हमारे समय का सबसे बड़ा संकट यह है कि हम अपनी जड़ों से कटते हुए आधुनिकता और प्रगति की चकाचौंध में अपनी पहचान खोते चले जा रहे हैं। यह त्रासदी केवल व्यक्ति स्तर पर नहीं, समाज और राष्ट्र स्तर पर भी दिखाई देती है। एक तरफ तकनीक, शिक्षा, राजनीति और भौतिकता का विस्तार हो रहा है, तो दूसरी तरफ संस्कृति, परंपरा और मूल्य बिखरते जा रहे हैं। ऐसा लगता है कि यह पहचान खोने का दौर है, जहां व्यक्ति अपने भीतर से खाली होता जा रहा है और समाज अपनी आत्मा से।

शिक्षा का उद्देश्य केवल रोजगार पाना या रोटी-रोजगार की गारंटी भर नहीं है। शिक्षा का मूल स्वरूप व्यक्ति में विवेक, संवेदनशीलता, सृजनशीलता और आत्मविश्वास जगाना होता है। लेकिन आज शिक्षा अब केवल अंक, डिग्री और पैकेज का पर्याय बनकर रह गई है। विद्यालयों और विश्वविद्यालयों से निकलने वाले छात्र किसी मशीन की तरह प्रशिक्षित तो हो रहे हैं, पर उनमें मनुष्यता घटती जा रही है। वे अपनी जमीन, अपने गांव, अपनी संस्कृति से अनजान रह जाते हैं। उनकी सोच उपभोक्तावाद से संचालित होती है। दुर्भाग्य यह है कि आज शिक्षा व्यक्ति को ‘उपभोक्ता’ तो बना रही है, ‘संस्कारवान नागरिक’ नहीं।

शिक्षा के द्वारा होना चाहिए नैतिकता और चरित्र का विकास

शिक्षा के द्वारा नैतिकता और चरित्र का विकास होना चाहिए, लेकिन हो रहा है उल्टा। यह एक विसंगति है। तर्कशास्त्र का एक शब्द है- विपर्यय यानी विपरीत ज्ञान। जैसे चमकती हुई रेत पानी का आभास कराती है, दूर से चमकती हुई सीपी चांदी का भ्रम पैदा करती है और अंधेरे में पड़ी हुई रज्जु या रस्सी सांप जैसी दिखाई देती है। यह विपर्यय है। विद्या के अध्ययन के द्वारा नैतिकता और चरित्र का विकास होना चाहिए, लेकिन नहीं हो रहा है। केवल भारत ही नहीं, पूरे विश्व के परिदृश्य पर दृष्टि डालें तो पाएंगे कि अपराध में पढ़े-लिखे और पैसे वाले लोग भी लिप्त हैं।

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कम पढ़े-लिखे या अनपढ़ आदमी में इतनी चालाकी नहीं होती कि वह बारीक योजना बनाए, जिससे किसी को पता न चले और वह कानून की पकड़ से बाहर रहे। पढ़-लिख लेने के बाद चालाकी और क्षमता तो आ जाती है, लेकिन उसी मात्रा में नैतिकता का विकास नहीं होता। बुद्धि का विकास हो और नैतिकता का विकास न हो, तो आदमी सड़क खोद कर गड्ढा करके वहां कीचड़ पैदा करेगा और फिर गाड़ी फंसने पर लोगों से पैसे वसूल कर उनकी गाड़ियां निकलवाएगा। जानबूझकर समस्या पैदा करने, उसमें दूसरे लोगों को फंसाने और पैसे लेकर उन्हें समाधान देने के लिए लोग बुद्धि का ही प्रयोग करते हैं। हमने बुद्धि को अंतिम विकल्प और सीमा मान लिया, यही सारी समस्याओं की जड़ है।

संस्कृति का स्थान अब मनोरंजन चैनल मोबाइल और ऐप ले चुके हैं

राजनीति कभी लोकसेवा का माध्यम मानी जाती थी, अब वह सत्ता-सुख और स्वार्थ-सिद्धि का औजार बन चुकी है। राजनीति का लक्ष्य अब जनता की समस्याओं का समाधान नहीं, बल्कि जातीय, क्षेत्रीय और सांप्रदायिक समीकरणों पर टिके रहना है। राजनीतिक दल मूल्यों पर बहस करने के बजाय चुनावी गणित साधने में व्यस्त हैं। आधुनिकता का अर्थ अगर वैज्ञानिक सोच, समानता और नए विचारों का स्वागत है तो यह स्वागतयोग्य है। पर जब आधुनिकता केवल उपभोग, फैशन और प्रदर्शन तक सिमट जाए तो यह आत्मा को खोखला कर देती है। आज का युवा अपने मोबाइल और सोशल मीडिया में इतना डूबा है कि उसे लोकगीत, लोकनृत्य, लोककला की कोई खबर नहीं।

अब फिल्टर लगाकर सोशल मीडिया पर चिपकाई जाती है चेहरे की मुस्कान, बिना किसी उपलब्धि के भी खुश रहना एक कला

घर-आंगन में गाए जाने वाले मंगलगीत, तीज-त्योहार की पारंपरिक उमंग और पड़ोस की साझी संस्कृति सब खोती जा रही है। संस्कृति का स्थान अब मनोरंजन चैनल मोबाइल और ऐप ले चुके हैं। त्योहार का अर्थ मिलन और उत्सव नहीं रहा, बल्कि ‘सेल’ और ‘रियायती आकर्षण’ हो गया है। भौतिक संपन्नता को ही जीवन की सफलता मान लिया गया है। बड़ी गाड़ी, बड़ा मकान और बैंक में पैसे ही आज की उपलब्धि के मानक हैं। इस दौड़ में रिश्तों की ऊष्मा, परिवार की आत्मीयता और सामाजिक जिम्मेदारी पिछड़ गई है। संस्कृति हमें संयम, सादगी और संतोष का पाठ पढ़ाती थी। लेकिन भौतिकवाद हमें असीमित इच्छाओं का दास बना रहा है। उपभोक्तावाद की इस दौड़ ने हमें प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या में उलझा दिया है।

जब संस्कृति टूटती है तो समाज की आत्मा घायल होती है

संस्कृति केवल नृत्य, संगीत या परंपराओं का संग्रह नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला है। जब संस्कृति टूटती है तो समाज की आत्मा घायल होती है। आज स्थिति यह है कि गांव के चौपाल, मंदिर-मस्जिदों की साझी संस्कृति, आपसी मेल-मिलाप, और सामूहिकता का भाव खत्म हो रहा है। उनकी जगह कृत्रिमता और निजी स्वार्थ ले रहे हैं। जब हम अपनी जड़ों से कट जाते हैं तो हमारी पहचान खो जाती है। यही पहचान का संकट आज हर तरफ दिखता है। इस त्रासदी का समाधान हमारी शिक्षा, राजनीति, आधुनिकता और भौतिकता में संतुलन से निकलेगा। शिक्षा में रोजगार के साथ संस्कार और संवेदना को जोड़ना होगा। आधुनिकता का अंधानुकरण नहीं, विवेकपूर्ण स्वीकार करना होगा। और भौतिकता को साधन मानकर संयमपूर्ण उपयोग करना होगा।

पाठ्यक्रम की राजनीति में कहीं खो गया हमारा कौशल, पढ़ाई छोड़ने की भी आ जाती है नौबत

पद-प्रतिष्ठा, सत्ता आदि ऐसे उन्माद हैं, जिनके आगे पढ़ाई-लिखाई सब नाकाम हो जाते हैं। जब तक उसे सकारात्मक भाव का विकास नहीं होता, चरित्र या नैतिक मूल्यों के विकास की कोई आशा नहीं की जानी चाहिए। आज की यही सबसे बड़ी समस्या है कि चरित्र का विकास हम बौद्धिक ज्ञान से करना चाहते हैं। यह संभव नहीं। हमारा चरित्र पक्ष, आचार पक्ष ही हमारी श्रेष्ठता पर मुहर लगाएगा, ज्ञान की बात तो बाद की है। ईमानदारी की पूछ और परख गुजरे जमाने में भी थी, आज भी है और हमेशा रहेगी। यह ऐसी निधि है, जिसकी कीमत कभी घट नहीं सकती।