अमेरिका की ओर से थोपे गए शुल्क से अब तक अनिश्चिता बनी हुई है। फिर भी बीते कुछ दिनों में देश के घरेलू बाजार में विभिन्न उत्पादों की खपत में हुई बढ़ोतरी से यह बात जरूर साफ हुई है कि भारत घरेलू मोर्चे पर वैश्विक अस्थिरता के दबाव को सहने में सक्षम हो गया है। वर्ष 2017 से चली आ रही जीएसटी की दरों में कमी के कारण यह उम्मीद बनी है कि इससे अर्थव्यवस्था को फायदा होगा। इन दरों में कमी की जब घोषणा की गई, तो सभी ने यही समझा कि पहले की दरें वास्तव में अधिक थीं और अब इनमें कमी से आम आदमी को जरूर राहत मिलेगी। दिवाली का त्योहार अधिक से अधिक खरीदारी के लिए जाना जाता है।
इस बार भी खरीदारी को लेकर जोश दिख रहा है। जब जीएसटी दरों में सरकार ने कमी की, तो इसे देश की अर्थव्यवस्था के आत्मनिर्भर बनने में मदद मिलने की बात कही गई। इस पर वैश्विक चर्चा हर भारतीय को संतोष देगी। मगर इसका विश्लेषण कई सवाल भी खड़े करता है। इस बात की भी सुगबुगाहट है कि सरकार आर्थिक नीतियों में सुधार मात्र सतही स्तर पर ही कर रही है। बुनियादी परिवर्तन अभी भी नहीं हुआ है। यह भी विचारणीय है कि आर्थिक नीतियों में सतही सुधारों से अल्पकालीन फायदे ही होने हैं। डेढ़ सौ करोड़ की जनसंख्या वाले देश में, जिसकी आधी से ज्यादा आबादी गरीब है, क्या यह उसके लिए ठीक है?
बाजार में तो अरसे से विदेशी उत्पादों की गहरी पकड़
संतोष इस बात का भी है कि जब घरेलू बाजार में खपत इतनी बढ़ रही है, तो इसका प्रत्यक्ष फायदा भारत को मिलेगा। इसके अलावा जीएसटी दरों में कमी के बाद से स्वदेशी उत्पादों की खरीदारी बढ़ाने का लक्ष्य भी प्रमुखता से दिख रहा है। मगर क्या आर्थिक नीतियों में इस बात पर भी जोर है कि स्वदेशी सामानों को वैश्विक स्तर की गुणवत्ता के साथ घरेलू बाजार में उपलब्ध कराया जाएगा? अभी तक इस पक्ष पर चुप्पी छाई है। विश्व की एक बड़ी मोबाइल कंपनी का नया उत्पाद बीते दिनों भारतीय बाजार में बड़ी मांग के साथ चर्चा में रहा।
यह भी एक परिदृश्य है। लिहाजा इस बात को अब एक नए सिरे से समझने की आवश्यकता है कि अमेरिका के थोपे गए शुल्क से भारतीय निर्यात को तो घाटा हो रहा है, लेकिन विदेशी उत्पादों की घरेलू बाजार में अत्यधिक पकड़ क्या आत्मनिर्भर भारत बनने के संकल्प के लिए एक चुनौती नहीं है? इस पर गंभीरता से विचार करना होगा। क्योंकि भारतीय बाजार में विदेशी उत्पाद के दबदबे को कम किए बिना तस्वीर नहीं बदलेगी।
आए दिन भगदड़ से लोगों की हो रही मौत, देश में भीड़ प्रबंधन में ठोस उपायों की दरकार
यह सोचना भी गलत होगा कि जीएसटी दरों में हुई कमी से इस समय केवल भारतीय बाजार को ही मुनाफा मिल रहा है। बाजार में तो अरसे से विदेशी उत्पादों की गहरी पकड़ है। इनमें इलेक्ट्रानिक सामान, वाहन और घरेलू साज-सज्जा इत्यादि का वर्चस्व अधिक है। इसलिए यह प्रश्न भी सामने है कि दरों में हुई कटौती से जहां एक तरफ सरकार ने अपने राजस्व में बहुत बड़ी कमी की है, तो इससे क्या आने वाले वित्तीय बजट में पूंजीगत व्यय पर प्रभाव नहीं पड़ेगा? वैश्विक स्तर पर भारत एक बड़ी अर्थव्यवस्था है। लगभग चार ट्रिलियन डालर की हैसियत रखते हुए वह अपने कदम आगे की ओर बढ़ा रहा है। इस बात से विकसित देशों को डर है। क्योंकि भारत का बहुत बड़ा घरेलू बाजार उसकी आंतरिक ताकत है, जिसे विश्व के सभी विकसित देश अपनी पहुंच में रखना चाहते हैं।
वर्तमान में भारत में शुद्ध घरेलू बचत लगभग पांच फीसद के आसपास
इन सब के बीच अगर भारत आत्मनिर्भर बनने के लक्ष्य को स्वदेशी उत्पादों की खपत से मजबूती के साथ आगे ले जाने में सक्षम हो जाता है, तो सभी विकसित देशों के इरादे पर यह एक तीखा प्रहार होगा। सरकार इस उद्देश्य की तरफ बढ़ती दिख भी रही है। चालू वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही के परिणाम इस बात की पुष्टि भी करते हैं। अप्रैल से जून की तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 7.8 फीसद रही, जो पिछले वर्ष की पहली तिमाही से एक फीसद से अधिक थी। इसी कारण भारतीय रिजर्व बैंक ने वर्ष 2025-26 के लिए वार्षिक वृद्धि दर बढ़ा कर 6.8 फीसद कर दी है। स्पष्ट है कि सरकार की आर्थिक नीतियों और केंद्रीय बैंक में बेहतर समन्वय है।
चेतना के निर्माण का कार्य करती है शिक्षा, परीक्षा में नवाचार के समांतर चुनौतियां
इन सब के बीच भारत की आर्थिक तरक्की में कुछ बाधाएं भी हैं। इनमें सबसे मुख्य निजी निवेश में बढ़ोतरी न होना है। हालांकि, सरकार ने केंद्रीय बजट में लगातार पूंजी निवेश को अपने स्तर पर बढ़ा कर उन्हें प्रोत्साहित करने का हर संभव प्रयास किया है। ऐसी दशा में क्या आर्थिक प्रगति और वार्षिक स्थिरता घरेलू बाजार की खपत के माध्यम से ही निर्देशित करना उचित है? क्या यह समझना नहीं होगा कि घरेलू बचत को बढ़ाना भी एक मुख्य लक्ष्य होना चाहिए था, जो हाल के दिनों में जीएसटी में कटौती से हुई बचत के बाद त्योहारी खर्च में बदल गई। हालांकि इससे मुनाफा अंतत: किसी और को ही हो रहा है। एक रपट के मुताबिक वर्तमान में भारत में शुद्ध घरेलू बचत लगभग पांच फीसद के आसपास ही है। विडंबना यह भी है कि आज भारतीय निवेशक के पास घरेलू बाजार में विकल्प लगातार कम होते जा रहे हैं। बैंक दरों में लगातार कटौती हो रही है। आर्थिक नीतियों का प्रत्यक्ष इशारा घरेलू बचत के लिए पूंजी बाजार के विकल्प की ओर है।
भारतीय कंपनियों का वित्तीय निवेश विदेश में तेजी से बढ़ रहा
भारतीय पूंजी बाजार ने पिछले एक वर्ष में पांच फीसद के आसपास का ही मुनाफा दिया जैसा कि बीएसई सूचकांक और निफ्टी में बीते वर्ष में दर्ज हुआ है। एक विमर्श यह भी है कि पूंजी बाजार में वित्तीय निवेश भारतीय बैंकों की तुलना में अधिक जोखिम भरा है क्योंकि इससे हमेशा अनिश्चितता रहती है। एक बात और अधिक ताज्जुब करने वाली है कि भारतीय कंपनियों का वित्तीय निवेश विदेश में तेजी से बढ़ रहा है। एक रपट के मुताबिक वर्ष 2024-25 में कंपनियों का विदेशी निवेश 40 फीसद बढ़ कर 36 अरब डालर तक पहुंच गया।
एक पक्ष यह भी अहम है कि जीएसटी दरों में हुई कमी से उत्पादों के विक्रय मूल्य जरूर कम हुए हैं, लेकिन क्या संबंधित निर्माताओं ने अपने मुनाफे को कम किया है? बहरहाल, एक संतोषजनक बात देखने को मिली है कि भारत के दूसरे सबसे बड़े बैंक एसबीआइ ने भारतीय अर्थव्यवस्था के आधार स्तंभ एमएसएमई के लिए वित्तीय ऋण को अब डिजिटल माध्यम से शुरू कर दिया है और इससे सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों को आवेदन करने के 45 मिनट के भीतर ऋण की मंजूरी मिल रही है। बैंक इस संदर्भ में आयकर रिटर्न, जीएसटी रिटर्न और बैंक विवरण जैसे प्रामाणिक आंकड़ों को आनलाइन मंच से ही मूल्यांकन कर इसे आगे बढ़ा रहे हैं। अगस्त 2025 में एसबीआइ ने ऐसे 2,25000 उद्यमों को वित्तीय सुविधा दी। निश्चित तौर पर इससे इन उद्यमों की वित्तीय तरलता बढ़ेगी और ये भारत के उत्पादन क्षेत्र के लिए अच्छी खुशखबरी भी है।