जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और अस्थिर मानव हस्तक्षेप ने पर्वतीय जलस्रोतों के अस्तित्व को डगमगा दिया है। संयुक्त राष्ट्र की विश्व जल विकास रपट-2025 गहरी चिंता जताती है कि धरती के वे पर्वत, जिन्हें अब तक केवल प्राकृतिक सौंदर्य के प्रतीक के रूप में देखा जाता था, वास्तव में हमारे जीवन के सबसे बड़े जल भंडार हैं और अब वे पिघल रहे हैं। रपट का पहला वाक्य ही चेतावनी बन कर उभरता है ‘पर्वतीय जलस्रोत, जो दुनिया के ताजे पानी का 60 फीसद तक उपलब्ध कराते हैं, हमारी आंखों के सामने पिघल रहे हैं।’ यह केवल एक वैज्ञानिक कथन नहीं, बल्कि उन करोड़ों लोगों के भविष्य का सवाल है, जिनकी आजीविका और अस्तित्व इसी जल पर निर्भर है।
संयुक्त राष्ट्र की यह रपट हमें उस सच से रूबरू कराती है, जो अक्सर नजरों से ओझल रहता है। विश्व की जल सुरक्षा, पारिस्थितिकी और खाद्य आपूर्ति का बड़ा हिस्सा उन ऊंचे इलाकों पर निर्भर है, जिन्हें हम आमतौर पर हिमालय या आल्प्स जैसे नामों से जानते हैं। इन्हीं को वैज्ञानिक अब ‘वाटर टावर्स’ कहते हैं। यानी ऐसे जलस्तंभ जो पृथ्वी को जीवन देते हैं। यह कोई रूपक नहीं, बल्कि ठोस वैज्ञानिक सच्चाई है। ऊंचाई पर जमा बर्फ और हिमनद केवल पहाड़ों की शोभा नहीं, बल्कि नदियों, झरनों और भूजल के रूप में जीवन की धारा बहाने वाले स्रोत हैं।
पर्वतों और हिमनदों का संरक्षण केवल हिमालयी राज्यों की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र की प्राथमिकता होनी चाहिए। यदि हमने समय रहते इस चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया, तो आने वाले दशकों में नदियों का प्रवाह और जीवन का संतुलन, दोनों अस्थिर हो जाएंगे। तब शायद हमारी आने वाली पीढ़ियां न तो बर्फ से ढकी चोटियों को वैसे देख पाएंगी, जैसे हम देखते हैं, और न ही उन नदियों का मीठा पानी पी पाएंगी, जिनसे हमारी सभ्यता ने जन्म लिया था। यह चेतावनी अब केवल वैज्ञानिक रपटों तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, बल्कि नीति, समाज और जनचेतना का हिस्सा बननी चाहिए, क्योंकि पहाड़ों का भविष्य ही हमारे जीवन का भविष्य है।
गंगा में गर्मियों में पानी कहां से आता है? IIT रुड़की ने बताई चौंकाने वाली बात
संयुक्त राष्ट्र की विश्व जल विकास रपट-2025 के अनुसार, वर्ष 2000 से 2021 के बीच विश्व में ताजे पानी की खपत में 14 फीसद की वृद्धि हुई है। कृषि क्षेत्र सबसे बड़ा उपभोक्ता बना हुआ है, जो कुल खपत का लगभग 72 फीसद पानी इस्तेमाल करता है। उद्योगों की हिस्सेदारी 15 फीसद और घरेलू उपयोग की 13 फीसद है। विकसित देशों में औद्योगिक खपत अपेक्षाकृत अधिक है, जबकि गरीब देशों में 90 फीसद तक पानी खेती के काम आता है। इस बढ़ती मांग के बीच असली चिंता यह है कि आपूर्ति के स्रोत सिकुड़ रहे हैं। आल्प्स, एंडीज, किलिमंजारो से लेकर हिमालय तक, लगभग हर प्रमुख पर्वतीय क्षेत्र के हिमनद पिघल रहे हैं।
एंडीज में अस्सी के दशक से अब तक 30 से 50 फीसद तक हिमनद घट चुके हैं। अफ्रीका के माउंट केन्या, रुवेनजोरी और किलिमंजारो पर 2040 तक बर्फ पूरी तरह समाप्त हो जाने की आशंका जताई गई है। हिंदूकुश-कराकोरम-हिमालय, जिसे ‘तीसरा ध्रुव’ कहा जाता है, वहां सदी के अंत तक बर्फ की मात्रा आधी रह जाने की संभावना है। यही वह क्षेत्र है जिससे गंगा, ब्रह्मपुत्र, सिंधु और सतलुज जैसी बड़ी नदियां जन्म लेती हैं और जो लगभग 1.65 अरब लोगों को पानी उपलब्ध कराती हैं। इन नदियों का प्रवाह अस्थिर हुआ, तो आधी से अधिक एशिया की जनसंख्या सीधे प्रभावित होगी।
पिघलती बर्फ बहता जीवन, क्या हम सुन रहे हैं विनाश की आहट? बड़ी त्रासदी है जलवायु परिवर्तन की चेतावनी
भारत के संदर्भ में यह संकट और भी गंभीर है। हिमालय में 9,500 से अधिक हिमनद हैं। वाडिया इंस्टीट्यूट आफ हिमालयन जियोलाजी और आइआइटी कानपुर के अध्ययन बताते हैं कि पिछले तीन दशकों में ये हिमनद सालाना 15 से 20 मीटर घट रहे हैं। गंगोत्री 1935 से अब तक लगभग तीन किलोमीटर पीछे हट चुकी है। विश्व जल विकास रपट-2025 चेतावनी देती है कि नदियों का प्रवाह कुछ वर्षों के लिए तो बढ़ सकता है, लेकिन दीर्घकाल में उसमें भारी कमी आएगी। यह स्थिति सिंचाई, पीने के पानी, जलविद्युत उत्पादन और नदी आधारित पारिस्थितिकी तंत्र सभी पर गहरा असर डालेगी।
हिमनदों के पिघलने के साथ एक नई चुनौती भी तेजी से बढ़ रही है। वह है झील फटने से आने वाली अचानक बाढ़। नेपाल, सिक्किम, अरुणाचल और लद्दाख जैसे क्षेत्रों में यह चिंता गंभीर रूप ले रही है। वर्ष 2023 में सिक्किम की दक्षिण लोनक झील फटने से आई बाढ़ ने कई गांवों और पनबिजली परियोजनाओं को तबाह कर दिया था। रपट में सुझाव दिया गया है कि इस तरह की आपदाओं की निगरानी, प्रारंभिक चेतावनी व्यवस्था और आपदा पूर्व तैयारी को पर्वतीय नीति का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाना चाहिए।
पर्वतीय जलस्रोतों में हो रहे परिवर्तनों का असर केवल पानी तक सीमित नहीं है। कृषि उत्पादन, खाद्य सुरक्षा, जलविद्युत परियोजनाएं, मत्स्य पालन, वनों का स्वास्थ्य और जैव विविधता, सब इनसे जुड़ी हैं। जब नदियों का प्रवाह असंतुलित होता है, तो कभी बहुत अधिक, कभी बहुत कम पानी की स्थिति बनती है, जिससे फसलें नष्ट होती हैं, मृदा कटाव बढ़ता है और जीविकोपार्जन पर प्रतिकूल असर पड़ता है। भारत के गंगा ब्रह्मपुत्र बेसिन में 40 फीसद से अधिक कृषि क्षेत्र है, जहां धान, गेहूं और गन्ने जैसी फसलें उगाई जाती हैं। हिमनदों में बदलाव से इन फसलों की उत्पादकता पर असर पड़ना तय है।
संयुक्त राष्ट्र की रपट यह भी रेखांकित करती है कि जल संकट से निपटने के लिए केवल तकनीकी समाधानों पर निर्भर रहना पर्याप्त नहीं होगा। स्थानीय और पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों को भी समान महत्त्व देना होगा। भारत के उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में ‘खाल’, ‘गुल’ और ‘कुल्ह’ जैसी पारंपरिक जलसिंचन व्यवस्था सदियों से पानी के संरक्षण और संतुलन का उदाहरण रही हैं। इसी तरह उत्तर-पूर्व के अरुणाचल प्रदेश में अपाटानी जनजाति की सीढ़ीदार खेती जल उपयोग की दक्षता का एक आदर्श माडल है। यदि इन पारंपरिक प्रणालियों को आधुनिक विज्ञान के साथ जोड़ा जाए, तो जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का सामना अधिक प्रभावी ढंग से किया जा सकता है।
भारत ने राष्ट्रीय जल नीति, ‘हिमालयन ग्लेशियर मानिटरिंग प्रोग्राम’ और जलवायु अनुकूलन योजनाओं में पर्वतीय जलस्रोतों के संरक्षण पर बल दिया है, लेकिन रपट का निष्कर्ष साफ है कि ये प्रयास अभी सीमित हैं और इन्हें अधिक व्यापक, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय सहयोग के स्तर पर विस्तारित करने की आवश्यकता है। ब्रह्मपुत्र और सिंधु बेसिन जैसे साझा जलस्रोतों के संदर्भ में भारत, नेपाल, भूटान, चीन और बांग्लादेश को डेटा साझा करने, संयुक्त निगरानी और साझा अनुकूलन रणनीतियों पर मिल कर काम करना होगा। यह केवल पर्यावरणीय मुद्दा नहीं, बल्कि क्षेत्रीय स्थिरता और शांति से जुड़ा हुआ प्रश्न भी है।
रपट इस पूरी चुनौती को सतत विकास लक्ष्य से जोड़ती है, जिसका उद्देश्य है- सभी के लिए जल और स्वच्छता की गारंटी। इसके लिए नीति-निर्माताओं को पर्याप्त डेटा, विश्लेषण और मार्गदर्शन की जरूरत है ताकि जल संसाधनों के संरक्षण और न्यायसंगत वितरण के लिए ठोस कदम उठाए जा सकें। रपट में कहा गया है- जो कुछ पहाड़ों में होता है, वह यहीं नहीं रुकता। उसका असर हम सब पर पड़ता है। भारत जैसे देश के लिए, जहां आधी से अधिक आबादी हिमालय और उसके जल पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निर्भर है, यह चेतावनी भविष्य की नीति और आज के निर्णय, दोनों को तय करने वाली होनी चाहिए।
