दुनिया आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है, जहां आर्थिक तरक्की और तकनीक की चमक के बीच भोजन जैसी बुनियादी जरूरत इंसान की पहुंच से दूर होती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र की नवीनतम रपट बताती है कि दुनिया की बयालीस फीसद आबादी पौष्टिक भोजन पर खर्च नहीं कर पाती। यह केवल गरीबी का आंकड़ा नहीं, बल्कि वैश्विक नीतियों, बाजार व्यवस्थाओं और आर्थिक असमानताओं का ऐसा आईना है, जिसमें हमारी सामूहिक विफलता दिखती है। जब भोजन जैसे मानव अधिकार को भी बाजार के हवाले कर दिया जाए, तो समाज कमजोर होता है, चाहे वह कितना ही विकसित क्यों न दिखे। भारत का विकास ढांचा मजबूत दिख सकता है, पर उसकी बुनियाद में पोषण का अभाव साफ महसूस होता है।

वैश्विक स्तर पर देखें तो अफ्रीका, दक्षिण एशिया और लैटिन अमेरिका के कई देश पौष्टिक भोजन के संकट से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। सहारा के दक्षिण वाले अफ्रीकी क्षेत्र में तो हालात इतने खराब हैं कि 60 से 80 फीसद आबादी पौष्टिक भोजन का खर्च ही नहीं उठा सकती। वहीं यूरोप, आस्ट्रेलिया और उत्तर अमेरिका जैसे क्षेत्रों में भोजन की पहुंच बेहतर है, पर वहां असंतुलित आहार, प्रसंस्कृत खाद्य और मोटापे जैसी समस्याएं स्वास्थ्य प्रणालियों के लिए नई चुनौतियां पैदा कर रही हैं। भारत में भोजन और पोषण का संकट दो ध्रुवों में बंटा दिखता है। ग्रामीण भारत में अब भी कुपोषण, रक्ताल्पता, कम वजन जैसे मामलों का उच्च स्तर पाया जाता है। बच्चों और महिलाओं की पोषण स्थिति विशेष चिंता का विषय है।

दूसरी ओर शहरी भारत में खाने की उपलब्धता तो है, पर उसकी गुणवत्ता की समस्या है। समय की कमी, काम का तनाव, और तेज बाजार-चालित संस्कृति ने डिब्बाबंद खाद्य, जंक फूड और मीठे पेयों को रोजमर्रा के भोजन का हिस्सा बना दिया है। एक तरफ कुपोषण और दूसरी ओर अतिपोषण, दोनों मिलकर स्वास्थ्य संकट को और जटिल बनाते हैं।

खाद्य महंगाई ने भारतीय रसोई को जिस तरह प्रभावित किया है, वह चिंता का विषय है। दालें, खाद्य तेल, फल, सब्जियां और दूध जैसी आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी ने संतुलित भोजन की लागत बहुत बढ़ा दी है। एक औसत भारतीय परिवार की मासिक आमदनी का बड़ा हिस्सा केवल कैलोरी-आधारित भोजन पूरा करने में ही खर्च हो जाता है, जबकि पौष्टिक भोजन की थाली उनकी पहुंच से दूर चली जाती है। यह स्थिति बताती है कि भोजन केवल बाजार व्यवस्था का विषय नहीं होना चाहिए, बल्कि इसे एक सामाजिक सुरक्षा अधिकार के रूप में देखा जाना चाहिए।

भारत की कृषि अब भी मानसून पर अत्यधिक निर्भर है। मगर असामान्य बारिश, सूखा, बाढ़ और तापमान में बदलाव ने फसल उत्पादकता को प्रभावित किया है, जिससे बाजार में दाम बढ़ते हैं। समस्या नीतिगत प्राथमिकताओं की है। भारतीय खाद्य सुरक्षा प्रणाली अभी भी मुख्य रूप से अनाज-आधारित है, गेहूं और चावल पर केंद्रित है। जबकि शरीर को विविध पोषक तत्त्वों की भी आवश्यकता होती है।

भारत में फल, सब्जियां, दालें, अंडे और डेयरी जैसे घटक बड़े पैमाने पर सार्वजनिक वितरण प्रणाली या सरकारी पोषण कार्यक्रमों का हिस्सा नहीं बन पाए हैं। इसी वजह से मध्याह्न भोजन की तरह अन्य योजनाएं भोजन तो देती हैं, पर पूर्ण पोषण सुनिश्चित नहीं कर पातीं। दुनिया के कई देशों ने भोजन को राष्ट्रीय विकास की धुरी बनाकर उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की हैं। ब्राजील का ‘शून्य भुखमरी’ अभियान इसका उदाहरण है, जिसने स्थानीय कृषि, सबसिडी और पोषण कार्यक्रमों के माध्यम से लाखों लोगों को पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराया।

जापान ने ‘शोकू इकु’ नीति के तहत बच्चों को भोजन विज्ञान की शिक्षा दी। एक ऐसा ढांचा, जो स्पष्ट करता है कि भोजन केवल खाने की वस्तु नहीं, बल्कि संस्कृति, समझ और स्वास्थ्य का आधार है। दक्षिण कोरिया ने प्रसंस्कृत खाद्य पर सख्त नियंत्रण लागू किए, जिससे जीवनशैली संबंधी बीमारियों में गिरावट आई। भारत इनसे सीख लेकर अपने कार्यक्रमों को अधिक वैज्ञानिक और आधुनिक बना सकता है।

दरअसल, पोषण की कमी का असर व्यक्तिगत स्तर से कहीं अधिक व्यापक है। यह कार्यक्षमता, शिक्षा और उत्पादकता को प्रभावित करता है। कमजोर और कुपोषित बच्चे स्कूल में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाते। कुपोषित युवा समाज में सक्रिय योगदान देने में पीछे रह जाते हैं।

यह समझना आवश्यक है कि भोजन कोई साधारण आर्थिक वस्तु नहीं है। यह सामाजिक न्याय, समानता और मानव अधिकार का मूल तत्त्व है। जब एक बड़ी आबादी पौष्टिक भोजन वहन नहीं कर पाती, तो समाज के लिए यह अनदेखा करने योग्य आंकड़ा नहीं रह जाता। यह वह बिंदु है, जहां नीतियों, बाजार, कृषि और सार्वजनिक स्वास्थ्य – चारों को मिलकर समाधान तैयार करना होगा।

भारत के पोषण संकट को समझने के लिए एक स्वस्थ थाली में वास्तव में क्या होना चाहिए, यह समझने की जरूरत है। बच्चों की थाली में प्रोटीन (दाल, अंडा, दूध), कैल्शियम, आयरन, हरी सब्जियां, मौसमी फल, साबुत अनाज और स्वस्थ वसा अनिवार्य हैं। ये तत्त्व न केवल हड्डियों और दिमाग के विकास के लिए जरूरी हैं, बल्कि रक्ताल्पता, संक्रमणों की अधिकता, थकान, आंखों की कमजोरी और सीखने की क्षमता में कमी जैसी समस्याओं से भी बचाते हैं। यह अफसोसनाक है कि भारत के लाखों बच्चों की थाली आज भी इन आवश्यक तत्त्वों से खाली है और इसका असर उनके पूरे जीवन पर पड़ता है।

महिलाओं और वृद्धों के पोषण की जरूरतें इससे भी अधिक विशिष्ट हैं। महिलाओं को विशेष रूप से आयरन, फोलिक एसिड, कैल्शियम, विटामिन डी और प्रोटीन की अधिक मात्रा चाहिए। वहीं वृद्धजन के लिए ओमेगा-3, फाइबर, विटामिन बी, कैल्शियम और मैग्नीशियम अत्यंत आवश्यक हैं, जो उन्हें हृदय रोग, मधुमेह, हड्डियों के क्षरण और पाचन संबंधी समस्याओं से बचाते हैं। लेकिन पारिवारिक और सामाजिक संरचना के कारण अक्सर इन्हीं समूहों की थाली सबसे पहले कमजोर होती है, जिससे बीमारी एक स्थायी साथी बन जाती है।

सरकारी नीतियां और जमीनी ढांचा पोषण सुधार का दूसरा महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं। देश में आंगनबाड़ी और स्कूल का भोजन कक्ष बच्चों के पोषण का बड़ा आधार माने जाते हैं, पर इनकी स्थिति असमान और अक्सर संसाधन-विहीन नजर आती है। आज भारत के सामने प्रश्न यह नहीं कि भोजन कितनी मात्रा में उपलब्ध है, बल्कि यह है कि क्या गुणवत्ता पूरक भोजन सही कीमत और सही समय पर हर नागरिक तक पहुंच पा रहा है?

भारतीय कृषि में कीटनाशकों और रसायनों का उपयोग जिस तेजी से बढ़ा है, वह पोषण संकट का एक और अदृश्य कारण बन रहा है। खेतों में सब्जियां और फलों पर अत्यधिक मात्रा में कीटनाशकों का छिड़काव न केवल फसलों की गुणवत्ता को कम करता है, बल्कि लंबे समय में लोगों के स्वास्थ्य पर भी गंभीर दुष्प्रभाव छोड़ता है। वैज्ञानिक अध्ययनों में पाया गया है कि इन रसायनों का अंश खाद्य पदार्थों में बचा रह जाता है, जिससे बच्चों में तंत्रिका तंत्र संबंधी समस्याएं, महिलाओं में हार्मोन असंतुलन और वयस्कों में कैंसर और गुर्दा रोगों का खतरा बढ़ जाता है।

सबसे बड़ी चिंता यह है कि इस क्षेत्र में न तो निगरानी सख्त है, न ही किसानों को सुरक्षित विकल्पों की पर्याप्त जानकारी मिल पाती है। जैविक खेती और कम-रसायन जैसे विकल्पों की चर्चा तो होती है, पर जमीनी स्तर पर उनकी पहुंच नगण्य है। अगर राष्ट्र एक मजबूत, सक्षम और स्वस्थ भविष्य चाहता है, तो भोजन को बाजार का उत्पाद नहीं, बल्कि सार्वभौमिक अधिकार घोषित करना होगा। तभी वास्तविक विकास की नींव मजबूत होगी।