूमिगत जल पर हमारी निर्भरता कुछ अधिक ही है। भूमिगत जल की अत्यधिक निकासी से इसका स्तर लगातार नीचे खिसकता जा रहा है। गौरतलब है कि दुनिया के क्षेत्रफल का लगभग सत्तर फीसद भाग जल से भरा हुआ है, लेकिन पीने लायक मीठा जल सिर्फ तीन फीसद है। बाकी खारा जल है। इसमें से भी हम सिर्फ एक फीसद मीठे जल का उपयोग करते हैं। धरती पर उपलब्ध संपूर्ण जल, जल चक्र में चक्कर लगाता रहता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि औद्योगीकरण और जनसंख्या विस्फोट के कारण जहां एक ओर जल प्रदूषण बढ़ रहा है, वहीं दूसरी ओर जल चक्र भी बिगड़ता जा रहा है।
समस्या यह है कि जल संग्रहण के प्रति आम लोग जागरूक नहीं हैं। लेकिन कुछ स्थानों पर स्थानीय लोगों ने जल संग्रहण के सराहनीय प्रयास किए हैं, जो अनुकरणीय हैं। आज हमने भले ही विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कितनी भी तरक्की क्यों न कर ली हो, लेकिन मौजूदा जल संकट से निपटने के लिए आज भी हमें अपनी पुरानी तकनीक को ही अपनाना होगा। हम खुद भी अपने मकान की छत पर वर्षाजल को एकत्रित करके मकान के नीचे भूमिगत अथवा भूमि के ऊपर टैंक में जमा कर सकते हैं। प्रत्येक बारिश के मौसम में सौ वर्ग मीटर आकार की छत पर पैंसठ हजार लीटर वर्षा जल एकत्रित किया जा सकता है, जिससे चार सदस्यों वाले एक परिवार की पेयजल और घरेलू जल आवश्यकताएं कम से कम पांच महीने तक पूरी हो सकती हैं। भारत जैसे देश में जहां पानी का प्रमुख स्रोत बरसात ही है, वहां पर रेन वॉटर हार्वेस्टिंग या पानी को जमा करना बेहतर उपाय है।
जल को जीवन कहा गया है। प्राचीन काल में भी जल संरक्षण को महत्त्व दिया जाता था। बलूचिस्तान में ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में और सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेषों में जल संरक्षण के प्रमाण मिलते हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी वर्षा जल से सिंचाई की तकनीक विकसित होने के प्रमाण मिले हैं। अथर्ववेद में जल को दवा कहा गया है, जबकि श्रीस्कंदपुराण में जलाशय निर्माण करने वाले व्यक्ति को स्वर्ग में स्थान मिलने की बात कही गई है। बहरहाल, इस समय तो हमें अपने इस जीवन को नरक न बनने देने के प्रति प्रतिबद्ध होना पड़ेगा। यह तभी संभव हो सकता है जब हम अभी से युद्धस्तर पर जल संरक्षण के सामूहिक प्रयास करेंगे।