हरित क्रांति के बाद जहां देश गेहूं और धान की पैदावार के मामले में आत्मनिर्भर बना है, वहीं अनाज का उत्पादन बढ़ने से इसके भंडारण की समस्या से भी जूझना पड़ रहा है। आज भी सरकारी गोदाम अनाज से भरे पड़े हैं, इसके बावजूद देश में कुपोषण की स्थिति और पौष्टिक आहार की कमी चिंता का विषय बनी हुई है। हालांकि, दलहन और तिलहन उत्पादन के क्षेत्र में हम अब भी पीछे हैं, लेकिन सवाल यह है कि कृषि प्रधान देश कहलाने वाले भारत में यह स्थिति क्यों है?
इसमें संदेह नहीं कि आज भारत में अन्न उत्पादन रेकार्ड स्तर पर है। आंकड़ों पर निगाह डालें तो जहां वर्ष 1950-51 में देश में कुल अन्न उत्पादन सिर्फ 5.08 करोड़ टन था, वहीं आज यह बढ़कर तैंतीस करोड़ टन के पार पहुंच गया है। मगर, देश में अब तक सर्वाधिक ध्यान गेहूं और धान के उत्पादन पर दिया जाता रहा है। लिहाजा, हम दलहन और तिलहन उत्पादन में अपेक्षित प्रगति नहीं कर पाए हैं। हम आज भी साठ हजार करोड़ रुपए से अधिक की दालें आयात कर रहे हैं। यह देश की कुल दाल खपत का करीब तीस फीसद हिस्सा है। खाद्य तेलों के लिए भी हम आयात पर निर्भर है। देश में खाद्य तेलों की कुल खपत का साठ फीसद हम आयात कर रहे हैं।
पिछले एक अरसे में देश में गेहूं तथा चावल की पैदावार में बढ़ोतरी हुई है और अब स्थिति यह है कि सरकारी गोदामों में भंडारण के लिए जगह नहीं है, लेकिन पोषण की दृष्टि से देखें तो अलग ही तस्वीर नजर आती है। दलहन और तिलहन उत्पादन में हम पीछे हैं तथा फल, सब्जियों और मोटे अनाज का उत्पादन एवं खपत दोनों ही सीमित हैं। जाहिर है कि देश में कैलोरी की कमी नहीं है, लेकिन पोषण नहीं मिल पा रहा है। गेहूं और चावल पेट तो भरते हैं, मगर प्रोटीन, आयरन, विटामिन और पोषक तत्त्वों की पर्याप्त आपूर्ति नहीं कर पाते। इसी से कुपोषण की समस्या पैदा हो रही है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5, 2019-21) के आंकड़ों के मुताबिक, देश में पांच साल से कम उम्र के बच्चों के एक बड़े हिस्से की स्थिति चिंताजनक है। लगभग 36 फीसद बच्चे उम्र के हिसाब से छोटे कद वाले हैं, 19 फीसद बच्चों का वजन उनकी लंबाई के अनुपात में कम है और करीब 32 फीसद बच्चे अपनी उम्र के हिसाब से कम वजन के हैं। इसी प्रकार 15 से 49 वर्ष की आधी से अधिक महिलाएं ‘एनीमिया’ यानी खून की कमी से जूझ रही हैं। यह स्थिति पोषक तत्त्वों की कमी से उत्पन्न हो रही है।
विशेषज्ञों के अनुसार, कुपोषण की समस्या कई कारकों के मेल से पैदा होती है। गरीबी और सामाजिक असमानता इसकी सबसे बड़ी वजह है, क्योंकि भोजन की उपलब्धता होने के बावजूद बड़ी आबादी पौष्टिक भोजन खरीदने में सक्षम नहीं होती। दालों और तिलहनों की कमी भी अहम कारण है। प्रोटीन और अच्छी वसा के स्रोत सीमित होने के कारण संतुलित आहार नहीं मिल पाता है। गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं में कुपोषण से बच्चे जन्म से ही कमजोर होते हैं और आगे भी कुपोषण का सिलसिला बना रहता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के अनुसार, कुपोषण बच्चों और माताओं के स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। बच्चों में इसका असर शारीरिक और मानसिक विकास पर पड़ता है। माताओं में खून की कमी तथा प्रसव जटिलताएं बढ़ जाती हैं।
यह खुशी का विषय है कि देश में गरीबी की स्थिति में कमी आ रही है। स्टेट बैंक आफ इंडिया की एक रपट में इसका श्रेय गरीबों को सीधी मदद के लिए सरकार की ओर से चलाए जा रहे कार्यक्रमों को दिया गया है, लेकिन कुपोषण की समस्या बढ़ना चिंताजनक है। संयुक्त राष्ट्र के छह प्रमुख अंतर-एजंसी समूहों की ओर से संयुक्त रूप से जारी विश्व में खाद्य सुरक्षा एवं पोषण की स्थिति-2023 की रपट के मुताबिक, भारत में 2020 और 2022 के बीच 7.4 करोड़ लोग अल्प पोषण के शिकार पाए गए। देश की कृषि उपज का बड़ा हिस्सा गेहूं और चावल पर केंद्रित है, लेकिन प्रति हेक्टेयर उत्पादकता के मामले में अभी भी हम वैश्विक औसत से पीछे है।
आंकड़ों के अनुसार, देश में गेहूं का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 3.5 टन है, जबकि चीन में यह करीब 5.7 टन और फ्रांस में 7.2 टन तक पहुंच चुका है। इसी तरह धान की पैदावार भारत में औसतन चार टन प्रति हेक्टेयर है, जबकि अमेरिका में यह आठ टन और वियतनाम में करीब छह टन है। इस अंतर से पता चलता है कि देश में आधुनिक तकनीक, उच्च गुणवत्ता वाले बीज और सटीक सिंचाई पद्धतियों की अभी भी भारी कमी है, जिस कारण हम प्रति हेक्टयेर उत्पादन में पिछड़ रहे हैं।
केंद्र सरकार कुपोषण की समस्या के निवारण और पोषण सुरक्षा के लिए प्रयास कर रही है। इसके लिए कई योजनाएं लागू की गई हैं। एकीकृत बाल विकास सेवा के माध्यम से छह साल से कम उम्र के बच्चों और उनकी माताओं को पोषण, प्री-स्कूल शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाएं दी जाती हैं। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत मातृ और शिशु स्वास्थ्य पर जोर दिया जा रहा है। राष्ट्रीय पोषण मिशन का लक्ष्य बच्चों और किशोरियों में खून की कमी और कम वजन की समस्या घटाना है। इसके साथ ही 1000 दिवसीय पहल शुरू की गई है, जो गर्भधारण से लेकर बच्चे के पहले दो साल तक के समय को सबसे महत्त्वपूर्ण मानती है। सरकार ने ‘मिलेट वर्ष’ और ‘पोषणयुक्त भारत’ जैसे अभियान भी शुरू किए हैं, इसके बावजूद चुनौतियां बरकरार हैं। हमारे किसान अब भी गेहूं-धान के चक्र से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं।
दाल और तेल के मामले में आयात पर भारी निर्भरता बनी हुई है। यकीनन, पहले भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आइसीएआर) का ध्यान गेहूं और चावल के उत्पादन पर ही रहा है, पर अब उसने हाल के वर्षों में समस्या के समाधान के लिए प्रयास शुरू किए हैं। आइसीएआर ने पोषण से भरपूर 150 से अधिक किस्में विकसित की हैं, मगर इस बारे में किसानों को जागरूक करने के लिए प्रचार-प्रसार को तेज किए जाने की जरूरत है। साथ ही किसानों को दलहन और तिलहन उत्पादन के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित किए जाने की भी जरूरत है।
मगर, बड़ा सवाल यह है कि क्या किसानों को पारंपरिक फसलों का मोह त्याग कर नई दिशा में मोड़ा जा सकता है? किसान ऐसा करना चाहते हैं, पर उनकी अपनी आशंकाएं हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण फसलों को हो रहे नुकसान, बढ़ते कीट प्रकोप और उत्पादन का वाजिब दाम न मिलने के कारण किसान जोखिम उठाने से डरते हैं। निश्चित रूप से फसल विविधीकरण को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इसमें किसानों का भी लाभ है, पर इसके लिए उन्हें जागरूकता के माध्यम से आश्वस्त करना होगा। यदि दाल और तिलहन को न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद में प्राथमिकता मिलेगी, तो किसान गेहूं-धान के चक्र से बाहर आने को तैयार हो सकते हैं। अनाज, फल-सब्जियों तथा दलहन और तिलहन की बर्बादी रोकने के लिए प्रशीतन केंद्र और प्रसंस्करण उद्योग को भी बढ़ावा देना होगा। इसके साथ-साथ पोषण केंद्रित नीतियों के तहत केवल सामान्य भोजन नहीं, बल्कि संतुलित आहार उपलब्ध कराने पर भी जोर देने की जरूरत है।