युद्ध की विभीषिका में जब बारूद की गंध हवा में घुलती है, तब सबसे पहले खामोश हो जाती है किसी मां की लोरी, बेटी की हंसी और महिलाओं की सुरक्षा का भरोसा। यही वह क्षण है, जब यह सवाल सबसे गहरा लगता है कि शांति की राह में महिलाएं कहां हैं? संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतारेस की ओर से विश्व में संघर्षों को लेकर उठाया गया मसला महज औपचारिक चिंता नहीं, बल्कि उस सच्चाई का प्रतिरूप है जो दुनिया के हर कोने में महिलाओं के अनुभवों में दर्ज है।
उन्होंने चेतावनी दी है कि आज वैश्विक स्तर पर सैन्य खर्च बढ़ रहा है, सशस्त्र संघर्षों की संख्या पहले से अधिक है तथा इन सबके बीच महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा भयावह रूप ले चुकी है। संयुक्त राष्ट्र महिला एजंसी के अनुसार, इस समय लगभग 67.6 करोड़ महिलाएं घातक संघर्षों के पचास किलोमीटर के दायरे में रह रही हैं। यह संख्या वर्ष 1990 के दशक के बाद से सबसे अधिक है। यह आंकड़ा केवल एक सांख्यिकीय सूचना नहीं, बल्कि शांति के प्रयासों में हमारी सामूहिक विफलता का प्रमाण है।
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विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र की रपट बताती है कि जहां भी किसी देश ने शांति वार्ताओं में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की, वहां युद्धविराम औसतन पैंतीस फीसद अधिक समय तक कायम रहा। फिर भी आज केवल तेरह फीसद शांति समझौतों में ही महिलाओं की प्रत्यक्ष भूमिका दर्ज की जाती है। यह वैश्विक असंतुलन केवल राजनीतिक प्रतिनिधित्व का प्रश्न नहीं है, बल्कि मानवीय समझ के संकट का संकेत है। क्योंकि जहां महिलाएं निर्णय में अनुपस्थित होती हैं, वहां शांति भी अधूरी रह जाती है। महिलाएं युद्ध के दौरान केवल पीड़िता नहीं होतीं, वे जीवन, पुनर्निर्माण और सामंजस्य की वाहक होती हैं। लेकिन जब दुनिया के बड़े मंचों पर युद्ध और कूटनीति की बातें होती हैं, तब उनकी आवाज किसी कोने में दब जाती है। मानो यह दुनिया केवल हथियारों और सत्ता की भाषा ही समझती हो।
भारत के संदर्भ में यह सवाल और भी जटिल है। यहां नारी को देवी के रूप में पूजने की परंपरा रही है, लेकिन सत्ता, नीति और निर्णय लेने में उसकी भागीदारी आज भी सीमित है। पंचायतों में आरक्षण ने महिलाओं को जनप्रतिनिधित्व का अवसर दिया, लेकिन राष्ट्रीय नीति-निर्माण, सुरक्षा परिषदों और शांति वार्ताओं में उनकी संख्या नाममात्र की है। भारत की संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व आज भी केवल चौदह फीसद के आसपास है, जो वैश्विक औसत छब्बीस फीसद से काफी कम है।
यह तब है, जब भारत उन देशों में शामिल है जहां महिलाओं ने स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर सामाजिक सुधारों तक हर मोर्चे पर अग्रणी भूमिका निभाई है। झांसी की रानी, अरुणा आसफ अली, कस्तूरबा गांधी, सावित्रीबाई फुले, या आज की इरोम शर्मिला। इन सभी ने यह साबित किया कि महिला जब नेतृत्व करती है, तो संघर्ष भी करुणा में बदल सकता है। मगर आज भी निर्णय लेने वाले मंचों पर उनकी उपस्थिति अपवाद है, नियम या परंपरा नहीं।
दुनिया भर में शांति निर्माण की प्रक्रियाएं यह दर्शाती हैं कि जब महिलाएं किसी संघर्ष के समाधान में शामिल होती हैं, तो वे मुद्दों को केवल राजनीतिक दृष्टिकोण से ही नहीं, सामाजिक पुनर्गठन के स्तर पर भी देखती हैं। वे परिवार और समाज के उस ताने-बाने को समझती हैं, जो युद्ध की विभीषिका में टूट कर बिखर जाता है। उदाहरण के लिए-लाइबेरिया की शांति प्रक्रिया में महिलाओं के नेतृत्व ने वर्षों से चले आ रहे गृहयुद्ध का अंत किया। लेयमा गबोवी और उनकी साथियों ने शांति के लिए ऐसा आंदोलन चलाया, जिसने पूरी दुनिया को दिखाया कि बिना हथियारों के भी युद्ध समाप्त हो सकता है।
बोस्निया, कोलंबिया और फिलीपींस में भी महिला मध्यस्थों ने शांति समझौतों को स्थायित्व दिया। इसके बावजूद वैश्विक स्तर पर वर्ष 2023 तक किसी भी बड़ी अंतरराष्ट्रीय वार्ता में महिलाओं की भागीदारी पंद्रह फीसद से आगे नहीं बढ़ पाई। यह स्थिति केवल लैंगिक असमानता नहीं, बल्कि सामूहिक विवेक की विफलता है। संयुक्त राष्ट्र महिला एजंसी के ताजा आंकड़े बताते हैं कि आज दुनिया में हर दस में से एक महिला किसी न किसी प्रकार की हिंसा से प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित है। युद्धग्रस्त क्षेत्रों में यह अनुपात और भयावह है। सीरिया, सूडान, यूक्रेन, गाजा, कांगो जैसे क्षेत्रों में महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा को हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है।
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हर संघर्ष के बाद जब इतिहास ‘शांति’ के नाम पर समझौते लिखता है, तब वह उन लाखों महिलाओं की पीड़ा को दरकिनार कर देता है, जिनके शरीर और मन पर युद्ध के घाव दर्ज होते हैं। और जब पुनर्निर्माण का दौर आता है, तो वही महिलाएं घरों, बच्चों, समाज और भविष्य को फिर से जोड़ने का काम करती हैं। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि जिनके कंधों पर पुनर्निर्माण का भार है, उन्हें निर्णय के मंच पर स्थान ही नहीं मिल पाता। भारत की सामाजिक वास्तविकता भी किसी संघर्ष क्षेत्र से कम नहीं। यहां हिंसा के स्वरूप बदल गए हैं। कभी घरेलू हिंसा, कभी झूठी शान के लिए हिंसा, कभी कार्यस्थलों पर शोषण तो कभी राजनीतिक बहिष्कार। समाज के भीतर जो असमानता पलती है, वह धीरे-धीरे उस बड़े संघर्ष में बदल जाती है, जो किसी सीमा या धर्म से बंधा नहीं होता। ऐसे में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ अधिकार नहीं, बल्कि सामाजिक स्थायित्व की शर्त बन जाती है।
जब कोई महिला पंचायत में निर्णय लेती है, तो वह किसी सामाजिक आंदोलन का नेतृत्व करती है। जब वह न्याय की मांग के लिए सड़कों पर उतरती है, तो केवल अपने अधिकारों की बात नहीं करती, बल्कि वह समाज की दिशा तय करती है। शांति का अर्थ केवल युद्धविराम नहीं है, बल्कि यह भय से मुक्ति, न्याय की उपस्थिति और समानता का अनुभव है। लेकिन शांति की इस परिभाषा को गढ़ने का अवसर अब भी पुरुष-प्रधान व्यवस्था ने अपने पास रखा है। जब तक शांति को ‘सुरक्षा नीति’ और ‘सैन्य रणनीति’ के दायरे में सीमित रखा जाएगा, तब तक यह अधूरी ही रहेगी। क्योंकि वास्तविक शांति केवल हथियार डाल देने से नहीं आती, वह तब आती है जब समाज की चेतना हिंसा के विचार को अस्वीकार कर देती है। और यह चेतना महिलाओं के भीतर जन्मजात होती है। वे जानती हैं कि युद्ध की कीमत सिर्फ सैनिकों की जान नहीं, बल्कि पीढ़ियों का भविष्य चुकाता है। भारत को भी इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए।
आज जब हम ‘नारी शक्ति वंदन’ की बातें करते हैं, तो हमें यह भी देखना होगा कि क्या हमारे नीति-निर्माण, कूटनीति और सुरक्षा मंचों पर महिलाओं की आवाज सचमुच सुनी जा रही है। क्या शांति, विकास और न्याय के विमर्शों में महिलाओं की राय को शामिल किया जा रहा है? यह प्रश्न केवल लैंगिक समानता से जुड़ा नही है, बल्कि मानवीय स्थायित्व का है। शांति की सबसे गहरी परिभाषा वही महिला लिखती है, जोे सब कुछ खोकर भी जीवन से उम्मीद नहीं छोड़ती है। जब वह राख के बीच से आशा की नई किरण खोजती है, तो वही मानवता का पुनर्जन्म होता है। इसलिए, दुनिया अगर सचमुच शांति चाहती है, तो उसे महिलाओं को दर्शक नहीं, सहभागी बनाना होगा। क्योंकि अंतत: शांति किसी संधि पर लिखे गए शब्दों से नहीं आती, वह एक महिला के हृदय से निकलती है, जो बारूद की गंध के बीच भी जीवन की खुशबू तलाश लेती है।
