जीवन में चिंता उस दिन शुरू हो जाती है, जिस दिन हम होश संभालते हैं। लेकिन आज की स्थितियां कुछ अलग दिखने लगी हैं। अब तो बच्चा दो-तीन वर्षों में ही स्कूल जाने लगता है। मां-पिता से लेकर बच्चा, तीनों को ही चिंता होनी शुरू हो जाती है, क्योंकि तब बच्चे के स्कूल की पढ़ाई और गृहकार्यों से लेकर उसे स्कूल में क्या पहनकर जाना है, क्या खाना है, सभी चीजों पर चिंता दिलोदिमाग पर बैठने लगती है। आजकल के अभिभावक पहले जैसे नहीं रह गए हैं। पहले कोई बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता था कि बच्चा किस स्कूल में जाएगा या फिर उस स्कूल का ‘स्टेटस सिंबल’ या ‘ऊंची हैसियत का प्रतीक’ भी कुछ है या नहीं। अब तो बच्चा पैदा होने के साथ ही माता-पिता की चिंता शुरू हो जाती है। शुरुआत से लेकर आगे तक के स्कूलों के चुनाव को लेकर ‘स्टेटस सिंबल’ का मानस काम करता है। इसी के साथ शुरू हो जाता है खर्चो का सिलसिला।

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जब किसी को अपने और घर के खर्चे के साथ बच्चे को एक महंगे स्कूल में पढ़ाना है, तो चिंता स्वाभाविक है। इसके बाद अपने रहन-सहन से लेकर हर वह चीज, जो हमारी शानो-शौकत को दिखाती है, उसमें खर्चों की कोई गिनती नहीं रह जाती। मगर क्या हम गौर कर पाते हैं कि हैसियत के दिखावे की यह भूख हमें ऐसी जगह ले जा रही है, जहां एक समय आने पर हम चिंता के अंधकार में फंस जाते हैं और हमारा मन अशांत रहने लगता है। आजकल हमने देखा होगा कि कई लोग बहुत कम उम्र में ही या तो हृदय रोग या फिर किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त हो जाते हैं। ऐसा क्यों है, यह हमें पता है। गलत खानपान और रहन-सहन के अलावा दिन प्रति दिन लोगों की होड़ सबको चिंता में जकड़ देती है। इससे कम आयु में ही हृदयाघात और गंभीर बीमारी हमारा पीछा करने लगती है और हमें पता भी नहीं चलता कि हम कब इनकी गिरफ्त में आ गए।

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आजकल सोशल मीडिया के रूप में एक और चलन हर तरफ पसरा हुआ दिखाई देता है। यों तो सोशल मीडिया पर सक्रिय तमाम लोग लीन दिखते हैं, लेकिन आखिर यह भी चिंता का कारण क्यों बन रहा है। दरअसल, सोशल मीडिया के अलग-अलग मंचों पर सक्रिय रहने के चक्कर में लोग अपना ढेर सारा वक्त और कई बार गेम खेलते हुए बहुत सारे पैसे गंवा देते हैं। जिन्हें इसकी लत लग जाती है, उन्हें बहुत कुछ खो देने के बावजूद चैन नहीं पड़ता है। इसमें सक्रिय रहने के लिए यह चिंता खाए जाती है कि फलां के पास सब कुछ है, लेकिन मेरे पास कुछ नहीं… उसकी किस्मत कितनी अच्छी है और मेरी फूटी किस्मत। नकारात्मकता दिलोदिमाग में इस कदर बैठ जाती है कि हम अपना जीवन सिर्फ सोशल मीडिया को ही समझने लगते हैं। जब अभिभावक ही इस बात को नहीं समझेंगे, तो बच्चे क्या समझेंगे।

बच्चे इसकी गिरफ्त में फंस चुके हैं। माता-पिता की इच्छा को ध्यान में रखते हुए उनके भीतर दूसरे से आगे बढ़ने की भूख है। स्कूली पढ़ाई में नंबर भी अच्छे लाने है, डाक्टर या इंजीनियर ही बनना है। यह सब तो उनके ऊपर बोझ है ही। साथ ही उन्हें सोशल मीडिया पर भी सक्रिय रहना है। यह बेहद चिंताजनक विषय है। बच्चे इसका और भी गलत इस्तेमाल करते हैं। आए दिन हम सुनते-पढ़ते हैं कि बच्चे गेम देख या खेल कर और आपत्तिजनक सामग्री देखकर किस तरह का बर्ताव करते हैं। पढ़ाई और गेम में जीतने की भावना उन्हें अंदर ही अंदर चिंताग्रस्त बनाए रखती है। उनका बचपन तो अब मानो खो ही गया है।

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अगर जीवन को सही ढंग से जीना है और हम चाहते हैं कि हमारा परिवार खुशहाल जीवन व्यतीत करें, तो सबसे पहले लोगों की भेड़चाल में शामिल होने से बचना होगा। समझ लेना चाहिए कि चिंता एक चिता एक समान है और इससे जितना दूर रहा जाए, उतना ही अच्छा है। यह नहीं सोचने की जरूरत है कि कल क्या होगा। बल्कि आज को कैसे जिएं, इसके बारे में सोचना चाहिए। सबसे पहले सोचना छोड़ देना चाहिए कि कोई क्या कहेगा। मसलन, ‘स्टेटस सिंबल’ के सवाल को दिलोदिमाग से निकाल देने की जरूरत है, क्योंकि इसी के कारण हमारा अपने खर्चों पर कोई काबू नहीं है।

अपने बच्चों को एक महंगे स्कूल में पढ़ाना या फिर सोशल मीडिया पर बिल्कुल अद्यतन रहना ही सब कुछ नहीं होता है। जरूरी है कि चिंता किए बिना जीवन जीने की कला को सीखा जाए, जिससे हमारा मन भी प्रसन्न रहेगा और हमारा परिवार एक खुशहाल जीवन व्यतीत कर सकेगा। हमने यह पंक्ति खूब पढ़ी होगी कि चिंता छोड़ो, सुख से जियो। इसका मूल उद्देश्य है कि जीवन को इस तरह चिंता में न डुबोकर रखा जाए कि अपना जीवन ही व्यर्थ चला जाए। वर्तमान में जीवन जीने की कला होनी चाहिए, कल किसने देखा है।

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दरअसल, दिखावा इंसान को अंदर तक चिंता में डुबो देता है। एक साधारण खानपान, व्यायाम और परिवार के साथ हर दिन खुशी-खुशी बिताना हमें सभी चिंताओं से दूर रखता है। यहां एक बात को समझना होगा कि हम अपनी आधी चिंता का अंत तुरंत कर सकते हैं, बशर्ते कि हम एक तरह का निजी स्वर्णिम पैमाना विकसित कर लें कि हमारे जीवन के संदर्भ में चीजों का मूल्य क्या है।

चिंता हमें समाप्त कर दें, उससे पहले हम चिंता से खत्म होने से खुद को बचा लें। ‘कितनी अजीब है जीवन की यात्रा’ में स्टीफन लीकाक ने लिखा है कि बच्चा कहता है, मैं जब बड़ा हो जाऊंगा… बड़ा होने पर कहता है, जब मेरी शादी हो जाएगी… शादी हो जाती है, तो वह पीछे मुड़कर अपनी जीवन यात्रा को देखता है और उसे ठंडी हवा से सिहरन होती है। न जाने कैसे उसने सब गंवा दिया और जीवन पीछे छूट गया। बहुत देर बाद समझ आता है कि जिंदगी हर पल जीने के लिए होती है, इसलिए हमें चिंता छोड़कर हर पल को जीना होता है।