देश, समाज, परिवार- यह सब हमारे जीवन की आधारशिला हैं। हम पैदा होने के बाद पलने-बढ़ने से लेकर बड़े होने और अपना जीवन जीने तक जो भी हासिल करते हैं, जो भी हमें समाज और परिवार से मिलता है, वह सब आखिरकार हमारे व्यक्तित्व को गढ़ता है। सवाल है कि इन सबके बीच कौन ऐसा चेहरा होता है, जो हमारे जीवन के हर पल को सुख और सुकून से भर देने के लिए न केवल दुनिया के सामने खड़ा हो जाता है, बल्कि अपना भी सब कुछ त्याग देने को तैयार हो जाता है। हम चारों ओर अपनी नजर घुमाएं। क्या हमें अपनी मां के सामने कोई और दिखाई देता है?

दरअसल, मां एक ऐसा शब्द है, जिसे सुनते ही हमारा हृदय करुणा और प्रेम के साक्षात दर्शन करता है। मगर मां सिर्फ संबोधन नहीं है, बल्कि एक संपूर्ण संसार है। हमारे जीवन की आधारशिला है। गर्भ काल से लेकर हमें जन्म देने तक से बहुत आगे। जब तक मां का जीवन है, मां अपने बच्चे के लिए एक सुरक्षित आंचल प्रदान करती है। मां और बच्चे का रिश्ता ही संसार में सबसे निश्छल और ममता से भरा होता है। वह न केवल बच्चे का पालन-पोषण करती है, बल्कि वह बच्चे की प्रथम पाठशाला होती है। यों तो प्रत्येक मां अपने बच्चे को अच्छी शिक्षा, नैतिकता और सुविचारों से पोषित करना चाहती है, लेकिन जमाने के साथ विचारों में भी परिवर्तन आया है। ऐसे में मां का मूल तो वही है, लेकिन पालन-पोषण के तरीके में अंतर पड़ गया है।

आज इंटरनेट, मोबाइल जैसे तकनीक युग और व्यस्ततम जीवनशैली होने के कारण कामकाजी मां अपने बच्चों को उतना समय नहीं दे पाती, जितना कि वह देना चाहती है या फिर उसे देना चाहिए। यह एक मजबूरी हो सकती है, लेकिन यह मजबूरी बच्चों को नैतिकतापूर्ण आचरण, अनुशासित जीवन और अध्ययन के लिए प्रेरित करने से कहीं भी आड़े नहीं आ सकती। अगर मां अपनी इच्छाशक्ति से ऐसा करने की ठान ले।

आधुनिक समय के इस उथल-पुथल से भरे दौर में मां को न केवल अपने-आप को जमाने की कदम ताल से कदम मिलाकर चलना होगा, बल्कि खुद को भी परिपक्व बनाना होगा, ताकि वह बच्चों को ठीक ढंग से आगे बढ़ा सके। इसके अलावा, बच्चों की आवश्यकता, मनोविज्ञान से भी परिवार को और उसके आसपास के सभी लोगों को परिचित होना होगा। बच्चों पर अनुशासन और नैतिकता के मापदंडों को थोपने की जगह उन्हें धीरे-धीरे अपनी और अन्य लोगों की जीवनशैली के द्वारा प्रेरित करना होगा। अगर बच्चा गलत रास्ते पर भी जा रहा हो, तो मां उसे सही राह दिखा सकती है।

कभी प्रेम से, तो कभी डांटकर, कभी समझाइश, तो कभी रूठकर। एक मां ही भावनात्मक स्तर तक पहुंच कर बच्चे का मार्गदर्शन कर सकती है। मां के शरीर से अलग होकर भी बच्चा मां से जुड़ा ही रहता है। संकट में वह मां के आंचल को सबसे ज्यादा सुरक्षित और विश्वसनीय मानता है। इधर मां के जीवन का प्रकाश बच्चा ही होता है। वह उस पर अपना सब कुछ न्योछावर करने के लिए तैयार रहती है। बच्चे के जीवन की थोड़ी-सी भी कठिनाई मां को बहुत बड़ी लगती है।

बच्चे के जीवन को सहारा देना एक अलग बात है, लेकिन उस सहारे के नाम पर कभी भी उसे स्वावलंबी बनने से नहीं रोकना चाहिए। स्वावलंबन ही जीवन में सफलता की पहली सीढ़ी है। अगर मां यह सीढ़ी खुद बनना चाहेगी और प्रेम वश उसे कुछ भी नहीं करने देगी तो बच्चा जीवन में कुछ भी नहीं सीख पाएगा। बच्चे को स्वावलंबी बनाना आमतौर पर सभी मां के जीवन का परम उद्देश्य होता है। जिस प्रकार बालपन में मां बच्चे का ध्यान रखती है, उसी प्रकार बच्चों को भी अपनी वृद्ध मां की देख-रेख खुले हृदय से करनी चाहिए।

बच्चे मां द्वारा उनके प्रति किए गए कार्यों का कर्तव्य समझकर भूल जाते हैं। वे भूल जाते हैं कि मां ने रातों को जागकर अपने जीवन की प्रत्येक सफलता, जो उसे मिल सकती थी, उसका त्यागकर उन्हें जीवन दिया है, उनके रास्ते के कांटों को हटाया है। ऐसे में सभी बच्चों की जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वे अपनी मां का पूरा खयाल रखे, जिस मां ने उन्हें चलना सिखाया, उसके बुढ़ापे की लाठी बने।

यों मां का कर्ज कोई चुका नहीं सकता। वह अमूल्य है। मगर अपनी कोशिश के जरिए हमें अपने व्यवहार से मां के प्रति श्रद्धा प्रकट करनी चाहिए। समाज में जो मां का उच्च स्थान है, इसका कारण भी यही है कि मां ही ज्ञान, शिक्षा, पोषण और परिवार की धुरी है। मां अपने बच्चे का उचित लालन- पालन कर उसे समाज का एक जिम्मेदार सदस्य बनाती है, जो आगे चलकर इसी समाज की उन्नति का रास्ता खोजता है। एक-एक व्यक्ति के योगदान से समाज उन्नत होता है और अगर कोई समाज इतना उन्नत हो जाए तो ऐसे ही समाज वाला राष्ट्र अपना चहुंमुखी विकास करता है।

हमें बुनियादी तौर पर मनुष्य बनाने में हमारी माताओं का ही योगदान रहा है। मनुष्य रूप में जन्म लेना मनुष्य होना नहीं है बल्कि हमें मनुष्य होने के नाते कई गुणों को अपने व्यक्तित्व के अंदर समाहित करना पड़ता है। ऐसे में मां ही हमें अपने विचारों, संस्कारों और अनुशासन की सीख देकर मनुष्य बनाती है। मां सिर्फ संबोधन नहीं है, वह हमारी आधारशिला है, जीवन की पहली पाठशाला है और उसी की वजह से हमारा अस्तित्व है।