संयुक्त राष्ट्र के महिला संगठन की ताजा रपट बताती है कि दुनिया भर में आज भी बड़ी संख्या में लड़कियां प्राथमिक शिक्षा हासिल करने से कोसों दूर हैं। यह अत्यंत चिंताजनक है कि वर्ष 2015 में जहां शिक्षा से वंचित लड़कियों की संख्या 1.24 करोड़ थी, वहीं दस वर्ष बाद इसमें 26 लाख की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। प्राथमिक शिक्षा तक पहुंच का अभाव लड़कियों के माध्यमिक और उच्च शिक्षा के मार्ग को ही अवरुद्ध नहीं करता, बल्कि उन्हें शैक्षिक लाभों, समान अवसरों और सर्वांगीण विकास से भी दूर करता है। शिक्षा के सार्वभौमीकरण में लैंगिक विषमता ने बड़ी रुकावट पैदा की है। जिन लड़कियों को पढ़-लिख कर घर, समाज और देश में बदलाव का वाहक बनना था, उनका एक बड़ा हिस्सा घर की चौखट लांघ कर प्राथमिक विद्यालय तक भी नहीं पहुंच पा रहा है।

ऐसे परिदृश्य में वर्ष 2030 तक संयुक्त राष्ट्र का शिक्षा में व्याप्त लैंगिक असमानताओं को समाप्त करने तथा सतत विकास लक्ष्य (2015-30) के अंतर्गत समावेशी और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के प्रसार का लक्ष्य हासिल करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। शिक्षा के प्रति व्याप्त सामाजिक रुढ़ियां न केवल स्त्रियों को शिक्षा से वंचित कर रही हैं, बल्कि उनके अधिकारों और अवसरों को भी सीमित कर रही है। इसे विडंबना ही कहेंगे कि वैश्विक लक्ष्यों के निर्धारण के बावजूद शिक्षा में लैंगिक भेदभाव को समाप्त करने की दिशा में दुनिया की प्रगति संतोषजनक नहीं है।

भारतीय परिवारों में बालिकाओं की शिक्षा को लेकर भेदभाव अभी नहीं हुई खत्म

बालिकाओं को शिक्षा से जोड़ने के लिए भारत में भी ठोस प्रयासों की जरूरत है। पिछली जनगणना (2011) के आंकड़ों की मानें, तो देश में पुरुष और महिला साक्षरता के बीच बड़ी खाई है। पुरुषों की साक्षरता दर 82.14 फीसद के मुकाबले महिलाओं में यह आंकड़ा 65.46 फीसद है। इन दोनों समूहों के मध्य 17 फीसद का अंतर बताता है कि भारतीय परिवारों में बालिकाओं की शिक्षा को लेकर लैंगिक भेदभाव की मानसिकता अभी खत्म नहीं हुई है। शिक्षा मंत्रालय की ‘यू-डाइस प्लस’ की 2023-24 रपट भी इस अंतर और भेदभाव को उजागर करती है। रपट के अनुसार, देश के विद्यालयों में अध्ययनरत लड़कों की संख्या जहां 12.87 करोड़ है, वहीं लड़कियों की संख्या 11.93 करोड़ है। दोनों की उपस्थिति में 94 लाख का अंतर यह बताने के लिए काफी है कि लड़कियों की शिक्षा के प्रति समाज में अभी भी समान अवसर और जागरूकता की कमी बनी हुई है।

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लड़कों के मुकाबले लड़कियों की शिक्षा तक कम पहुंच के पीछे कई कारक उत्तरदायी रहे हैं, जिनका निराकरण किए बगैर शिक्षा क्षेत्र में लैंगिक समानता स्थापित नहीं की जा सकती है। शिक्षा एक मौलिक अधिकार है, जो बच्चों को सुरक्षित भविष्य बनाने की नींव प्रदान करता है। शिक्षा के प्रसार में किसी भी तरह का भेदभाव स्वीकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह भेदभाव न केवल लड़कियों को शिक्षण अवसरों तक पहुंचने से रोकता है, बल्कि उनके जीवन और भविष्य को भी प्रभावित करता है।

शिक्षा में बालिकाओं की हिस्सेदारी कम होने की एक बड़ी वजह समाज में व्याप्त गरीबी की समस्या भी है। गरीब परिवार अक्सर शिक्षा में निवेश करते समय लड़कों को प्राथमिकता देते हैं। पुरातन और पुरुष प्रधान सोच भी यही रही है कि बेटे ही भविष्य में घर की जिम्मेदारी उठाते हैं। आज भी कई घरों में लड़कियों को शिक्षा उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए नहीं, बल्कि अच्छे घरों में विवाह कराने के लिए दिलाई जाती है। इस परंपरागत सोच को बदले बिना बेटियों की शिक्षा सुनिश्चित नहीं की जा सकती। बाल विवाह भी लड़कियों की शिक्षा की दिशा में बड़ा बाधक साबित हुआ है। कम उम्र में विवाह न सिर्फ उनके अधिकारों का हनन करता है, बल्कि उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है। घरेलू जिम्मेदारियों के बोझ का असर पढ़ाई पर पड़ता है और इससे बचपन एवं भविष्य दोनों बर्बादी के मुहाने पर चले जाते हैं। प्राथमिक स्तर की शिक्षा के बाद हर वर्ष स्कूल में रहने से लड़कियों की अल्पायु में शादी होने की संभावना घट रही है। हालांकि दुनिया में बाल विवाह उन्मूलन की जो रफ्तार है, उसके हिसाब से इसे पूरी तरह समाप्त फिलहाल से पहले संभव नहीं है।

सरकारी विद्यालयों में आज भी बालिका शौचालय की उपलब्धता नहीं

हिंसा भी लड़कियों की शिक्षा में एक बड़ी बाधा है, जो उन्हें स्कूल जाने, प्रभावी ढंग से सीखने और अपनी शिक्षा पूरी करने की उनकी क्षमता को प्रभावित करती है। स्कूलों में शारीरिक दंड, यौन दुर्व्यवहार, अपमानजनक टिप्पणियां, मारपीट और साथियों या वयस्कों द्वारा मनोवैज्ञानिक तरीके से परेशान करना भी इसके आम स्वरूप हैं। स्कूलों में आधारभूत संरचना का अभाव भी शिक्षा में लैंगिक भेदभाव के कायम रहने के लिए जिम्मेदार है। ‘यू-डाइस प्लस’ की रपट के अनुसार, देश में तीन फीसद सरकारी विद्यालयों में आज भी बालिका शौचालय की उपलब्धता नहीं है। किसी भी देश के सर्वांगीण विकास का आकलन इस बात से भी किया जाता है कि वहां लड़कियों की शैक्षिक संस्थानों तक पहुंच कितनी सुलभ और प्रभावी है।

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शिक्षा लड़कियों के लिए आर्थिक अवसरों के दरवाजे खोलती है और उन्हें स्वावलंबी बनाती है। संयुक्त राष्ट्र के महिला संगठन का कहना है कि एक लड़की का स्कूल में बिताया गया प्रत्येक अतिरिक्त वर्ष वयस्क होने पर उसकी आय में बीस फीसद तक की वृद्धि कर सकता है। हमें इस कथन पर गंभीरता से गौर करना चाहिए कि ‘यदि एक पुरुष को शिक्षित करते हैं, तो आप एक व्यक्ति को शिक्षित करते हैं, लेकिन आप एक महिला को शिक्षित करते हैं तो एक पूरे परिवार को शिक्षित करते हैं।’ शिक्षा की उपलब्धता में लैंगिक भेदभाव को समाप्त करने के लिए परिवार स्तर पर ठोस प्रयत्न करने की आवश्यकता है। जब तक बेटे-बेटियों में भेदभाव को बंद नहीं किया जाएगा, लड़कियों के लिए शिक्षा की राह आसान नहीं होगी।

हालांकि, शिक्षा के सभी स्तरों पर लैंगिक अंतर को कम करने के लिए देश में संस्थागत प्रयास किए जा रहे हैं। कस्तूरबा गांधी बालिका आवासीय विद्यालय की स्थापना जहां प्रखंड स्तर पर की गई है, वहीं जिले में स्थापित नवोदय विद्यालयों में लड़कियों के लिए 25 फीसद सीटों के आरक्षण की व्यवस्था की गई है।

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राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में निहित कोष शिक्षा में व्याप्त लैंगिक विषमता को खत्म करने में मील का पत्थर साबित हो सकता है। इस कोष का इस्तेमाल समान शिक्षा की राह में विद्यमान भेदभावों को समाप्त करने के लिए किया जाना है। इस कोष के जरिए जिन क्षेत्रों में काम किया जाएगा, उनमें स्कूलों में लड़कियों की सौ फीसद भागीदारी सुनिश्चित करना, शिक्षा के सभी स्तरों पर शैक्षिक उपलब्धि में लैंगिक अंतर को कम करना, समाज में लैंगिक समानता के लिए वैचारिक बदलाव लाना, लड़कियों में नेतृत्व की क्षमता विकसित करना और नागरिक समाज के साथ संवाद में सुधार करना भी शामिल है। इसका उद्देश्य लैंगिक भेदभाव से मुक्त समाज का गठन करना है, जहां शिक्षा दिलाने और अवसरों की उपलब्धता के मामले में कोई भेदभाव न दिखाई दे। इसके लिए परिवार से लेकर सरकारी स्तर तक, सभी को संवेदनशील और गंभीर होने की जरूरत है।