शिक्षा का मुख्य आधार पाठ्यक्रम होता है। सरकारें हर कुछ अंतराल पर पाठ्यक्रम के विषय में बदलाव करती हैं, तो इससे कई बार असमंजस की स्थिति बन जाती है। नई शिक्षा नीति 2020 में हमने संकल्प लिया था कि वर्ष 2025 तक स्कूल और उच्चतर शिक्षा प्रणाली के माध्यम से कम से कम पचास फीसद विद्यार्थियों को व्यावसायिक शिक्षा का अनुभव प्रदान कर देंगे। यह भी तय किया गया था कि इसके लिए लक्ष्य और समय सीमा के साथ एक स्पष्ट कार्ययोजना भी विकसित कर लेंगे। मगर ऐसा लगता है कि पाठ्यक्रम की राजनीति में हमारा कौशल कहीं खो गया। हम पिछले पांच वर्षों में इस पर चर्चा के बजाय इस तरह पाठ्यक्रम निर्माण के उधेड़बुन में उलझ गए कि किस विषय को हटाना है, कौन-सा विषय जोड़ना है और किस विषय से भविष्य का मतदाता तैयार होगा।

जब कौशल की बात की जाती है या किसी व्यावसायिक शिक्षा की बात होती है, तो हमारे पाठ्यक्रम निर्माता यह कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि इस तरह की कोई मांग कहीं से आती नहीं। जबकि वे इस बात का कोई जवाब नहीं दे पाते कि पाठ्यक्रम में जो विषय निर्धारित किए जाते हैं, उसकी मांग या आवाज कहां से आई है? व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों की संख्या कम होने के पीछे प्रमुख कारण और तथ्य यह है कि हम मुख्य रूप से कक्षा आठ से ऊपर के विद्यार्थियों के कौशल की बात ही नहीं कर पाते।

अकादमिक शिक्षा से विद्यार्थी वंचित रह जाते हैं

व्यावसायिक शिक्षा न मिल पाने के कारण अधिकतर विद्यार्थियों में शिक्षा के प्रति अरुचि रहती है, जिससे बीच में पढ़ाई छोड़ने की नौबत भी आती है। हमारे पाठ्यक्रम और प्रवेश के मानदंड भी व्यावसायिक शिक्षा की योग्यता वाले विद्यार्थियों के लिए अवसरों की उपलब्धता सुनिश्चित करने की दृष्टि से तैयार नहीं किए जाते। यही कारण है कि देश के अन्य लोगों के सापेक्ष ‘मुख्य धारा की शिक्षा’ या अकादमिक शिक्षा से विद्यार्थी वंचित रह जाते हैं। व्यावसायिक शिक्षा के विषयों से संबंधित विद्यार्थियों के लिए हमारी शिक्षा नीति में सीधे-सीधे कौशल के दृष्टिकोण से आगे बढ़ने के रास्ते पूरी तरह बंद हैं।

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बारहवीं पंचवर्षीय योजना 2012 से 2017 के अनुमान के अनुसार, उन्नीस से चौबीस आयुवर्ग में आने वाले भारतीय कार्यबल के अत्यंत कम, मात्र पांच फीसद लोगों ने औपचारिक व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त की थी, जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका में बावन फीसद, जर्मनी में पचहत्तर फीसद और दक्षिण कोरिया में तो छियानबे फीसद ने व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त की। भारत में व्यावसायिक शिक्षा के प्रसार में तेजी लाने की आवश्यकता को पूरी स्पष्टता से रेखांकित किया जाना चाहिए। सरकार और शिक्षाविदों को पाठ्यक्रम की राजनीति छोड़कर व्यावसायिक शिक्षा को पीछे धकेलने की प्रवृत्ति पर पुनर्विचार करने की जरूरत है।

विद्यार्थियों को कौशल प्रशिक्षण और व्यावसायिक शिक्षा देने पर विचार करना होगा

कौशल को पाठ्यक्रम में शामिल करने से पहले और व्यावसायिक कौशल बढ़ाने के लिए हमें एक जैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। स्थानीय परिवेश और मांग के अनुसार व्यावसायिक शिक्षा दी जानी चाहिए। हम पाठ्यक्रम एक जैसा पढ़ा सकते हैं, लेकिन कौशल विकसित करने के लिए व्यावसायिक पाठ्यक्रम स्थानीय जरूरत, मांग और बाजार के अनुसार ही निर्धारित करना होगा। अन्यथा यह वैसा ही होगा, जैसा पाठ्यक्रम में राजनीति होती है। बाजार को समांतर रखते हुए हमें विद्यार्थियों को कौशल प्रशिक्षण और व्यावसायिक शिक्षा देने पर विचार करना होगा।

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आने वाली भावी पीढ़ी को भारतीय ज्ञान परंपरा और संस्कृति से परिचित होना ही चाहिए, लेकिन भारतीय इतिहास की उतनी ही जानकारी हमारे विद्यार्थियों को होनी चाहिए, जो सच-सच लिखा गया है। इतिहास बदलने और परंपराओं को परोसने का काम सरकारों को पाठ्यक्रम की राजनीति से दूर रखना होगा। सवाल है कि अगर बेरोजगारी बढ़ती है तो इससे हम कैसा ज्ञान और कैसी संस्कृति सिखाना चाहते हैं। यह जरूरी है कि बढ़ती आबादी और बढ़ती बेरोजगारी को रोकने के लिए आने वाली पीढ़ी को व्यावसायिक कौशल के माध्यम से हुनरमंद बनाया जाए।

आजादी के बाद ‘हर हाथ को काम मिले, हर व्यक्ति को रोटी मिले’, जैसे नारे हमने दिए थे, उसे विद्यार्थियों तक हम पहुंचा नहीं सके। इसलिए यह जरूरी है कि हमारा पाठ्यक्रम व्यावसायिक शिक्षा से ओतप्रोत हो, ताकि माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा पूर्ण करने के बाद विद्यार्थी अपनी रुचि का व्यवसाय प्रारंभ कर सके। विद्यार्थी परिवार पर बोझ न बने, बल्कि परिवार, समाज और देश के आर्थिक विकास में सहयोगी बन सके। यह सब माध्यमिक शिक्षा से उच्चतर माध्यमिक शिक्षा के दौरान ही संभव है।

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शिक्षा संस्थानों में अनुसंधान और नवाचार की शिक्षा देना भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। पूरे इतिहास में दुनिया के श्रेष्ठ विश्वविद्यालय के साक्ष्य और अध्ययन से पता चलता है कि सर्वोत्तम शिक्षण तथा सीखने की प्रक्रिया जहां अनुसंधान और ज्ञान सर्जन की मजबूत संस्कृति रही है, वही विश्वविद्यालय श्रेष्ठ साबित हुए हैं। नई शिक्षा नीति में विभिन्न विषयों में अनुसंधान और भारतीय ज्ञान सर्जन की परंपरा को पाठ्यक्रम में शामिल करने और दुनिया की अर्थव्यवस्था में अनुसंधान तथा नवाचार का नेतृत्व करने के लिए हमें उसकी गुणवत्ता को भी देखना होगा। उच्चतर शिक्षण के तहत गुणात्मक शोध की मानसिकता को मजबूत करने की जरूरत होनी चाहिए। हमारा कौशल वैज्ञानिक और चिंतनशील अनुसंधान को मान्यता देने और उच्च अनुसंधान को स्थापित करने से ही संभावनाएं विकसित करेगा, न कि पाठ्यक्रम में राजनीति से।