यह आश्चर्यजनक है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है, फिर भी यहां लोगों की थाली में जो दाल रहती है, वह जरूरी नहीं कि स्वदेशी ही हो। संभावना है कि वह किसी दूसरे देश से अच्छे-खासे दामों में आयात की गई हो। इससे खुदरा बाजार में हम महंगी दाल खरीदने के लिए विवश हो जाते हैं। दूसरी तरफ, इससे देश को राजस्व का नुकसान भी झेलना पड़ता है। एक आंकड़े के मुताबिक, बीते वर्ष इकतीस करोड़ से अधिक कीमत की दाल आयात की गई है। देश का दलहन आयात विगत छह वर्षों में बढ़ कर चौरासी फीसद तक जा पहुंचा है।

देश में कुल खपत की लगभग चौदह फीसद दाल विदेश से आयात की जाती है। म्यांमा, मोजांबिक, तंजानिया, आस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे देशों से मुख्य रूप से दालों का आयात किया जाता है। यह स्थिति तब है, जब भारत दुनिया के प्रमुख दाल उत्पादक देशों में शामिल रहा है। हमारे यहां दाल की खपत विश्व की कुल खपत का करीब सत्ताई फीसद है। देश के कुल खाद्यान्न उत्पादन में दलहनी फसलों की हिस्सेदारी लगभग बीस फीसद तक है। चालू वित्तीय वर्ष में देश में सड़सठ लाख टन विभिन्न दालों का आयात किया गया, जो अब तक का सर्वाधिक है और इसमें पीली मटर की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा इकतीस फीसद तक है।

विशेषज्ञों का अनुमान है कि वर्ष 2025 के अंत तक पीली मटर का आयात 20.4 लाख टन तक पहुंच जाएगा, जबकि 2024 में यह 11.6 लाख टन था। पीली मटर के अलावा चना, मसूर, उड़द और अरहर दाल के आयात में तेजी से उछाल देखा गया है। अगर हम विश्व की कुल दलहन उत्पादकता की बात करें, तो भारत के बाद म्यांमा, कनाडा, चीन, आस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका में दाल की सर्वाधिक पैदावार होती है। पिछले वर्ष कनाडा साठ लाख सत्तर हजार मीट्रिक टन दाल उत्पादन के साथ विश्व का एक प्रमुख दाल उत्पादक देश बन कर उभरा, जबकि एक दशक पूर्व उसका उत्पादन बीस लाख मीट्रिक टन से भी कम था। कनाडा की यह वृद्धि दालों की बढ़ती वैश्विक मांग की पूर्ति से होने वाली कमाई और टिकाऊ कृषि पद्धतियों को अपनाने के परिणामस्वरूप हुई है।

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दूसरे देशों में दालों के बढ़ते रकबे पर एक रोचक तथ्य यह है कि वर्ष 1970 के दशक के मध्य में भारत ने आस्ट्रेलिया को कुल 400 ग्राम दलहनी फसलों का बीज दिया था और अगले एक दशक में वहां नब्बे लाख हेक्टेयर जमीन में दलहन की खेती की जाने लगी। आज स्थिति यह है कि हम आस्ट्रेलिया से स्वयं दाल आयात करने लगे हैं।

हालांकि, केंद्र सरकार किसानों को दलहन सहित अन्य खाद्यान्नों का उचित मूल्य दिलाने के लिए कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की सहायता से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की घोषणा करती है। इसके तहत प्रयास होता है कि फसल उत्पादन की लागत से कम से कम डेढ़ गुना से अधिक दाम किसानों को मिले। मूंग, उड़द, मसूर, अरहर और चना की फसलें भी उन तेईस फसलों में शामिल हैं, जो एमएसपी के तहत आती हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य का चलन वर्ष 1966 से है। शुरुआत में यह सिर्फ गेहूं और धान के लिए था, मगर बाद में इसमें कई अन्य फसलों को भी शामिल किया गया।

देश में दलहनी फसलों का रकबा बढ़ाने के लिए केंद्र सरकार वर्ष 2007 से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन योजना चला रही थी, जिसे 2024-2025 में बदल कर राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा एवं पोषण मिशन कर दिया गया है। इस योजना के तहत उच्च उत्पादन वाली उन्नत प्रजातियों का इस्तेमाल, उन्नत विधियों का प्रदर्शन, एकीकृत पोषक तत्त्व, कीट एवं रोग प्रबंधन और उन्नत कृषि यंत्रों को प्रचलन में लाकर प्रगतिशील खेती करने के लिए अनेक कृषि उपकरणों पर अलग-अलग राज्यों द्वारा कमोबेश पचास फीसद या उससे अधिक सबसिडी प्रदान की जाती है। इस योजना के तहत फसल के दौरान प्रशिक्षण के माध्यम से किसानों की क्षमता निर्माण समेत अन्य आवश्यक पहलुओं पर भी काम किया जाता है।

इन सबसे इतर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद समेत अन्य अनुसंधान संस्थान सभी दलहनी फसलों पर अनवरत शोध एवं विकास कर रहे हैं। विगत दस वर्षों में दलहनी फसलों की व्यावसायिक खेती के निमित्त 343 उच्च उपज वाली विभिन्न किस्मों और हाइब्रिड किस्मों को आधिकारिक तौर पर मान्यता दी गई है। गुणवत्तापूर्ण दलहन के बीजों की उपलब्धता बढ़ाने के लिए 150 बीज केंद्रों की स्थापना की गई है।

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दलहनी फसलों को बढ़ावा देने के सरकार के अनेक प्रयासों के बावजूद अगर दलहन का आयात बढ़ता जा रहा है, तो इसका मुख्य कारण किसानों का इन फसलों को अपनाने के लिए आगे न आना, जागरूकता के अभाव में नवाचारों को न अपनाना तथा जंगली जानवरों द्वारा फसलों को नष्ट कर देना है। एक और बड़ा कारण देश के अनेक हिस्सों में दलहनी फसलों का सिर्फ वर्षा आधारित खेती पर निर्भर होना है। हाल के वर्षों में जलवायु परिवर्तन के कारण अनियमित वर्षा एवं सूखा आम बात हो गई है, इससे मूंग, उड़द, काला चना और अरहर दाल जैसी फसलें सिमटती जा रही हैं, जो कुल दलहनी फसलों का लगभग चालीस फीसद तक है।

एक सर्वे के मुताबिक, देश में दाल के लिए सालाना बोए जाने वाले ढाई करोड़ हेक्टेयर क्षेत्रफल में से लगभग पंद्रह फीसद ही सिंचित क्षेत्र है, जबकि इसके ठीक उलट गेहूं और गन्ना के लिए 90-95 फीसद तक सिंचित क्षेत्रफल है। प्राय: देखने में आता है कि अब अगर किसानों को सिंचाई की सुविधा भी मुहैया होती है, तो भी वे दलहनी फसलों से मुंह मोड़ रहे हैं। जबकि दलहनी फसलें अपने अद्वितीय गुणों के कारण अन्य सभी फसलों से बिल्कुल अलग हैं।

कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक, अधिकांश दलहनी फसलें अपने पचहत्तर फीसद नाइट्रोजन की पूर्ति जड़ों से कर लेती हैं, इसकी वजह इनकी जड़ों में पाई जाने वाली गांठों में राइजोबियम नामक जीवाणु है। ये जीवाणु नाइट्रोजन को खेत में पहुंचा देते हैं। इससे एक ओर जहां दलहनी फसलों को इसकी पूर्ति हो जाती है, तो दूसरी ओर आगामी फसल के लिए भी मिट्टी में पर्याप्त मात्रा में नाइट्रोजन बच जाती है।

इस तरह से किसानों को यूरिया के रूप में एक बड़े खर्च की बचत हो जाती है, जिससे लागत में कमी आती है। दलहनी फसलों के पौधे फैल कर बढ़ते हैं, जिससे ये मृदा को आवरण प्रदान करते हुए उसके कटाव को रोकते हैं। दलहनी फसलों के अवशेष को हरी खाद के रूप में प्रयोग कर मृदा में जीवांश पदार्थ की मात्रा बढ़ाई जा सकती है। इतने फायदे होने के बाद भी यदि देश को दालों का आयात करना पड़ रहा है, तो इसे किसानों में जागरूकता का अभाव ही कहा जाएगा।

किसानों को कृषि में हो रहे नवाचारों जैसे उन्नत सिंचाई विधियों, उन्नत प्रजातियों का विकास और उन्नत तकनीकों का प्रयोग करते हुए दलहनी फसलों के उत्पदान के लिए आगे आना चाहिए। किसान अपने उत्पादक संगठनों के माध्यम से बिचौलियों की भूमिका को कम कर फसल को सीधे बाजार में बेच सकता है। इससे उन्हें अच्छे दाम मिलेंगे और परिणामस्वरूप दलहनी फसलों का उत्पादन उनके लिए निश्चित रूप से मुनाफे का सौदा होगा।