धरती का एक पेड़ कटता है, तो न जाने कितने पंछी इधर से उधर हो जाते हैं। एक पेड़ के कटने का मतलब है धरती की एक बड़ी छाया लुप्त हो गई। एक पेड़ काटने का मतलब है पर्यावरण का बड़ा नुकसान। एक पेड़ के कटने का मतलब है, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना। मगर दुर्भाग्य की बात है कि विकास के नाम पर वर्षों से लगे हरे-भरे पेड़ काट दिए जाते हैं। कुछ पेड़ तो सदियों पुराने होते हैं। विकास से किसे इनकार होगा, लेकिन पर्यावरण-प्रेमी समझ नहीं पाते कि यह विकास की कैसी इमारत है, जो विनाश की नींव पर खड़ी हो रही है।
पिछले दिनों चर्चित एक वृद्ध महिला के वीडियो में दिखा कि वह एक कटे हुए पेड़ के ठूंठ को पकड़कर फूट-फूट कर रो रही है। सबको लगा कि वह कोई औरत नहीं, बल्कि साक्षात धरती मां है, जो अपने बच्चों की नादानी पर रो रही है। वह सिवा रोने के और कर भी क्या सकती थी। निर्ममता के साथ पेड़ों को काटने की नादानी भारत जैसे देश में लगातार हो रही है। कमोबेश विश्व में भी यही दुखद स्थिति बनती चली जा रही है। इसीलिए वैश्विक ताप की नौबत आ गई है। इस मुद्दे को लेकर बड़े-बड़े राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सेमिनार हो रहे हैं।
फिर भी पेड़ों के कटने की रफ्तार कम नहीं हो रही। विकास से किसे इनकार होगा? जो भी व्यक्ति प्रगतिशील दुनिया की अपेक्षा करता है, उसका हिस्सा बनना चाहता है, वह कभी विकास विरोधी नहीं हो सकता। बल्कि वह पर्यावरण का बेहतर और संवेदनशील प्रेमी हो सकता है, जो विकास और पर्यावरण, दोनों के बीच जरूरी संतुलन के बारे में सोचता है।
कभी पर्यावरण संरक्षण की खूब बातें होती थीं। उत्तराखंड के ‘चिपको आंदोलन’ ने पूरे देश में जागरण का वातावरण बनाया था। आज भी उत्तराखंड में जागरूक लोग पेड़ों को बचाने की कोशिश में लगे रहते हैं। देश के अन्य हिस्सों में भी लोग अपने स्तर पर प्रयास कर रहे है। सवाल है कि क्या ऐसे लोग विकास की इच्छा नहीं रखते। जहां अफसरशाही राजनीति के सिर पर सवार हो जाती है, वहां विनाश ही नजर आने लगता है।
ज्यादातर मामलों में यह स्पष्ट रूप से देखा गया है कि पेड़ों की कटाई या पहाड़ों की खुदाई के पीछे उच्चश्रेणी के कथित अफसरों का बड़ा हाथ होता है। ये अफसर वातानुकूलित दफ्तरों में बैठकर पर्यावरण की चिंता तो करते हैं, मगर बाद में अजीबोगरीब निर्णय लेकर पर्यावरण का सत्यानाश करने पर तुल जाते हैं। उन्हें इससे कोई मतलब नहीं कि पर्यावरण का जो नुकसान होगा, उसकी भरपाई कैसे होगी। आज पूरे देश का ऋतु चक्र गड़बड़ाया हुआ है।
दुर्भाग्य की बात है कि वर्षों से यह खेल चल रहा है। पेड़ों की निरंतर कटाई हो रही है। पहाड़ों की निरंतर खुदाई हो रही है। विकास के नाम पर कुछ चौड़ी सड़कें बन रही हैं। कुछ कारखाने स्थापित हो रहे हैं, लेकिन इसके एवज में जो बड़ा नुकसान हो रहा है, वह पता नहीं क्यों, किसी को दिख नहीं रहा। यह हरी-भरी उपजाऊ धरती पेड़ों से जितनी भरपूर रहेगी, उतना ही पर्यावरण स्वस्थ रहेगा। पर्यावरण का संतुलन बना रहेगा।
पेड़, नदी, पहाड़- ये सभी पर्यावरण का संतुलन कायम करते हैं। पेड़ कट रहे हैं और नदियां प्रदूषित हो रही हैं। पहाड़ की छाती पर हथौड़े चल रहे हैं, जिसके कारण प्रकृति की आत्मा आहत हो रही है। यह बुनियादी बात है, लेकिन इसे समझने वाले लोग कम होते जा रहे हैं। यही कारण है कि बिना किसी झिझक या हिचक के, एक नहीं, सैकड़ों, और हजारों पेड़ काट दिए जाते हैं। यह देख कर धरती चीत्कार उठती है, लेकिन उसके आर्तनाद को सुनने वाले कहीं और मस्त रहते हैं।
जिन्हें इस धरती की चिंता है, वे बेचारे चीखते रह जाते हैं। मुट्ठी भर लोग आंदोलन करते हैं। डंडे खाते हैं, और हताश होकर बैठ जाते हैं। पर्यावरण के विनाश के विरुद्ध आवाज उठती रहती है, लेकिन वे आवाजें नक्कारखाने की तूती की तरह होती है। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। ये आवाजें उठती हैं और धीरे-धीरे खामोश हो जाती हैं।
पता नहीं, कब हमारी पूरी व्यवस्था उस वृद्ध महिला की तरह कटे हुए पेड़ की पीड़ा को महसूस करेगी। कब हमारा समाज यह सोचेगा कि एक पेड़ को कटना एक जीव की हत्या है। एक पेड़ को काटना अपने ही शरीर को नुकसान पहुंचाना है, असंख्य पंछियों के घोंसलों को विनष्ट करना है। ऐसे अनेक पेड़ जब कटते हैं, तो पंछियों का करुण-क्रंदन वातावरण में गूंजता हुआ सहसा किसी शोकगीत में तब्दील हो जाता है। वह गीत हम भले ही समझ नहीं पाते, लेकिन खग जाने खग ही की भाषा।
सारे पंछी उस वेदना को महसूस करते हैं और आपस में शायद बतियाते भी हों कि इस भरी दुनिया में एक पेड़ ही तो था उनका आशियाना… ठीया… जहां दिन भर उड़ान भरने के बाद वे गोधूलि बेला में लौट कर विश्राम करते थे। अक्सर दिन में भी पेड़ों में रहकर उनसे बतियाते हैं… चहचहाते हैं। पंछियों का सुमधुर कलरव कानों को सुकून देता है। यह चहचहाहट हमें बताती है कि पर्यावरण जिंदा है। लेकिन इस भावना को समझ पाना सबके बस की बात नहीं है।
इसके लिए एक बड़ा संवेदनशील हृदय चाहिए। जो शायद इस समय के अनेक लोगों के पास नहीं है। खासकर उन लोगों के पास, जो तथाकथित रूप से समाज के भाग्यविधाता बने बैठे हैं। कटे हुए पेड़ों से बिछड़े पंछी शोक गीत गाते हैं और कुछ लोग शायद उसे मधुर संगीत समझ कर मगन हो जाते हों। क्या पता..!
