नव लोक प्रबंधन समाज एवं अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका को कम करना चाहता है। गौरतलब है कि इस नए प्रबंधन में नागरिक या ग्राहक को केंद्र में रखा जाता है। परिणामों के लिए उत्तरदायित्व पर बल दिया जाता है। न्यूजीलैंड दुनिया का पहला देश है जिसने नव लोक प्रबंधन को नब्बे के दशक में अपनाया। इसमें कोई दुविधा नहीं कि यह प्रबंधन आसानी से वामपंथ और दक्षिणपंथ की सीमा लांघता है और सुशासन की अवधारणा में अंतर्निहित हो जाता है। सुशासन एक ऐसी विचारधारा है जहां लोक अवधारणा को मजबूती मिलती है साथ ही लोक सशक्तीकरण पर बल दिया जाता है।
यह एक आर्थिक परिभाषा है और इसमें न्याय का सरोकार निहित है। शासन वही अच्छा जिसका प्रशासन अच्छा होता है। दोनों तभी अच्छे होते हैं जब लोक कल्याण होता है। लोक कल्याण कम लागत में अधिक करने की योजना भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों के लिए कहीं अधिक आवश्यक है। इसका मूल कारण यहां आमदनी अठन्नी होना और खर्चा रुपया है।
नव लोक प्रबंधन कोई प्रशासनिक सिद्धांत नहीं है और न ही कोई आंदोलन, बल्कि यह दोनों का मिश्रण है, जहां हर हाल में बेहतरी की खोज बनी रहती है। जो निजी हित के साथ-साथ पूरे समाज के लिए बेहतर की गुंजाइश पैदा करता है। भारत में लोक प्रबंधन के नवीन आयामों में लोक कल्याणकारी व्यय को घटाया गया है। मसलन रसोई गैस से हटाई गई सबसिडी और ऊपर से लगातार बढ़ती कीमत। लोक उद्यमों का विनिवेश व निजीकरण और उनमें समझौता। विकेंद्रीकरण और निजी निकायों द्वारा ठेके पर कार्य आदि।
2005 का सूचना का अधिकार कानून इसी वजह से हुआ लागू
हालांकि ई-गवर्नेंस को लागू करने वाली गतिविधियों को बढ़ावा नव लोक प्रबंध और सुशासन के चलते ही संभव हुआ है। जैसे ई-बैंकिंग, ई-टिकटिंग, ई-सुविधा, ई-अदालत, ई-शिक्षा समेत विभिन्न आयामों में इलेक्ट्रानिक पद्धति का समावेश आदि के कारण सुशासन में निहित पारदर्शिता को मजबूती मिली है। इतना ही नहीं सरकारी संगठनों का निगमीकरण और ‘पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप’ यानी निजी-सरकारी सहभागिता जैसी तकनीकों पर आगे बढ़ाना नव लोक प्रबंधन के नवीन आयाम ही हैं।
वर्ष 1997 का नागरिक अधिकारपत्र, 2005 का सूचना का अधिकार कानून, 2006 में ई-गवर्नेंस आंदोलन, प्रशासनिक सुधार के लिए आयोगों का गठन, समावेशी विकास पर अमल करने समेत ‘स्मार्ट सिटी’ और ‘स्मार्ट विलेज’ आदि विभिन्न परिप्रेक्ष्य भारत में लोक प्रबंध के नए आयाम को ही दर्शाते हैं। दरअसल, प्रशासनिक सुधार और सामाजिक परिवर्तन का एक-दूसरे से तार्किक संबंध है। प्रशासनिक सुधार राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिणाम होती है। सरकार परिवर्तन और सुधार की दृष्टि से जितना अधिक जनोन्मुख होगी, सुशासन उतना अधिक प्रभावी होगा। मगर जब सरकारें कुशलता के साथ अर्थव्यवस्था पर तो जोर देती हैं, लेकिन जब आम जनमानस में इसकी प्रभावशीलता समावेशी अनुपात में नहीं होती, तो पूंजीवाद बढ़ता है। हालांकि पूंजीवाद के विकास के और भी अनेक कारण हो सकते हैं। अर्थव्यवस्था की कई लहर होती है, जहां पहली लहर में बाजार मुख्य होता है। वहीं दूसरी लहर प्रतियोगिता के लिए जानी जाती है।
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भारत गांवों का देश है, लेकिन अब बढ़ते शहरों के चलते इसकी पहचान गांव तक ही सिमट कर नहीं रही। देश खेत-खलिहानों के साथ-साथ कल-कारखानों के साथ आगे बढ़ चला है। बीते 78 वर्षों में परत-दर-परत विकास हुआ है।
स्वतंत्रता के पश्चात संविधान लागू होने के साथ सामुदायिक और सामाजिक विकास की अवधारणा पर काम शुरू हो गया था। बावजूद इसके समावेशी ढांचे का न जाने क्यों पूरी तरह निर्माण नहीं हो पाया। यही कारण है कि आज भी गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, महंगाई बनी हुई है। वर्ष 1991 में उदारीकरण वैश्विक परिप्रेक्ष्य के साथ भारत में बदलाव की एक नई लहर लेकर आया। वर्ष 1992 में समावेशी विकास और सुशासन की धारणा ने मूर्त रूप लिया। फिर भी बुनियादी विकास, मानव विकास सूचकांक को लेकर जद्दोजहद कम नहीं हो रही है।
बाजार और प्रतियोगिता का अर्थ अनसुलझे सवाल की तरह
नवीन लोक प्रबंधन ने नौकरशाही को नई दिशा में मोड़ने और उसे नई संरचना देने का भी प्रयास किया है। नया लोक प्रबंधन एक ऐसा परिदृश्य है जिस पर कई उत्प्रेरक तत्त्वों का प्रभाव है। भारत जैसे देश में प्रतियोगिता नागरिकों को ग्राहक बना देती है और सफल ग्राहक वही है जो कमाई के साथ बाजार तंत्र को अंगीकार कर सके। आर्थिक दृष्टि से अनेक वर्ग हैं जो बाजार के साथ-साथ कदम-से-कदम मिलाने सक्षम नहीं हैं। यह कहना अतार्किक न होगा कि विकासशील देशों का बाजार हो या प्रतियोगिता इसका स्वरूप बड़ा होता है। मगर मानव संसाधन में समुचित दक्षता और उचित रोजगार की कमी से यह विफल हो जाता है या फिर जनता असफल हो जाती है। जिस देश में 80 करोड़ नागरिकों का गुजर-बसर सरकार की ओर से दिए गए पांच किलो मुफ्त अनाज से होता हो, वहां बाजार और प्रतियोगिता का अर्थ अनसुलझे सवाल की तरह ही है। किसानों की आमदनी दोगुनी करने का लक्ष्य भी पूरा हुआ है या नहीं, इस सवाल का जवाब आज तक नहीं मिला है।
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सुशासन के मूल्यांकन की भी तीन परते हैं। जिसमें मानव विकास सूचकांक, मानव गरीबी सूचकांक इसके हिस्से हैं। यदि यह किसी भी स्तर पर है, तो सुशासन को ही नुकसान पहुंचाता है। उद्यमशीलता का दम भरने वाली सरकारों पर भी सवालिया निशान लगाता है। मानव विकास सूचकांक 2025 के आंकड़े बताते हैं कि भारत यहां 130वें स्थान पर है। जबकि 123 देशों में वैश्विक भूख सूचकांक-2025 में देश 102वें स्थान पर है। वहीं भ्रष्टाचार धारणा सूचकांक 2024 के अनुसार भारत 180 देशों में 96वें स्थान पर है। खास यह भी है कि वर्ष 2015 में यह 76वें स्थान पर था। साफ है कि देश भुखमरी और गरीबी से तो जूझ ही रहा है, वहीं रही-सही कसर भ्रष्टाचार ने पूरी कर दी है। शासन, प्रशासन और सुशासन शब्द अच्छे हैं। मगर इन आंकड़ों से देश की तस्वीर धुंधली लगती है। नव लोक प्रबंधन अच्छे शासन के लिए अच्छा उपाय हो सकता है। किसी भी देश में बेरोजगारी स्वयं में गरीबी की जड़ है। इन दिनों भारत में बेरोजगारी दर रेकार्ड स्तर को पार कर चुकी है। गरीबी उन्मूलन के लिए पांचवीं पंचवर्षीय योजना जारी है। मगर हर पांचवां व्यक्ति गरीबी रेखा से नीचे है।
लोकतंत्र और जनता का शासन
देखा जाए तो खाद्य सुरक्षा अधिनियम-2013 के बावजूद भरपेट भोजन कई लोगों के हिस्से से अभी दूर भी है। इतना ही नहीं खाद्य पदार्थों की कीमत में भी आए दिन उछाल देखा जाता रहा है। गेहूं, आटा, चावल और दाल के साथ-साथ तेल, आलू और प्याज के भाव भी कमोबेश बढ़ते रहते हैं। यह नव लोक प्रबंधन और सुशासन दोनों दृष्टि से उचित नहीं है। सवाल यह है कि देश किससे बनता है और किस के साथ चलता है। लोकतंत्र में जनता का शासन होता है और साफ है कि कोई भी जनता समावेशी और बुनियादी विकास से अछूती रहने वाली व्यवस्था देर तक नहीं चाहेगी। यदि महंगाई, बेरोजगारी तथा जीवन से जुड़ी तमाम व्यवस्था पटरी पर न हों, तो लगता है कि जनता का शासन कहीं जनता पर शासन तो नहीं हो गया। हालांकि जहां सुशासन की बयार की बात हो और उद्यमशील सरकार में संतुलन का भाव व्याप्त हो, वहां लोकतंत्र और जनता का शासन ही कायम रहता है।
