राजस्थान और मध्य प्रदेश में पिछले दिनों खांसी की दवा से बच्चों की मौत ने देश के दवा उद्योग में लापरवाही और मनमानी की तरफ सबका ध्यान आकर्षित किया था। इसके अलावा ‘ओआरएस’ के नाम पर बिक रहे पेय पदार्थों और दूसरे उत्पादों से जुड़े मामले सामने आने की घटनाओं ने इस बात को और पुख्ता किया है। जयपुर में दवा एवं खाद्य सुरक्षा विभाग ने शहर की कई दवा दुकानों पर छापेमारी कर बड़ी संख्या में ऐसे पेय पदार्थ (एनर्जी ड्रिंक) जब्त किए, जो ओआरएस से मिलते-जुलते नामों से बाजार में बेचे जा रहे थे।
इस तरह के पेय पदार्थ देश के अन्य हिस्सों में भी बेचे जा रहे हैं, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। पहली नजर में यह मामूली बात लग सकती है, परंतु असल में यह मामला झूठे दावे, मुनाफाखोरी और लोगों की सेहत के साथ खिलवाड़ से जुड़ा है।
ये पेय पदार्थ इस तरह प्रस्तुत किए जाते हैं कि आमजन यह मान लें कि ये उल्टी, दस्त या शरीर में पानी की कमी होने जैसी स्थिति में उपयोग किए जाने वाले असली ओआरएस का विकल्प हैं। हकीकत यह है कि ये उत्पाद सिर्फ सुगंधित पेय हैं, जिनमें सोडियम, पोटेशियम या ग्लूकोज जैसे आवश्यक तत्त्व नहीं होते हैं। संबंधित कंपनियां अपने मुनाफे के लालच में न केवल उपभोक्ताओं की जेब ढीली कर रही हैं, बल्कि उनके स्वास्थ्य को भी खतरे में डाल रही हैं।
भारत में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में अतिसार मृत्यु का तीसरा सबसे बड़ा कारण है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित ओआरएस का घोल शरीर से खोए पानी और इलेक्ट्रोलाइट्स की भरपाई करता है तथा गंभीर स्थितियों में जीवनरक्षक सिद्ध होता है। यदि ओआरएस के नाम पर किसी व्यक्ति को सिर्फ मीठा सुगंधित पेय पदार्थ दे दिया जाए, तो उसका परिणाम घातक हो सकता है। इससे न केवल शरीर में पानी की कमी की समस्या और बढ़ सकती है, बल्कि छोटे बच्चों में यह जानलेवा भी साबित हो सकता है।
ऐसे मामलों को लेकर बाल रोग विशेषज्ञ डाक्टर शिवरंजनी संतोष ने आठ वर्ष तक लगातार संघर्ष किया। उन्होंने भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआइ) का ध्यान इस गंभीर विषय की ओर आकर्षित किया कि किस तरह कुछ कंपनियां अपने उच्च शर्करा युक्त पेय पदार्थों को ओआरएस के नाम से बेचकर उपभोक्ताओं को भ्रमित कर रही हैं।
इन उत्पादों में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा तय मानकों के अनुसार इलेक्ट्रोलाइट्स नहीं होते और चीनी की मात्रा अत्यधिक होती है। इन्हीं प्रयासों का परिणाम था कि एफएसएसएआइ ने 14 अक्तूबर 2025 को आदेश जारी करके ‘ओआरएस’ शब्द के गलत इस्तेमाल पर रोक लगा दी।
एफएसएसएआइ का यह कदम जनस्वास्थ्य की दृष्टि से अत्यंत आवश्यक था। यह स्पष्ट किया गया कि केवल वही उत्पाद ओआरएस कहलाएंगे, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा-निर्देशों के अनुरूप हों। अन्य किसी भी पेय पदार्थ या उत्पाद को अपने नाम या लेबल में ‘ओआरएस’ शब्द का प्रयोग करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
यह निर्णय जनता की सुरक्षा के दृष्टिकोण से सराहनीय है, मगर इस कदम का व्यावसायिक जगत में भारी विरोध भी हुआ। एक विदेशी कंपनी की भारतीय इकाई ने इस निर्णय के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दायर की। कंपनी का तर्क था कि पहले उन्हें इस तरह के उत्पाद बेचने की अनुमति दी गई थी और उन्होंने उसी के आधार पर बड़े पैमाने पर उत्पादन किया है। अगर अचानक इसकी बिक्री पर रोक लगा दी जाती है, तो कंपनी को करीब करोड़ों रुपए का नुकसान होगा। अदालत ने कंपनी के पक्ष को सुनने की आवश्यकता मानते हुए एफएसएसएआइ के आदेश पर अंतरिम रोक लगा दी।
यहां यह समझना आवश्यक है कि ऐसे पेय पदार्थों की समस्या केवल कानूनी नहीं, बल्कि नैतिक भी है। कंपनियों को यह भली-भांति ज्ञात है कि आम उपभोक्ता उत्पादों पर लिखी सूक्ष्म जानकारी नहीं पढ़ता। जब किसी उत्पाद का नाम ओआरएस से मिलता-जुलता होता है, तो उपभोक्ता स्वाभाविक रूप से उसे ओआरएस का विकल्प मान लेता है। इससे न केवल भ्रम पैदा होता है, बल्कि सामाजिक जिम्मेदारी और व्यावसायिक पारदर्शिता पर भी प्रश्नचिह्न लग जाता है।
जब कोई उत्पाद स्वास्थ्य से जुड़ा होता है, तब उसमें थोड़ी सी लापरवाही भी घातक साबित हो सकती है। खासकर बच्चों और बुजुर्गों के लिए यह अत्यंत संवेदनशील मामला है। यह स्थिति इस बात का प्रमाण है कि उपभोक्ता जागरूकता और नियामक कार्रवाइयों का समन्वय होना कितना जरूरी है।
यदि इस मामले को व्यापक नजरिए से देखा जाए तो यह केवल ओआरएस तक सीमित नहीं है। यह मामला हमारे खाद्य और औषधि प्रणाली के उस पक्ष को भी उजागर करता है, जहां व्यावसायिक हित अक्सर जनता के हित पर भारी पड़ जाते हैं। आजादी के इतने वर्षों बाद भी भारत में स्वास्थ्य सेवाएं सभी लोगों तक नहीं पहुंच पा रहीं। इस स्थिति में जनता के विश्वास के साथ खिलवाड़ किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं हो सकता। यह जरूरी है कि कानून, न्यायपालिका और नियामक संस्थाएं सभी मिलकर इस तरह के मामलों में त्वरित और निर्णायक कार्रवाई करें।
साथ ही आम लोगों में जागरूकता और प्रतिबद्धता भी बड़ा परिवर्तन ला सकती है। अब जरूरत है कि इस तरह की पहल को ठोस कानूनों और सख्त प्रवर्तन के माध्यम से आगे बढ़ाया जाए, ताकि किसी को भी झूठे प्रचार के जरिए मुनाफाखोरी का अवसर न मिले। एफएसएसएआइ ने स्पष्ट कहा है कि अदालत में मामला निपटने के बाद ऐसे सभी उत्पादों पर प्रतिबंध लागू किया जाएगा और उन्हें बाजार से हटाया जाएगा।
यह संदेश न केवल संबंधित कंपनियों के लिए चेतावनी है, बल्कि उपभोक्ताओं के लिए भी एक सबक है कि उन्हें अपनी सेहत से जुड़ी हर चीज के बारे में जानकारी रखनी चाहिए। किसी भी उत्पाद को खरीदने से पहले उसके घटकों और निर्माता के बारे में जानकारी जरूर हासिल कर लेनी चाहिए।
अंतत: यह सवाल उठता है कि क्या भारत में नियामक प्रक्रियाएं पर्याप्त रूप से प्रभावी हैं? क्या उपभोक्ता कानूनों का पालन सख्ती से हो रहा है? यदि नहीं, तो यह समय है कि सरकार, अदालत और समाज तीनों मिलकर जवाबदेही तय करें। जब तक उपभोक्ताओं का विश्वास बहाल नहीं होता, तब तक किसी भी तरह का सुधार अधूरा रहेगा। इस मामले से स्पष्ट संदेश है कि मुनाफाखोरी और उपभोक्ता सुरक्षा एक साथ नहीं चल सकते। बाजार की स्वतंत्रता आवश्यक है, मगर वह स्वतंत्रता तब तक ही सार्थक है, जब तक वह समाज और स्वास्थ्य के लिए खतरा न बने।
झूठे दावों, अधूरी जानकारी और भ्रम उत्पन्न करने वाला प्रचार करने जैसी प्रवृत्तियों को सख्ती से रोका जाना चाहिए। कंपनियां अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को समझें और सरकार उन्हें उसके लिए जवाबदेह बनाए। उपभोक्ताओं के विश्वास और स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर लाभ कमाने की कतई छूट नहीं दी जानी चाहिए। अगर सामाजिक दायित्व और नैतिकता को दरकिनार कर मुनाफे पर ही ध्यान केंद्रित किया जाएगा, तो वह निश्चित रूप से घातक साबित होगा।
