देश में शहरीकरण और औद्योगीकरण के साथ-साथ ध्वनि प्रदूषण का स्तर भी बढ़ता जा रहा है। अब यह केवल एक पर्यावरणीय समस्या नहीं रहा, बल्कि अदृश्य सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट बन चुका है। वर्ष 2000 में सरकार ने पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत ध्वनि प्रदूषण (विनियमन और नियंत्रण) नियम लागू किए, जिनके अंतर्गत अस्पतालों, स्कूलों और न्यायालयों के आसपास के क्षेत्रों को शांत क्षेत्र (साइलेंस जोन) घोषित किया गया।

इन नियमों का मुख्य उद्देश्य संवेदनशील क्षेत्रों में शोर का स्तर दिन में पचास डेसीबल और रात में चालीस डेसीबल से कम रखना था, जैसा कि नियमों की अनुसूची में निर्धारित है। मगर व्यावहारिक तौर पर इन मानकों का शायद ही कभी पालन हो पाया। विभिन्न सर्वेक्षण बताते हैं कि ढाई दशकों का समय बीतने के बाद भी देश के कई शहर पहले से कहीं अधिक शोरगुल वाले हो चुके हैं। सरकार की ओर से घोषित ‘शांत क्षेत्रों’ में भी ध्वनि प्रदूषण मानकों से कहीं ज्यादा रहता है।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने दस राज्यों में 82 स्टेशनों के साथ ‘नेशनल एंबियंट नाइज मानिटरिंग नेटवर्क’ शुरू किया था। यह नेटवर्क डेटा तो एकत्र करता है, लेकिन इसके आधार पर कोई वास्तविक समय पर नियामक कार्रवाई नहीं होती। भारत के पास अब नियम और निगरानी दोनों हैं, लेकिन मापने योग्य ‘शांति’ नहीं है।

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चेन्नई, दिल्ली, लखनऊ, मुंबई, कोलकाता, बंगलुरु और हैदराबाद जैसे महानगर आज पहले से कहीं अधिक शोरगुल वाले हैं। राष्ट्रीय नेटवर्क के तहत निगरानी के अधीन ‘शांत क्षेत्र’ अब ध्वनि प्रदूषण से रहित वास्तविक सार्वजनिक स्वस्थ क्षेत्रों के बजाय केवल नीतिगत प्रतीक बनकर रह गए हैं। इसे संस्थागत विफलता कहा जाएगा या समन्वय की कमी?

दरअसल, मूल समस्या विभिन्न एजंसियों के बीच समन्वय की कमी में निहित है। राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड भी केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की ओर से स्थापित मंच के माध्यम से ही डेटा एकत्र करते हैं। मगर नगर निकायों, यातायात पुलिस, स्वास्थ्य विभागों और स्थानीय प्रशासन के साथ कोई एकीकृत तालमेल नहीं है।

इसके अलावा ध्वनि प्रदूषण के प्रभाव को अनिद्रा, उच्च रक्तचाप या हृदय रोग जैसी सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्याओं से जोड़ने की कोई समन्वित प्रणाली भी मौजूद नहीं है। हालांकि ध्वनि प्रदूषण का डेटा और स्वास्थ्य पर इसका प्रभाव दोनों अच्छी तरह प्रलेखित हैं, मगर कमी सिर्फ इन्हें जोड़कर आकलन करने वाले एकीकृत ढांचे की है।

‘शांत क्षेत्रों’ को अब तक मुख्यत: प्रशासनिक अधिसूचनाओं के रूप में देखा जाता रहा है, न कि सार्वजनिक स्वास्थ्य संरक्षण क्षेत्रों के रूप में। निगरानी उपकरणों का रखरखाव कमजोर है और बजट केंद्रीय स्तर पर सीमित रहता है, क्योंकि प्रवर्तन की संस्थागत जवाबदेही बिखरी हुई है।

नतीजा यह है कि कानून और डेटा मौजूद हैं, लेकिन प्रवर्तन कमजोर है और कार्रवाई नदारद। भारत में शोर केवल सहन ही नहीं किया जाता, बल्कि अक्सर उसे उत्सव की तरह अपनाया जाता है। शादी-ब्याह के बैंड, मंदिरों के लाउडस्पीकर, लगातार हार्न बजाना और जुलूस रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन चुके हैं, जिससे नागरिक अनुशासन पीछे छूट जाता है।

इस स्वीकृति के कारण लोग यह भूल जाते हैं कि शोर एक स्वास्थ्य समस्या है। शासन की प्राथमिकताएं आम तौर पर विकास परियोजनाओं की ओर झुकी रहती हैं, इसलिए शोर नियंत्रण नीचे खिसक जाता है। ध्वनि प्रदूषण के लिए नियमन अक्सर यातायात, व्यापार और राजनीति से टकराता है, जिससे उसका प्रवर्तन कठिन और अलोकप्रिय हो जाता है।

ध्वनि प्रदूषण की मार

सर्वोच्च न्यायालय भी इस बात को दोहरा चुका है कि प्रदूषण-मुक्त वातावरण का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 का अभिन्न हिस्सा है। इसके बावजूद प्रवर्तन कमजोर बना हुआ है, सीमित नगर क्षमता और असंगत पुलिस प्रक्रिया के कारण। कई शहरों में अधिसूचित ‘शांत क्षेत्र’ आज भी खराब संकेतक, कम जन-जागरूकता और नियमित निगरानी के अभाव में केवल कागजों पर ही मौजूद हैं।

देश में ‘शांत क्षेत्र’ के लिए मानक दिन में पचास डेसीबल और रात में चालीस डेसीबल निर्धारित हैं। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के मुताबिक, यातायात शोर दिन में 53 डेसीबल और रात में 45 डेसीबल से अधिक नहीं होना चाहिए। देश के सभी बड़े शहरों में भारतीय और विश्व स्वास्थ्य संगठन दोनों के मानकों का उल्लंघन हो रहा है।

शहरों की नियोजन योजनाएं आज भी ‘शांत क्षेत्र’ को तकनीकी सीमांकन के रूप में देखती हैं, न कि स्वास्थ्य-सुरक्षा क्षेत्रों के रूप में। इस स्थिति में देश को ऐसी प्रणाली की जरूरत है, जो पर्यावरणीय निगरानी को स्वास्थ्य डेटा और शहरी योजना से जोड़े। उदाहरण के लिए, ध्वनि निषेध क्षेत्र के आंकड़ों को अस्पतालों में दर्ज बीमारियों के बढ़ते दायरे, मानसिक स्वास्थ्य रिपोर्ट या यहां तक कि स्कूलों के प्रदर्शन संकेतकों से जोड़ा जा सकता है। ऐसा एकीकरण नीति निर्धारण के केंद्र को केवल ‘प्रदूषण नियंत्रण’ से हटाकर ‘स्वास्थ्य-केंद्रित व्यवस्था’ की ओर ले जाएगा।

‘शांत क्षेत्रों’ को प्रभावी बनाने के लिए जरूरी है कि ध्वनि प्रदूषण को सिर्फ नियंत्रित करने से आगे बढ़कर सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा पर ध्यान केंद्रित किया जाए। इसके अलावा ‘शांत क्षेत्रों’ को सार्वजनिक स्वास्थ्य संरक्षण क्षेत्र के रूप में पुनर्परिभाषित करना होगा। उन्हें केवल ‘हार्न वर्जित क्षेत्र’ नहीं, बल्कि अस्पतालों, स्कूलों और संवेदनशील आबादी वाले इलाकों की रक्षा करने वाले शहरी स्वास्थ्य रक्षा क्षेत्रों के रूप में वर्गीकृत करना होगा। संस्थागत दायित्व और समन्वय को मजबूत करने की जरूरत है।

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केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को केवल निगरानी तक सीमित न रखकर उसे अंतर-एजंसी प्रोटोकॉल बनाने, अनुपालन लागू करने और स्वास्थ्य-आधारित मानक तय करने का अधिकार देना होगा। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की भूमिका अंतर-विभागीय समन्वय, नीति मार्गदर्शन और स्वास्थ्य-आधारित मानकों के विकास तक विस्तृत होनी चाहिए।

यानी प्रदूषण नियंत्रण से जुड़ी तमाम एजंसियों के काम करने के तरीकों में सुधार आवश्यक है। तभी शोर को कम करने का प्रयास एक सरकारी आदेश से बाहर निकलकर सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति का मूल सिद्धांत बन सकेगा। देश में ‘शांत क्षेत्र’ अधिसूचित करने का वास्तविक मकसद इन क्षेत्रों को शोरगुल से दूर रखने का था। मगर केवल कागजों में कानून बना देने से ध्वनि प्रदूषण कम नहीं हो सकता, उसे शहरी नियोजन, प्रभावी प्रवर्तन और सामूहिक जागरूकता के माध्यम से गढ़ना पड़ता है।

समस्या पुराने नियमों की नहीं, बल्कि इस बात की है कि वे समय, विज्ञान और शहरी वास्तविकताओं के साथ विकसित नहीं हो पाए। आज शोर केवल एक पर्यावरणीय मुद्दा नहीं रहा, बल्कि यह स्वास्थ्य, शिक्षा और मानवीय गरिमा के अधिकारों से टकराने वाला संकट बन चुका है। मजबूत निगरानी और जवाबदेही के बिना ‘शांत क्षेत्र’ केवल सरकारी कागजों में उल्लेखित शब्द बनकर रह जाएगा। नियम-कानूनों का सख्ती से पालन सुनिश्चित करना होगा और लापरवाही बरतने वालों की जवाबदेही तय कर उनके खिलाफ उचित कार्रवाई करनी होगी।

ध्वनि प्रदूषण के नियंत्रण की प्रक्रिया में संसाधनों के अभाव को दूर करना भी जरूरी है। इस सुधार के बिना न तो ध्वनि प्रदूषण की सही तरीके से निगरानी हो सकेगी और न ही प्रभावी उपायों को धरातल पर ठीक तरह से उतारा जा सकेगा। आखिरकार, प्रदूषण रहित वातावरण का अधिकार कोई प्रतीकात्मक अवधारणा नहीं, बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य और मानवीय मूल्यों से जुड़ा मसला है।