चीन के बाद भारत दूसरा बड़ा बांस उत्पादक देश है। मगर निर्यात के मामले में चीन हमसे अब भी बहुत आगे है। वह भारत, वियतनाम, जर्मनी, नीदरलैंड और तुर्की जैसे देशों में बांस का सर्वाधिक निर्यात करता है। एक दौर में ब्रिटिश हुकूमत ने बांस को एक पौधे की श्रेणी में रखते हुए इसकी खेती और कटाई पर प्रतिबंधात्मक शर्तें लगाई थीं। दशकों तक इन दमनकारी नियमों के कारण बांस के बहुउपयोग पर कभी ध्यान दिया ही नहीं गया।
बांस को खेती के रूप में स्थापित किए जाने, इससे राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने और पर्यावरण संरक्षण में इसके महत्त्व को देखते हुए वर्ष 2017 में भारत में बांस को घास के रूप में दोबारा वर्गीकृत किया गया। इसका बड़ा लाभ यह हुआ कि देश भर में बांस को प्रतिबंधात्मक नियमों से मुक्ति मिल गई। किसानों को आसानी से इसकी कटाई और परिवहन की अनुमति मिलने लगी। महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों ने इसका लाभ उठाते हुए बांस से विभिन्न तरह की वस्तुएं बनाने की दिशा में पहल की और देश से इनके निर्यात की संभावनाएं भी तेजी से बढ़ीं।
बांस की खेती बहुउपयोगी है। इससे अपशिष्ट जल का उपचार ही नहीं होता, बल्कि हवा भी शुद्ध होती है और मिट्टी का कटाव भी कम होता है। बांस तेजी से बढ़ने वाला पौधा है। यह वातावरण से कार्बन डाईआक्साइड अवशोषित करने में मदद करता है। इसे कम लागत में अधिक उपज देने वाली घास कहा जा सकता है। जंगलों के साथ-साथ शुष्क क्षेत्रों में भी यह उगाया जा सकता है।
कप, प्लेट, टूथब्रश, कंघे और कूड़ेदान आदि के निर्माण में तेजी से बढ़ रहा है बांस का उपयोग
विशेषज्ञों के अनुसार, बांस आमतौर पर तीन से चार वर्ष में कटाई के लिए तैयार हो जाता है। एक बार लगाने के बाद यह चालीस-पचास साल तक पैदावार दे सकता है। कटाई के बाद यह फिर से बढ़ना शुरू कर देता है। आयुर्वेदिक चिकित्सा और प्राकृतिक दवाओं में भी इसका इस्तेमाल होता रहा है। बांस के पाउडर का इस्तेमाल खांसी और अस्थमा जैसे रोगों के लिए किया जाता है। आयुर्वेद में इसके रस का उपयोग बुखार और गर्मी कम करने के लिए किया जाता है।
दुनियाभर में कप, प्लेट, टूथब्रश, कंघे और कूड़ेदान आदि के निर्माण में बांस का उपयोग तेजी से बढ़ रहा है। बांस के रेशे प्राकृतिक रूप से जीवाणुरोधी होने के साथ ही नमी अवशोषित कर त्वचा को सुरक्षित और आरामदेह रखते हैं। इसलिए इसका उपयोग कपड़ा उद्योग में भी किया जा रहा है। यह बल्ली, सीढ़ी, टोकरी और चटाई आदि बनाने में तो काम आता ही है, इससे बनने वाले फर्नीचर भी विविध रूपों में बाजार में अपना स्थान बनाने लगे हैं। खिलौने, कृषि यंत्र और कागज बनाने सहित अन्य साज-सज्जा का समान बनाने में बांस के बढ़ते उपयोग से महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में इसकी खेती कारगर साबित हो रही है। देश-विदेश में बांस का उपयोग जैविक ईंधन तैयार करने के लिए भी किया जाने लगा है। बांस से निर्मित चारकोल का उपयोग पानी एवं वायु शोधन यंत्रों, दवाइयों और सौंदर्य प्रसाधन सामग्री में किया जा रहा है।
राष्ट्रीय बांस मिशन के अंतर्गत बांस के उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए सरकार की ओर से प्रोत्साहन दिया जा रहा है। महाराष्ट्र सरकार ने मनरेगा के तहत बांस की खेती को प्रोत्साहित करने के लिए किसानों को प्रति हेक्टेयर सात लाख रुपए तक की अनुदान राशि देने की पहल की है। सतत विकास के साथ पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से बांस भविष्य में भारत के लिए हरा सोना साबित हो सकता है। अभी महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और दक्षिण के कुछ क्षेत्रों में ही बांस की खेती बड़े स्तर पर होती है। देश में इसकी खेती के प्रसार के लिए केंद्र सरकार ने वर्ष 2017 में भारतीय वन अधिनियम 1927 में संशोधन कर बांस को पेड़ों की श्रेणी से हटा कर घास की श्रेणी में वर्गीकृत किया था।
विषम परिस्थितियों में भी उग सकने वाले बांस की लगभग 136 प्रजातियां
विषम परिस्थितियों में भी उग सकने वाले बांस की लगभग 136 प्रजातियां हैं, मगर इसकी बहु किस्मों के बारे में जानकारी नहीं होने के कारण इसका व्यावसायिक उपयोग भारत में अभी सीमित है। बड़े भूमि क्षेत्र पर उगने के बावजूद इसके निर्यात का लाभ हमें नहीं मिल रहा है। जबकि बांस ऐसा पौधा है, जिसके हर एक भाग का उपयोग विभिन्न कार्यों के लिए अलग-अलग प्रकार से किया जा सकता है। प्रशिक्षण के साथ इस संबंध में जागरूकता से किसानों की आय वृद्धि में यह महती भूमिका निभा सकता है।
क्या लोकतंत्र सिर्फ चेहरा बदलने का खेल है, नेपाल की जनक्रांति में कौन जीता और कौन हारा?
वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि दूसरे पौधों की तुलना में बांस का पौधा तैंतीस फीसद अधिक कार्बन डाईडाक्साइड अवशोषित करता है और पैंतीस फीसद अधिक आक्सीजन प्रदान करता है। चीन में वर्ष 1980 के दशक में बांस की खेती के प्रयासों को गति मिली और आज इससे वह सर्वाधिक आर्थिक लाभ ले रहा है। वहां पचास लाख हेक्टेयर भूमि पर बांस की खेती हो रही है, जबकि भारत में एक करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में बांस की खेती होने के बावजूद इसकी विविधता और उपयोगिता को लेकर जागरूकता का अभाव और विपणन में दिक्कतों के कारण हमें इसका यथोचित आर्थिक लाभ नहीं मिल रहा है। हालांकि जब से केंद्र सरकार ने बांस को घास के रूप में अधिसूचित किया है, तब से महाराष्ट्र में बांस की पैदावार को लेकर प्रभावी प्रयास हुए हैं। इससे बड़ी संख्या में किसानों का रुझान बांस की खेती की ओर हुआ है। वहां बांस से होटल उद्योग और दूसरे उद्योगों के सौंदर्यीकरण की दिशा में भी प्रयास हुए हैं। ऐसे ही प्रयास अगर दूसरे राज्यों में भी होते हैं, तो भविष्य में इसके सकारात्मक परिणाम सामने आ सकते हैं।
ग्रामीण आजीविका सृजन में बांस के उपयोग के लिए वातावरण बनाने की जरूरत
बांस की खेती के लिए उष्ण और आर्द्र जलवायु उपयुक्त होती है। राष्ट्रीय बांस मिशन के तहत बांस की कई किस्मों के उत्पादन को देशभर में प्रोत्साहन के साथ यदि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद और कृषि विश्वविद्यालयों की प्रसार शिक्षा के तहत बांस उत्पादन प्रशिक्षण वृहद स्तर पर आयोजित हों, तो किसानों के आर्थिक सशक्तीकरण में भी बांस अहम योगदान दे सकता है। राजस्थान के राजसमंद जिले के पिपलांत्री गांव में चारागाह भूमि पर बांस लगाने और बांस उत्पादन में विविधता पर काफी काम हुआ है। राजस्थान का यह ऐसा गांव है जहां बांस की कई किस्में एक साथ उगाई जाती हैं। यहां बांस की खेती में अभिनव प्रयोग भी हुए हैं।
प्लास्टिक के बजाय बांस के पर्यावरण-अनुकूल उत्पादों को यदि बंजर और चारागाह भूमि पर उगाने को बढ़ावा दिया जाता है, तो इसके बहुत अच्छे परिणाम भविष्य में मिल सकते हैं। किसानों के लिए आर्थिक लाभ के साथ बांस की खेती पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से भी बहुत अहम है। ग्रामीण आजीविका सृजन में बांस के उपयोग के लिए वातावरण बनाने की जरूरत है। चीन की तर्ज पर बांस की खेती और इससे जुड़े उद्योगों को पारिस्थितिकी पर्यावरण संरक्षण से जोड़ते हुए हमारे यहां बड़े स्तर पर उपलब्ध बंजर भूमि को पुनर्स्थापित करने, कटाव और मरुस्थलों से निपटने तथा ग्रामीण समुदायों की आय में सुधार के लिए बांस की खेती महत्त्वपूर्ण है।