अभिषेक मिश्रा

हिंदी भारत की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है जिसे बोलने वालों की संख्या भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी काफी है. 14 सितंबर को प्रत्येक वर्ष स्कूलों और कॉलेजों में हिंदी दिवस मनाया जाता है. हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में प्रत्येक वर्ष भारत सरकार द्वारा नई शिक्षा नीति के तहत मातृभाषा और क्षेत्रीय भाषा के प्रसार के लिए शैक्षणिक संस्थानों में हिन्दी पखवाड़े का आयोजन करवाया जाता है. हिंदी पट्टी के अलावा दक्षिण भारत के कई संस्थानों में भी इस पखवाड़े का आयोजन किया जाता हैं ताकि हिंदी भाषा समृद्ध की जा सके. नई शिक्षा नीति के अंतर्गत इस बात पर खूब जोर दिया गया है कि कैसे हिंदी भाषा को शिखर पर पहुंचाया जाए और इसमें युवाओं को रोजगार का बढ़ावा दिया जाए. इसके लिए 14 सितंबर से शुरू होने वाले हिंदी पखवाड़े में कई संस्थानों में हिंदी नुक्कड़ नाटक, गीत, वाद-विवाद प्रतियोगिता और काव्य पाठ समेत कई अन्य प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है.

इन आयोजनों में शायद ही कभी हिंदी भाषा के लिए रोजगार की बात की जाती है। शिक्षक भी इसे उत्सव की तरह ही मनाते हैं, जिससे प्रतीत होता है कि हिंदी को प्रयोजन मूलक बनाने की दिशा में कोई गंभीर काम नहीं हो रहा है. इन कार्यक्रमों में मूलतः हमें एक राष्ट्रवादी और खास सांस्कृतिक भावनाओं का संचार दिखता है लेकिन क्या इसका प्रभाव साहित्य या समाज के सही निर्माण में हो पाता है? गैर-हिन्दी भाषी क्षेत्रों के लिए इस राष्ट्रवादी भावना का क्या प्रभाव पड़ता है? क्या इस तरह के उत्सवों से वाकई में हिंदी को अंग्रेजी के बरक्स समृद्ध भाषा बनाया जा सकता है? ये तमाम सवाल तभी उठते हैं जब हिंदी पखवाड़ा आता है और इसी दौरान जितने भी कर्मकांड हिंदी को लेकर हो सकते हैं, सब किये जाते हैं लेकिन रोजगार को लेकर आज भी हिंदी का बाजार बहुत पीछे है.

हिंदी के प्रति गैर–हिंदी भाषी लोगों की प्रतिक्रिया

सरकार हिंदी को केवल उत्सव की तरह ही देख रही है. भाषा को लेकर सरकार ने कभी सद्भाव और सहिष्णुता बढ़ाने को लेकर कोई खास काम नहीं किया जिसका प्रभाव ये हुआ कि न तो गैर–हिंदी प्रदेशों ने इसको स्वीकार किया और न ही हिंदी का प्रसार हो पाया. बीते वर्षों में महाराष्ट्र और अन्य गैर-हिंदी भाषी क्षेत्रों में अपनी मातृभाषा को लेकर एक सजगता दिखी जहां उनके क्षेत्र में हिंदी भाषा बोलने वालों के प्रति एक हिंसक विद्रोह दिखा, जो दिखाता है कि जिस तरह सरकार हिंदी भाषा को लेकर तरह-तरह के कार्यक्रम आयोजित करवाती है उससे लोगों में एक रोष दिखता है जो जायज भी है क्योंकि हिंदी का प्रसार भारतीयता का प्रसार नहीं हो सकता.

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उसके लिए अन्य भारतीय भाषाओं को भी साथ लेकर चलना होगा. संविधान में हिंदी को राजभाषा का स्थान प्राप्त है लेकिन तब से ही हिंदी भाषा कई विवादों से घिरी रही और अंग्रेजी में सरकारी कामकाज पूर्ववत जारी रहा. भारत के कई अंग्रेजी लेखकों ने अंग्रेजी भाषा को ही अखिल भारतीय सम्पर्क भाषा के रूप में बढ़ावा देनी की बात कही. लेखक सलमान रुश्दी अपने एक लेख “अंग्रेजी भारत की एक साहित्यिक भाषा” (English is an Indian literary language) में लिखते हैं “यह मुमकिन है कि हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा हो; लेकिन दक्षिण भारत, जो केंद्र सरकार द्वारा हिंदी थोपे जाने से जूझ रहा है, हिंदी के प्रति उसका गुस्सा अंग्रेजी से कहीं ज्यादा है. दक्षिण भारत में कुछ वक्त बिताने के बाद मुझे लगा कि अंग्रेजी भारत में बहुत जरूरी भाषा बन गई है.”

हिंदी के प्रति जनता के भीतर पनपता अविश्वास

हिंदी भाषा और हिंदी की मुख्य धारा की मीडिया को लेकर पिछले कुछ वर्षों में आम जन की धारणा परिवर्तित होती दिखाई देती है. जिससे बुद्धिजीवियों की लेखन की भाषा में भी बदलाव बड़ा रोल है. लोगों में जानकारी का अभाव दिखा और सबसे ज्यादा हिंदी के प्रति, इस अविश्वास में बड़ा योगदान हिंदी पत्रकारों का रहा है. हिंदी में भले ही रिसर्च और जर्नल छपे हों लेकिन उनमें गुणवत्ता और विश्वास की कमी दिखती है. विशेष कर हिंदी भाषा में रिसर्च और उसके प्रसार के लिए बनाई गई संस्थाओं की स्थिति बहुत दयनीय हो चुकी है.हिंदी की संस्थाओं और विश्वविद्यालयों को फंड कटौती से भी जूझना पड़ रहा है. अनुवाद के क्षेत्र में भी बजट में कटौती हुई है, जिससे हिंदी साहित्य और अनुवाद में रोजगार घटते जा रहे हैं. सरकार इस दिशा में बिल्कुल भी गंभीर नहीं दिखती है. हिंदी पढ़ने वालों के बीच रोजगार की उम्मीद और इस उत्सव के दिखावे को लेकर एक असंतोष दिखता है.

बाजार के साथ हिंदी का संघर्ष

हम उस दौर से गुजर रहे हैं जहां अंग्रेजी लेखन का एक बड़ा कैनवस भारत में तैयार हो रहा है. हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी अंग्रेजी का कारपेट तैयार किया जा रहा है. बहुत सारे हिंदी की पत्र-पत्रिकाएं, जर्नल्स और अखबार अपनी लागत तक नहीं निकाल पा रहे हैं. जहां एक ओर सरकार MBBS जैसे कोर्सेज के पाठ्यक्रमों को हिंदी भाषा में लाने का प्रयास कर रही है वहीं दूसरी ओर हिंदी पट्टी के लोग भी इन कोर्सेज में हिंदी माध्यम से एडमिशन लेने से बचते दिख रहे हैं. उन्हें पता है कि हिंदी भाषा की कोई अल्टरनेटिव संरचना बाजार के लिए अभी तक तैयार नहीं की गई है, जिसका प्रभाव शिक्षण प्रणाली में साफ–साफ दिखता है. हिंदी में अभी भी इन बाजार के समकक्ष ऐसे टूल्स विकसित नहीं किए गए हैं जो हिंदी पढ़ने वाले लोगों को रोजगार दिलाने में सक्षम हों. और हास्यास्पद बात यह है कि हिंदी पखवाड़े के बाद सरकार इन डिजिटल स्किल्स और टूल्स की बात तक नहीं करती है. हिंदी भाषी क्षेत्रों खास कर जहां छात्र स्टेट बोर्ड से पढ़ाई करते हैं उन्हें अंग्रेजी भाषा को लेकर कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं. स्टेट बोर्ड के स्कूलों को बंद करा के उनका विलय ज्यादा संख्या वाले विद्यालय में किया जा रहा है. वहां आज भी कंप्यूटर शिक्षा पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा.

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यूपी में प्राथमिक विद्यालयों के साथ ऐसा होता दिखा जहां बच्चों की कम संख्या होने के कारण सरकार ने स्कूलों को मर्ज करने या बंद करने का फैसला लिया, जिससे हिंदी भाषी लोग जिनके पास प्राइवेट स्कूलों में जाने के लिए पैसे नहीं हैं उन्हें शिक्षा मिलना कठिन हो गया है और जिनके पास संसाधन है वे अपने बच्चों का भविष्य हिन्दी भाषा के साथ नहीं देखते हुए कॉन्वेंट में भेजते हैं क्योंकि सरकार द्वारा बाजार अंग्रेजी का गरम किया जा रहा है, जिसमें हिंदी माध्यम से पढ़ने वाले छात्रों को जगह मिलने की गुंजाइश ही नहीं बच रही है. प्राथमिक स्कूलों के बंद किए जाने से बहुत से बच्चों को शिक्षा की व्यवस्था ही नहीं हो पा रही है. जबकि यह उत्सव उनके लिए होना चाहिए जो भाषा सीखने के क्रम में है लेकिन यहां उन्हें स्कूलों का मुंह भी नहीं देखने दिया जा रहा. जिससे उन्हें क्षेत्रीय भाषा के अलावा हिंदी भी नहीं सीखने का मौका मिल पाता है.

हिंदी की मार्केट वैल्यू आज भी अंग्रेजी की अपेक्षा बहुत कम है

हिंदी पखवाड़ा और नई शिक्षा नीति में मातृभाषा और क्षेत्रीय भाषा आवश्यक कर दिए जाने पर हिंदी के प्रति लोगों को उम्मीद दिखी, मगर हिंदी की मार्केट वैल्यू आज भी अंग्रेजी की अपेक्षा बहुत कम है. भले ही भारत में हिंदी बोलने वाले लोगों की संख्या अधिक है लेकिन हिंदी की स्थिति बाजार और अकादमिक जगत में जस की तस बनी हुई है, जबकि नई शिक्षा नीति को आए चार साल हो गए. इसका सबसे बड़ा कारण यह भी है कि हिंदी पट्टी में हिंदी का प्रसार सरकार एक जुमले की तरह प्रयोग करती है क्योंकि भारत में कॉरपोरेट और मल्टी नेशनल कंपनिया अपना पूरा काम अंग्रेजी भाषा में सम्पन्न कराती हैं, जिससे अंग्रेजी का बाजार दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है. हिंदी को सरकार केवल नारे और उत्सव के लिए ही प्रयोग करती हैं जिससे आज भी हिंदी पढ़ने वाले छात्रों में हीनता बोध और नौकरी को लेकर डर बना रहता है.

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सरकार हिंदी भाषा को मजबूत बनाने का दावा तो करती है मगर आईटी और कॉरपोरेट सेक्टर या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजी की जानकारी होना अनिवार्य है. पिछले कुछ सालों में सरकार IIT और IIM जैसे संस्थाओं को भी हिंदी माध्यम से संचालित करने की बात कर रही थी लेकिन जॉब्स के लिए छात्रों को अंग्रेजी का ही सहारा लेना पड़ता है या आगे उन्हें नौकरी के लिए अंग्रेजी से जूझना पड़ता. सरकारी नौकरियों में हिंदी भाषा बहुत सीमित हो चुकी है, चाहे वह रोजगार के स्तर पर हो ,चाहे रिसर्च के स्तर पर या सिनेमा के स्तर पर हो. सरकार भी इस मामले में उदासीन नजर आ रही है. हिंदी से जुड़ी बहुत सी छात्रवृत्ति योजनाओं को पिछले कुछ सालों में बंद किया गया, जैसे प्री मैट्रिक स्कॉलरशिप योजना जो अल्पसंख्यक छात्रों को दी जाती थी, इसके खत्म होने का सीधा असर हिंदी पट्टी के छात्रों पर पड़ा. हिंदी पट्टी के लोगों का विश्वास भी अंग्रेजी की तरफ खिंचा चला जा रहा है. लोग रोजगार के लिए विदेशों का रुख अपना रहे हैं. हिंदी को बढ़ावा देने के नाम पर हिंदी पखवाड़ा उत्सव एक राजनीतिक शस्त्र की तरह उपयोग में लाया जा रहा है. हिन्दी पखवाड़े का प्रयोग एक भावनात्मक जुड़ाव के लिए किया जाता न कि भाषिक समृद्धि को लेकर.

यूपीएससी जैसी परीक्षाओं में अंग्रेजी का बोलबाला

भारतीय लोक सेवा आयोग (UPSC) द्वारा आयोजित परीक्षाओं में ज्यादातर अंग्रेजी माध्यम के लोगों का चयन हो रहा है जिसकी वजह से हिंदी माध्यम से पढ़ने वालों के मन में निराशा होती है. सरकार और सरकारी संस्थाओं में बैठे लोगों जो पखवाड़े के उत्सव को लेकर इतना उत्साहित होते है वे इस को इस संकट पर जरा भी बात करने से बचते हैं, वे हिंदी पखवाड़े को केवल एक सांस्कृतिक उत्सव की तरह मनाते है जिसका न तो साहित्य में कोई योगदान होता है न ही समाज में.

इस लेख में निजी विचार व्यक्ति हैं। लेखक दिल्ली स्थित भारती जनसंचार संस्थान में Ad-PR के छात्र हैं.