भारत तरक्की कर रहा है, आंकड़ों से अर्शशास्त्री यही बताते हैं। निस्संदेह भारत दुनिया की बड़ी आर्थिक महाशक्ति है। उम्मीद जताई जा रही है कि आने वाले समय में देश तीसरी आर्थिक महाशक्ति बन जाएगा और 2047 में जब आजादी का शताब्दी वर्ष मनाएंगे, तब हम पूरी तरह से एक विकसित राष्ट्र होंगे। उस समय हर आदमी यथोचित रोजगार के साथ अच्छा भोजन करेगा, अच्छा पहनेगा और खुशहाली के शिखर पर होगा। यह है सपना।

ऐसा अगर लोग स्वाधीनता का अमृत महोत्सव के बाद भी सोचते हैं, तो कारणों की तलाश करनी पड़ेगी। पिछले दिनों कहा गया कि हम देश से बेरोजगारी मिटा देंगे। बेरोजगारी की भूख अनुकंपा के सस्ते राशन से मिटा दी जाएगी। मगर युवा पीढ़ी जो इस देश की आधी आबादी है, वह काम चाहती है। यह कड़वी सच्चाई है कि बड़ी संख्या में युवा आज भी बेरोजगार हैं।

नए सर्वेक्षणों ने बताया है कि इस कृषि प्रधान देश में ग्रामीण बेरोजगारी की दर बढ़ने लगी है। ग्रामीण इलाकों में आज भी बेरोजगारी बहुत बड़ी समस्या है। क्या मनरेगा का बदला रूप ‘वीबी-जी राम जी’ इस चुनौती का मुकाबला कर पाएगा, यह कहना मुश्किल है, क्योंकि गांवों में योजना का नया कलेवर नहीं, काम चाहिए।

देश में नागरिकों को काम के उचित अवसर मिलें

अब जरूरत है कि देश में नागरिकों को काम के उचित अवसर मिलें। यूपीए सरकार के समय सबसे अच्छी योजना मनरेगा को ही बताया जाता था। यह फरवरी 2006 में लागू हुई थी। इसमें आवेदन करने पर पंद्रह दिन के अंदर रोजगार देना अनिवार्य होता था। आंकड़े बताते हैं कि इस पर अब तक 11.74 लाख करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। वर्ष 2014 से राजग सरकार के कार्यकाल में भी इस पर 7.8 लाख करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। हालांकि इसमें केवल सौ दिन का काम दिया जाता है। कई बार तो मजदूरों को औसत पचास दिन ही काम मिला। फिर भी मनरेगा वर्ष 2014 से अब तक आठ करोड़ लोगों को ही रोजगार दे पाई।

अब केंद्र सरकार ने संसद में नया ग्रामीण रोजगार विधेयक पारित किया है। ग्रामीणों को रोजगार के लिए 20 साल के बाद योजना को एक नया कलेवर दिया गया है। इसकी शुरुआत नाम बदलने से हुई। इस योजना का नया नाम है- विकसित भारत-जी राम जी। जबकि इससे पहले इसे महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना कहा जाता था।

कुल जमा ये कि नई योजना ने रूप बदला है। पहले सौ दिन काम मिलता था, लेकिन अब 125 दिन काम मिलेगा, लेकिन दिहाड़ी वही रहेगी। पहले इस योजना पर सौ फीसद पैसा केंद्र सरकार खर्च करती थी। अब इसमें 60 फीसद योगदान केंद्र देगा। जबकि 40 फीसद राज्य सरकारें देंगी। पहले इस योजना में आवेदन करने पर 15 दिन के भीतर काम मिलता था। मगर अब काम न मिलने पर राज्य सरकार बेरोजगारी भत्ता देगी। मनरेगा ग्रामीण गरीबी दूर करने के लिए था। फिलहाल ‘वीबी-जी राम जी’ को विकसित भारत का हिस्सा बना कर देखा जा रहा है।

नई योजना की डिजिटल निगरानी होगी

नई योजना की डिजिटल निगरानी होगी। ग्रामीण रोजगार गारंटी परिषदें बनेंगीं। संचालन समितियां बनेंगी। ग्राम पंचायत स्तर पर बनने वाली योजनाओं को ‘पीएम-विकास गतिशक्ति’ से जोड़ देंगे। अब सवाल है कि इस परिवर्तन की जरूरत क्यों पड़ी? संसद में विधेयक पारित भी हो गया है। इससे पहले इस पर सत्तापक्ष और विपक्ष की जम कर बहस हुई।

सत्तापक्ष का कहना था कि मनरेगा दिशाहीन था और इसमें ऐसा था कि पहले गड्ढे खोदो, फिर उन्हें भर दो। मुख्य उद्देश्य था गरीब परिवार के एक सदस्य को सौ दिन काम देकर मेहनताना देना। अब यह नई योजना दिशाहीन नहीं रहेगी, क्योंकि सरकार का मत है कि गांवों में परिवर्तन आ गया है। भुखमरी कम हो गई है, ग्रामीण बेरोजगारी इतनी बड़ी चुनौती नहीं रही। मगर सच से कैसे इनकार किया जा सकता है? चुनौती तो अब भी है!

सरकार का यह भी कहना है कि ग्रामीण भारत की सामाजिक और आर्थिक संरचना बदल रही है। वहां डिजिटल भुगतान पहुंच गया है। बैंक पहुंच गए हैं। बेहतर संपर्क है, लेकिन मनरेगा में फर्जीवाड़ा हो रहा था। योजना की राशि का दुरुपयोग हो रहा था। यह भी कहा जा रहा है कि पंजाब जैसे राज्यों में इतनी कम दिहाड़ी पर मजदूर काम करने के लिए राजी नहीं। इसलिए वहां फर्जी आंकड़ों से भुगतान हो रहे हैं।

2024-25 में मनरेगा में 194 करोड़ रुपये का घपला हुआ?

विशेषज्ञ कहते हैं कि वर्ष 2024-25 में इस योजना में 194 करोड़ रुपये का घपला हुआ और केवल 7.6 फीसद ग्रामीण परिवार ही सौ दिन का रोजगार पा सके, लेकिन अब माहौल बदल जाएगा। फर्जीवाड़ा रुकेगा। अब यह चुस्त-दुरुस्त और नए कलेवर वाली योजना बनेगी, जिस पर बाकायदा काम होगा। श्रम बल को राष्ट्र निर्माण से जोड़ा जाएगा। यह यथार्थवादी योजना होगी। जब गांवों में फसल बिजाई और फसल कटाई का भरपूर आंशिक योगदान मिलने की परिस्थितियां पैदा हो जाती हैं, तो यह योजना समांतर रोजगार देना स्थगित कर देगी। बाद में लक्ष्यबद्ध तरीके से कार्यबल का इस्तेमाल किया जाएगा जो ग्रामीण जीवन का कायाकल्प कर देगा।

दूसरी ओर विपक्ष के अपने तर्क हैं कि क्या यही नया कलेवर मनरेगा को नहीं दिया जा सकता था? क्या उसे निश्चित उद्देश्यों के साथ लक्ष्यबद्ध नहीं किया जा सकता था। फिर जरूरी तो यह था कि महंगाई की दर देखते हुए कार्यबल के पारिश्रमिक में वृद्धि कर दी जाती। वृद्धि तो की नहीं, केवल काम के 25 दिन बढ़ा दिए।

मनरेगा: बिहार-बंगाल में भारी दुरुपयोग हुआ?

राज्य सरकारें तो पहले ही अपने खाली खजाने का रोना रो रही हैं। उनका यह कहना है कि ग्रामीण विकास कोष से लेकर जीएसटी तक में से उन्हें उनका उचित भुगतान नहीं मिलता। मुआवजा नहीं मिलता। अब उन पर इस योजना के योगदान का 40 फीसद भार भी डाल दिया गया है। राज्य सरकारें तो अधिक आर्थिक सहायता की उम्मीद केंद्र से कर रही थीं, लेकिन यहां एक और दायित्व उन पर आ गया कि अगर ग्रामीण विकास को तेजी देनी है, तो आगे बढ़ो और केंद्र सरकार के साथ योगदान करो। यह भी कहा गया कि पंजाब ही नहीं, बल्कि बंगाल में भी इस कोष का भारी दुरुपयोग हुआ। इसलिए नया विधेयक लाया गया।

यह योजना क्या काम करेगी, इसे स्पष्ट किया गया है। यह मूलभूत बुनियादी ढांचा बनाएगी। आजीविका के लिए पूंजी का निर्माण करेगी और प्रदूषण से निपटने का कार्य करेगी। यह निराशाजनक है कि इस पर गंभीर चर्चा नहीं हुई। इसका नाम बदलने पर ही बहस होती रही। शेक्सपियर ने कहा था कि नाम में क्या रखा है! मगर अब तो लगता है कि नाम में ही सब कुछ रखा है। सच तो यही है कि साम, दाम, दंड, भेद के साथ अपना नाम रोशन करने की यह जिद है। बड़ी-बड़ी घोषणाएं कर इसे उत्सव की तरह मनाया जाता है। सत्ता की यह नई संस्कृति बनती जा रही है।

ग्रामीण रोजगार संबंधी इस योजना को सार्थक बनाना है, तो उसके लिए आर्थिक आबंटन भी बढ़ना चाहिए। नई योजना में केंद्र सरकार ने आर्थिक आबंटन तो बढ़ाया नहीं, अलबत्ता राज्य सरकारों पर बोझ जरूर डाल दिया गया है। अब जिस प्रकार संवादहीनता गैर-भाजपा सरकारों और केंद्र के बीच चलती है, या जहां ‘डबल इंजन’ सरकारें नहीं हैं, वहां इस नई योजना का भविष्य क्या होगा, यह विचारणीय है। क्या योजना का नाम बदलने भर से सार्थकता साबित होगी?

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