हम सभी को मदद, प्रेम और दया की जरूरत होती है। खुद पर भरोसा होना एक बात है और यह अहम भी है, लेकिन परिवार, समाज, अध्यापक, मित्र आदि की मदद के बगैर हम आमतौर पर कुछ हासिल नहीं कर सकते। मदद करना और मदद लेना ही मनुष्यता का प्राण तत्त्व है। अगर प्रकृति ने हमें समर्थ, शक्तिवान और आर्थिक रूप से सक्षम बनाया है और ऐसी स्थिति में हमने किसी की थोड़ी-सी भी मदद कर दी, तो संभव है कि यह किसी के जीवन का आधार बन जाए।

इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम क्या हैं, हमारा पद क्या है या हम कितने धनी और समृद्ध हैं। हम चाहे जितने श्रेष्ठ, समृद्ध, ज्ञानी, उद्यमी, जगत विजेता, उच्च पदासीन बन जाएं, लेकिन हमें विभिन्न लोगों की मदद कभी न कभी लेनी पड़ती है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि आज जो भी हम प्राप्त कर पाए हैं, वह अन्य लोगों की मदद के कारण संभव हुआ है। चाहे वह मदद अत्यंत कम हो, लेकिन मदद तो मदद है।

प्रेम से जताया गया आभार विश्वास भरता है। यह मनोवैज्ञानिक मदद है। किसी की समस्या को सिर्फ सुन लेना भी मानसिक मदद है, क्योंकि इससे सामने वाले व्यक्ति को विश्वास होता है कि कोई उसका मित्र है। अस्पताल में तबियत पूछने जाना, अंक कम आने पर बच्चे को समझाना, अन्य की खुशी के लिए कुछ करना मदद का ही रूप है।

हम जीवन में अक्सर दूसरों की मदद करने, परिवार, समाज और मित्रों की भलाई पर ध्यान देते हुए अपनी लोकप्रिय छवि बनाने के क्रम में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि अपनी सेहत और अपने लिए समय निकालना पीछे छूट जाता है। समाजोपयोगी काम करना आवश्यक है, लेकिन इस कीमत पर नहीं कि हमारा अपना स्वास्थ्य ही बिगड़ जाए। समाज बहुत स्वार्थी है। हो सकता है कि हम दूसरों के लिए या समाज के लिए अपना सर्वोत्तम दे रहे हों, लेकिन जब हमें सर्वाधिक आवश्यकता हो, तो संभव है कि हमारे पास कोई भी न हो। इसलिए मददगार बनने की चाहत रखने वाले को शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहना जरूरी है।

सतही तौर पर देखें तो ऐसी बातें स्वार्थपरक लग सकती हैं, लेकिन यह सच है। मनोविज्ञान के अनुसार मनुष्य स्वाभाविक रूप से स्वकेंद्रित होता है। जब तक किसी व्यक्ति को सामने वाले से थोड़ा भी लाभ नहीं होता, तब तक वह उसके लिए त्याग या उसकी मदद नहीं करता। इसे ‘परसेप्शन ऑफ रिसोर्सेस’ यानी संसाधनों की धारणा सिद्धांत कहा जाता है।

हम किसी की मदद तभी करते हैं, जब हम सुरक्षित महसूस कर रहे हों, वरना हम अपना स्वार्थ ही सोचेंगे। एक अध्ययन में पाया गया कि लोग मदद या सहायता के लिए प्रेरित तब होते हैं, जब तक उन्हें लगता है कि इस मदद या दान से उन्हें समाज में प्रतिष्ठा या सम्मान मिलेगा। इसे ‘मॉडल इफेक्ट’ या सामाजिक सम्मान की चाह कहा जाता है।

इस सिद्धांत के तहत लोग अक्सर सामने वाले व्यक्ति का पद और स्थिति देखकर मदद करने का निर्णय लेते हैं। वे आकलन करते हैं कि मदद लेने वाले का समाज में क्या दर्जा और स्थिति है। सिर्फ मानवीयता आधारित निर्णय बहुत कम लिए जाते हैं। ‘सामाजिक आदान-प्रदान’ के सिद्धांत के अनुसार, सामाजिक संबंधों में लोग हमेशा ‘इनाम-लाभ’ का हिसाब रखते हैं। लाभ स्पष्ट होने पर ही व्यक्ति मदद को तैयार होता है। इसलिए मददगार बनते हुए अति भावुकता से बचना उचित है।

आशय यह कि संवेदनशील होना अच्छा है, लेकिन इसे बचाए रखने के लिए विवेक के स्तर पर सजग रहना भी जरूरी है। यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि जो मदद बिना किसी अपेक्षा के की जाती है, उसी को मदद कहा जा सकता है, क्योंकि यह कोई सौदा नहीं है।

अपनी शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक सेहत का खयाल रखना सिर्फ स्वार्थ नहीं, बल्कि सबसे समझदारी भरा निर्णय है। बीमा, बचत, आपातकालीन निधि का ध्यान रखना उचित है, ताकि किसी संकट में ‘सहारे’ की कमी हमें अंदर से हिला कर न रख दे। साथ ही अपने लिए जीते हुए शौक जिंदा रखने चाहिए। ध्यान या ‘मेडिटेशन’, हृदय की बात कहने वाले विश्वसनीय साथी, अपने ‘मूड बूस्टर’ यानी तनाव दूर करने वाले मित्र, अपनी दिनचर्या, संगीत, लेखन और खेलों पर भी ध्यान देना उचित है।

जब मदद करने वाला खुद स्वस्थ और मजबूत होगा, तभी वह दूसरों के लिए कुछ देने की क्षमता बनाए रख सकेगा। दूसरों की सहायता से पहले सर्वप्रथम खुद को हर दृष्टि से मजबूत बनाया जाना चाहिए।

इसका यह अर्थ नहीं है कि किसी की मदद ही न की जाए या स्वार्थी बना जाए। अभिप्राय यह है कि मदद करते हुए अपना और अपनी सेहत का भी ध्यान रखा जाए। जहां तक हो सके, हर जरूरतमंद की मदद करनी चाहिए। किसी की मदद करते हुए अहंकार, द्वेष या सामने वाले को कमतर दिखाने का भाव भी विकसित नहीं होने देना चाहिए।

इसके अलावा, अगर किसी ने कष्ट काल में हमारी मदद नहीं की, तो इसका अर्थ यह नहीं कि हम भी वही व्यवहार रखें। याद रखना चाहिए कि दुष्टता को दुष्टता से नहीं जीता जा सकता। बुरे के आगे बुरा बनने से बुराई का एक दुर्ग खड़ा हो जाता है और इससे जन्म लेता है युद्ध। बुरों के प्रति भी अच्छाई का भाव रखते हुए मदद करनी चाहिए और यह हमें अंगुलिमाल कथा का गौतम बुद्ध बना देगा।

चलते-फिरते, जाने-अनजाने सभी की मदद करते रहना चाहिए। समाज हमारे रुतबे, पैसे, मकान, अहसान करने की ताकत से नहीं, बल्कि मदद कर सकने के जज़्बे से प्रभावित होता है और उसी को ही हमेशा याद रखता है।