ज्योति सिडाना

देश भर में बच्चों से लेकर युवाओं तक के जीवन पर पढ़ाई का दबाव और अन्य तरह के अवसाद भारी पड़ रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में विद्यार्थियों की आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं ने यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि आखिर हमारे शिक्षण संस्थानों में कैसा माहौल है और वहां किस तरह की शिक्षा दी जा रही है। इस समस्या के समाधान के लिए अभिभावकों, समाज और सरकार की ओर से सामूहिक रूप से व्यापक स्तर पर प्रयास क्यों नहीं किए जा रहे हैं?

हम ऐसा सुनते और पढ़ते आए हैं कि शिक्षा मनुष्य को शोषण, दमन, हिंसा और असमानता से लड़ना सिखाती है, उन्हें अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों के प्रति जागरूक बनाती है। स्कूल बच्चों को समाज का सभ्य नागरिक बनना सिखाते हैं, उन्हें जीवन के संघर्षों और चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार करते हैं। ऐसे में सवाल है कि आज बच्चों को किस तरह से शिक्षित किया जा रहा है कि उनके भीतर जीवन शुरू होने से पहले ही उसे समाप्त करने की प्रवृत्ति पैदा हो रही है!

कुछ समय पहले दो बड़ी घटनाएं हुई, जिन्होंने पूरे समाज को झकझोर दिया। राजस्थान में जयपुर के एक स्कूल की चौथी कक्षा में पढ़ने वाली छात्रा ने इमारत से कूद कर आत्महत्या कर ली। इस घटना में पीड़ित छात्रा को सहपाठियों द्वारा तंग करने और शिक्षकों की ओर से उसकी शिकायतों को अनदेखा करने के आरोप लगे। दूसरी घटना में दिल्ली के एक स्कूल के दसवीं कक्षा के छात्र ने मेट्रो ट्रेन के आगे कूद कर खुदकुशी कर ली। इस मामले में शिक्षकों पर संबंधित छात्र को उपेक्षित-प्रताड़ित करने के आरोप लगे। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि कभी शिक्षा के मंदिर कहलाने वाले विद्यालय अब शिक्षा के बाजार बन गए हैं, जहां शिक्षा को ऐसे बेचा जाता है कि उससे अधिक से अधिक लाभ कमाया जा सके। आज के दौर में शिक्षा के व्यापार को सबसे अधिक फायदे वाला कारोबार माना जाता है। इस कारण अब हरेक नागरिक की शिक्षा तक समान पहुंच मुमकिन नहीं रह गई है।

देखा जाए तो बाजार ने शिक्षा का अर्थ और उद्देश्य, दोनों बदल डाले हैं। पहले विद्यार्थी तय करता था कि उसे किस तरह के विषय पढ़ने चाहिए, उसकी रुचि किसमें है। मगर अब बाजार तय करता है कि उसे कौन-सा विषय पढ़ना चाहिए। विद्यार्थियों की रुचि, योग्यता और कुशलता का निर्धारण भी बाजार ही करता है। यहां तक कि विद्यार्थी अपनी जिंदगी या करिअर में सफल है या असफल, यह भी बाजार ही तय करता है। इन घटनाओं ने यह सिद्ध कर दिया है कि मनुष्य अब संवेदनहीन, भावहीन और गैर-तार्किक मशीन में तब्दील हो चुका है, जिसका ‘रिमोट’ कुछ ताकतवर लोगों के हाथों में है। ऐसे में कई बार लोगों के मन में यह विचार भी आ सकता है कि इससे तो पहले का समाज ही अच्छा था, जहां लोग निरक्षर या कम पढ़े-लिखे थे, लेकिन स्वार्थ, लालच, धोखा, अविश्वास जैसे शब्दों से परिचित ही नहीं थे या उनसे दूर थे!

इतनी कम उम्र के बच्चे, जिन्हें सही से जीवन का अर्थ भी नहीं पता, संघर्षों और चुनौतियों ने जिन्हें अभी छुआ भी नहीं है, वे अचानक से जीवन को समाप्त करने जैसे निर्णय तक पहुंच रहे हैं तो आखिर इसकी क्या वजह है? समस्या कहां हैं- परिवार में, शिक्षण संस्थानों में, नीति निर्माताओं में, प्रशासनिक व्यवस्था में, पाठ्यक्रमों में या फिर पूरा समाज ही अव्यवस्थित हो गया है। शिक्षा का उद्देश्य तो बच्चों में सही-गलत एवं नैतिक-अनैतिक के बीच निर्णय लेना सिखाना है, कल्याणकारी समाज की नींव को मजबूत करने की भावना पैदा करना है, आलोचनात्मक चेतना विकसित करना है, मगर धरातल पर ऐसा हो नहीं रहा है। रही सही कसर तकनीक के विकास ने पूरी कर दी है।

इंटरनेट की दुनिया में सोशल मीडिया ने सूचना के प्रयास को भले ही आसान कर दिया है, लेकिन इससे बच्चों की कल्पनाशक्ति, सृजनात्मकता और कुछ अलग सोचने की क्षमता हाशिये पर आ गई है। समय और उम्र से पहले ही बच्चे वह सब देखने और जानने लगे हैं, जिसकी जानकारी होना उनके लिए अभी जरूरी नहीं है। साथ ही इस भौतिकतावादी समाज में अभिभावक भी अपने बच्चों को ‘स्मार्ट’ बनाने की जल्दी में जिंदगी की संवेदना और अपने दायित्व को भूलते जा रहे हैं।

अब परिवारों में बच्चों की संख्या भले ही एक या दो ही रहने लगी है, लेकिन अभिभावकों के पास बच्चों के साथ बिताने के लिए समय ही नहीं है। इस कारण धीरे-धीरे बच्चे भी परिवार के स्थान पर स्मार्टफोन या सोशल मीडिया के साथ ज्यादा समय बिताने लगे हैं। ऐसे में बच्चों से यह अपेक्षा करना कि वे संस्कृति और समाज के साथ समायोजन करेंगे, संघर्षों और चुनौतियों का सामना करना सीखेंगे, बहुत दूर की कौड़ी है। बच्चों को एक उम्र तक डिजिटल दुनिया से दूर रखने के लिए कई देशों ने कोशिशें शुरू कर दी हैं, ताकि तकनीक के दुष्प्रभावों से भावी पीढ़ी को बचाया जा सके। दक्षिण कोरिया, फिनलैंड, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, नीदरलैंड, चीन, इटली और हंगरी जैसे देशों में छात्रों का ध्यान पढ़ाई पर केंद्रित करने और डिजिटल दुनिया की लत को समाप्त करने के लिए यह कदम उठाया गया है।

प्राथमिक समाजीकरण जो पहले परिवार का दायित्व था, वह अब डिजिटल मीडिया करने लगा है। इसलिए अब इनके द्वारा उत्पन्न विचारों और सूचनाओं को हम बिना संदेह के विश्वसनीय और प्रामाणिक मानने लगे हैं। नतीजतन, बच्चे ‘बंधक मस्तिष्क’ और ‘सीमित व्यक्तित्व’ वाले बनते जा रहे हैं। मशहूर शिक्षाविद नील पोस्टमैन का कहना है कि आज की पीढ़ी निरर्थक विचारों से भरी और नकलची है, उसके पास जुमले हैं, मगर विचारधारात्मक चिंतन नहीं है। यह अलगाव का चरम स्तर है और ऐसे में समाज के विकास की दिशा क्या होगी, यह कहना मुश्किल है। आज की पीढ़ी के बच्चों ने अपने बचपन को जिया ही नहीं, उनकी मासूमियत जल्दी परिपक्वता में बदल रही है, तकनीक एवं डिजिटल मीडिया ने उम्र एवं समय से पहले ही इनका बचपन छीन लिया है।

राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, देश में विद्यार्थी आत्महत्या की दर प्रतिदिन करीब 38 है, जो पिछले बारह वर्षों में लगभग पैंसठ फीसद बढ़ी है। वर्ष 2023 में मृतक विद्यार्थियों-परीक्षार्थियों की संख्या 13,892 बताई गई है। ये तथ्य बहुत चौंकाने वाले हैं।

यह समस्या किसी एक की नहीं है, बल्कि परिवार, समाज, शिक्षण संस्थान और सरकार सभी को इस पर ध्यान देने की जरूरत है। केवल नीतियां बनाने से अगर काम चल सकता, तो विद्यार्थियों की आत्महत्या की घटनाओं को कब का रोक लिया गया जाता। विचारणीय विषय यह है कि छोटी-सी उम्र में बच्चे अगर आत्महत्या जैसा कदम उठा रहे हैं, तो सोचिए कि उस समय उनकी मानसिक हालत कैसी रही होगी और वे किस दर्द से गुजर रहे होंगे।

कहा जाता है कि शिक्षा सबसे शक्तिशाली हथियार है, जिससे दुनिया को बदला जा सकता है, मगर दुनिया इस तरह बदलेगी, संभवत: ऐसी कल्पना किसी ने कभी भी नहीं की होगी। यह सच है कि जब तक कोई पीड़ा असहनीय नहीं होती, तब तक इंसान हिम्मत नहीं हारता और अगर हमारे बच्चे हिम्मत हारने लगे हैं, तो हम सबको मिलकर इसके कारण और समाधान तलाशने होंगे।