कुछ समय से ऐसा प्रतीत होता है, मानो हर साल पिछले साल से कुछ अधिक तेज रफ्तार से गुजर रहा है। एक तरह की भ्रामक स्थिति कभी-कभी मन में निर्मित होने लगती है कि जो रफ्तार और व्यस्तता हम महसूस कर रहे हैं, वास्तव में भी क्या जीवन इतनी ही गति से आगे बढ़ रहा है। यह तो निश्चित है कि इस साल के हर महीने हम सब बहुत व्यस्त बने रहे। भले ही हम अपनी व्यावसायिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों में व्यस्त हों, पर इसके अतिरिक्त भी हमारे आसपास कोई न कोई महत्त्वपूर्ण विषय भी लगातार चर्चा में बना रहा। शायद हम सबने यह महसूस किया होगा कि खबरों और मुद्दों की रफ्तार इस बार पहले से अधिक तेज बनी रही। एक विषय आता, उतनी ही जल्दी वह गुजर जाता और उसकी जगह कोई नया विषय ले लेता।

जब कुछ नया विषय हमें नहीं मिलता, तब हमारे पास अलग-अलग मनोरंजन के साधन बने रहे। हम सेकंडों और मिनटों के रील में उलझे रहे, तो कभी खुद के चित्रों को हमारे नए साथी कृत्रिम बुद्धिमत्ता या एआइ के जरिए अलग-अलग तेवर देते रहे। कुछ न कुछ अनोखा आजमाते रहे, जिसे हम चाह कर भी सीखना नहीं कह सकते, क्योंकि सीखने का मकसद व्यापक अर्थ लिए होता है। यह सब केवल सुगम मनोरंजन की श्रेणी में ही रहा।

कम अवधि में बड़ा मजा इस साल का सबसे बड़ा आकर्षण हम सब के लिए रहा। जहां फिल्मों में जीवन से प्रेरित कहानियों को लगभग तीन घंटे में प्रस्तुत किया जाता रहा है, हमने अपने वास्तविक जीवन के किसी सामान्य से दिन को कुछ मिनटों और सेकंडों में ही बांट दिया है। यही हमारी एकाग्रता की अवधि का सर्वोच्च समय बन गया है।

थोड़ी-सी जानकारी से ही हम सब कुछ सीख-समझ लेते हैं और कुछ मिनट में ही प्रसारित भी कर देते हैं। हम गंभीर मुद्दों पर भी त्वरित प्रतिक्रिया देने में सक्षम हो गए हैं, क्योंकि हम आनलाइन माध्यम पर बहुत से प्रभावशाली या नामी-गिरामी हस्तियों का लिखा पढ़ते रहते हैं और हमें सब जानकारी मिल जाती है। खबरों की हम तक पहुंचने की रफ्तार बहुत अधिक है, इसलिए खुद से सोचने-समझने का समय अब हमारे पास बचता ही नहीं है।

हम केवल मूकदर्शक से बने हुए हैं, जो बिना थमे सब कुछ ग्रहण किए जा रहे हैं। यह सोचना जरूरी है कि ये दौड़ते पहिए इस जीवन पर किसने कस दिए हैं। क्या हम वास्तविकता देख रहे हैं? क्या सकारात्मक बदलाव की लहर भी उतनी ही रफ्तार से जीवन में और दुनिया में खुशियां फैला रही है? या हम सब केवल आभासी दुनिया में ही व्यस्त बने हुए हैं? जो कुछ हो रहा है, वह स्क्रीन के उस तरफ है और हमारी आंखों के ठीक सामने।

जरूरत है कि स्क्रीन को हटाकर हम अपने आसपास खुली आंखों से जीवन को देखें। देश और दुनिया की वास्तविकता का खुद के विवेक से अवलोकन करें। फटाफट भागते युग में पलक झपकते ही कोई एक देश से दूसरे देश पहुंच जाता है, तो हमें लगता है दुनिया तेज रफ्तार से आगे बढ़ रही है, पर किसी के रोज की भोजन थाली में रोटी और चटनी के साथ सब्जी को जोड़ने में उसे कई साल लग जाते हैं।

बदलाव की रफ्तार, उसकी चाल, दिशा और मकसद को समझना पेचीदा है। कुछ बदलाव पल भर में आ जाते हैं, कुछ को पूरा जीवन लग जाता है और उसके बाद भी जरूरी बदलाव नहीं आ पाते। कार चलाते व्यक्ति का हवाईजहाज में बैठने का सफर संभव है, कुछ वर्षों में तय हो जाए, पर पैदल चलते मुसाफिर को सामान्य सुरक्षित परिवहन तक मिलना भी मुश्किल हो सकता है।

जब संपन्न परिवार के बच्चों के लिए विदेश में पढ़ाई करना सामान्य होता जा रहा है, तो हमें लगने लगता है, आज का समय कितनी संभावनाएं लिए हुए है। वहीं किसी मजदूर ने वर्षों तक रुपए जुटा कर अपने बच्चे को शिक्षित किया है, पर अब बच्चा नौकरी के लंबे इंतजार में है, उनका समय वहीं रुक-सा जाता है। अपनी ही तरह अपने बच्चे को मजदूर न बनाने का दृढ़ इरादा, मेहनत के अनुसार पारिश्रमिक और सम्मान न मिल पाने की हताशा से उपजा निर्णय है, जो आगे बढ़ने के सारे दरवाजे किसी के लिए बंद कर देता है।

इस तरह का संघर्ष बरसों से एक-सा बना हुआ है। अगर वास्तव में इस रफ्तार से समय बेहतर हो रहा है, तो यकीनन मूलभूत सुविधाएं सबकी पहुंच में हो रही होंगी। अगर हमारा समाज शिक्षित और सभ्य बन रहा है, तो हमारे विषय अब पहले से अलग होंगे, हमारा शब्दकोश शिष्टाचार के शब्दों से भरा हुआ होगा, हमारे भीतर उदारता और सहिष्णुता होगी। हम सब अब सुरक्षित और भविष्य को लेकर निश्चिंत महसूस करते होंगे।

यह जीवन चकाचौंध रोशनी से कभी नहीं भर सकता। उसमें तो ठीक से देखना भी मुश्किल होता है। हम कितनी देर तक देख सकते हैं अपने मोबाइल की स्क्रीन से बिखरती रंग-बिरंगी चमकीली रोशनी को? हमें मद्धिम रोशनी की जरूरत है, जिसमें धीरे-धीरे स्वाभाविक रूप से चीजें बदलती हुई स्पष्ट नजर आएं।

प्रगति होती है, तो मुस्कुराहट हमारे आसपास ही खिलती नजर आती है। छोटे-छोटे ईमानदार प्रयास धीरे-धीरे शक्ल लेते हैं। हमें अपनी इंद्रियों पर विश्वास करके खुद देखना और महसूस करना चाहिए। भले ही हमें सब कुछ तेज गति में देखने की आदत-सी हो गई है, पर वास्तविकता ठहराव की मांग करती है।

अपने मोबाइल, लैपटाप की स्क्रीन को कोने में रखकर हम एक बार खुद पर और अपने आसपास पर गौर कर सकते हैं। आम आदमी आज भी मेहनत कर अपना संघर्ष से भरा रास्ता तय कर रहा है, जहां आज भी उसकी यात्रा बहुत लंबी और मद्धिम बनी हुई है। गैरजरूरी व्यस्तताओं से खुद को मुक्त कर आज के समय की इस रफ्तार की लगाम को पकड़, इसे सही दिशा देना हम सब की नैतिक जिम्मेदारी है।