साक्षरता के बिना किसी भी समाज और राष्ट्र का विकास संभव नहीं है। यह सामाजिक सद्भावना को मजबूत करती है और आर्थिक प्रगति का द्वार खोलती है। वहीं निरक्षरता पिछड़ेपन और असमानता का मुख्य कारक है। आजादी के बाद साक्षर भारत की परिकल्पना भी की गई और उसके लिए सरकारों ने अलग-अलग नाम से निरक्षरता उन्मूलन के लिए अनेक अभियान और कार्यक्रमों का संचालन किया। उन कार्यक्रमों की बदौलत हमने प्रगति करने का भी प्रयास किया। 1951 से 2011 तक हमने साक्षरता में दशकीय प्रगति कभी धीमी और कभी तेज रखी। 1991 से 2001 का दौर हमारे लिए सुकून देने वाला था। दरअसल, 2001 में भारत की साक्षरता दर 64.83 फीसद से 74.04 फीसद पर आ गई। यह बढ़ोतरी पिछले दशकों के दौरान लगभग अच्छी मानी जानी चाहिए। इस दशक में अनेक राज्यों ने खासी उपलब्धि हासिल की।
वर्ष 2000 तक भारत में साक्षरता की दर तेजी से बढ़ने की संभावनाएं नजर आ रही थी। इसी क्रम में संपूर्ण साक्षरता अभियान मील का पत्थर साबित हुआ। मगर धीरे-धीरे यह अभियान कार्यक्रम में बदलता गया। कार्यक्रमों के दौरान निरक्षर लोगों को अपने हाल पर छोड़ दिया गया। जबकि वर्ष 2000 के बाद इसे और बड़ा अभियान बनाने की जरूरत रही थी, क्योंकि शेष रह गए निरक्षर मुख्य और केंद्रीय समूह की श्रेणी में आते हैं, जिन्हें साक्षर बनाने की जरूरत थी। यह वह समूह है, जिनकी साक्षरता से बहुत दूरी बनी हुई थी और वे दूरदराज के क्षेत्र में बैठे थे। सच यह है कि गहराई में जाने पर तस्वीर अफसोसनाक दिखाई देती है। 2001 में भारत की पुरुष साक्षरता 75.26 फीसद थी और उस समय महिलाओं की साक्षरता दर मात्र 53.67 फीसद थी। इस अंतराल को पाटने का कोई महत्त्वपूर्ण प्रयास नहीं किया गया। वहीं 2011 की जनगणना में पुरुष साक्षरता 82.14 फीसद थी और महिला साक्षरता 65.46 फीसद थी।
देश का पूरी तरह साक्षर होना बहुत जरूरी
सरकारों को चाहिए कि देश को विकसित राष्ट्र बनाने के लिए साक्षरता अभियानों को ज्यादा परिणामदायक और सकारात्मक बनाने के लिए ठोस कदम उठाए। अगर औपचारिक शिक्षा को विकसित करना है और शिक्षा से विकास की यात्रा को आगे बढ़ाना है तो देश का पूरी तरह साक्षर होना बहुत जरूरी है। कहने को हर वर्ष अंतरराष्ट्रीय साक्षरता दिवस मनाया जाता है, लेकिन जरूरत इस बात की है कि हर कुछ दिनों पर इस संकल्प को मजबूत करना चाहिए और उसे जमीन पर उतारने के लिए नतीजा देने वाले काम किए जाएं। जब तक ऐसा अभियान जमीनी स्तर पर कामयाब नहीं होगा, तब तक ‘साक्षर भारत, विकसित भारत’ का मकसद अधूरा रहेगा।
सही है कि पिछले कुछ दशकों के दौरान भारत में सबसे बड़ा साक्षरता आंदोलन चलाया गया। साक्षरता दर पर नजर डाली जाए तो 2011 से 2025 के बीच निचले क्रम में रहे चार राज्यों की स्थिति अब भी बहुत अच्छी नहीं है। हालांकि ऐसे राज्यों ने आंकडों में साक्षरता दर में प्रगति जरूर की है, लेकिन उनकी गति इतनी धीमी है कि उनका विकास दर्ज करना मुश्किल है। कुछ राज्यों ने खुद में सुधार किया है, लेकिन कुछ राज्य कमजोर महसूस कर रहें हैं।
आंकड़ों के मुताबिक, 2011 में बिहार सबसे नीचे था, अब 2025 में आंध्र प्रदेश सबसे नीचे आ गया। 2011 में राजस्थान नीचे से दूसरे नंबर पर था, अब 2025 के संभावित आंकड़ों में राजस्थान नीचे से चौथे स्थान पर है। एक विडंबना यह है कि मध्य प्रदेश जो राजस्थान से ऊपर था, वह आंकड़ों में राजस्थान से कुछ फीसद पीछे रह गया। वर्ष 2025 के पीएलएफएस के संभावित आंकड़ों में सबसे कम साक्षरता दर वाले प्रदेश आंध्र प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और झारखंड पीछे रह गए। अध्ययन के मुताबिक, 2025 की साक्षरता दर में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि 2011 में केरल पहले स्थान पर था, वहीं अब वह दूसरे स्थान पर आ गया और मिजोरम ने पहला स्थान बना लिया। अब गोवा भी शीर्ष पांच स्थानों में शामिल हो गया है। 2011 में देश की साक्षरता दर 74.04 फीसद थी जो संभावित 2025 में 80 फीसद के लगभग पहुंच रही है।
बिना साक्षरता के विकास की कल्पना अधूरी
विकास में साक्षरता को सबसे महत्त्वपूर्ण आधार माना गया है। यह एक ऐसा उपकरण है जो व्यक्ति को केवल ज्ञान प्राप्त करने में ही सक्षम नहीं बनाता, बल्कि उसे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी जागरूक नागरिक का दर्जा प्रदान करता है। बिना साक्षरता के विकास की कल्पना अधूरी है, क्योंकि निरक्षरता समाज और राष्ट्र की प्रगति की गति को थाम लेती है। यह किसी भी व्यक्ति में जीवन जीने की क्षमता, सोचने-समझने की शक्ति, निर्णय लेने की दक्षता और समाज में सकारात्मक योगदान देने की सामर्थ्य विकसित करती है। इक्कीसवीं सदी में साक्षरता अक्षरज्ञान तक सीमित नहीं हैं, बल्कि तकनीकी ज्ञान, डिजिटल शिक्षा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को भी सम्मिलित करती है।
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शिक्षित समाज में शिक्षा रोजगार के अवसरों को बढ़ाती है। साक्षरता व्यक्तियों को सामाजिक बुराइयों, जैसे अंधविश्वास, भेदभाव और असमानता से लड़ने की शक्ति देती है। निरक्षरता समाज में असमानता को बढ़ावा देती है। राजकीय योजनाओं में बराबरी के अवसर को बाधित करती है, आम आदमी को इसका लाभ निरक्षरता के कारण नहीं मिल पाता। यह लोकतंत्र की प्रक्रिया को भी जटिल बनाती है। इसका एक स्वाभाविक परिणाम सामाजिक असमानता और पिछड़ेपन के मजबूत होने के रूप में सामने आता है।