ऐसा लगता है कि आधुनिक जीवनशैली में प्लास्टिक एक अनिवार्य तत्त्व बन गया है। यह भले ही सस्ता, टिकाऊ और बहुपयोगी होता है, लेकिन यही प्लास्टिक आज हमारे पर्यावरण के लिए एक गंभीर संकट बन चुका है। प्लास्टिक प्रदूषण विश्व स्तर पर चिंता का विषय है और यह न केवल भूमि को, बल्कि जल और वायु को भी प्रदूषित कर रहा है। यह प्रदूषण मनुष्य, पशु-पक्षियों और समुद्री जीवों समेत संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित कर रहा है। यही वजह है कि आज दुनियाभर के लिए प्लास्टिक कचरा बड़ी मुसीबत बन चुका है।

विश्व स्तर पर हर वर्ष लगभग चार करोड़ लाख टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है, जो पिछले दो दशकों में तेजी बढ़ा है। इसमें से लगभग अस्सी लाख टन प्लास्टिक समुद्रों में पहुंचता है, जिससे समुद्री जीवों की करीब सात सौ प्रजातियों पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। भारत में भी लगभग 56 लाख टन प्लास्टिक कचरा प्रतिवर्ष पैदा हो रहा है, जिसका पर्यावरण पर प्रतिकूल असर साफ तौर पर देखा जा रहा है।

हाल के वर्षों में प्लास्टिक प्रदूषण के प्रभाव को लेकर जो कुछ स्पष्ट हुआ है, उसमें जलवायु परिवर्तन के साथ इसका बढ़ता संबंध भी शामिल है। यह ऐसे समय में चिंता बढ़ा रहा है, जब दुनिया जलवायु परिवर्तन के कारण कई तरह के संकट का सामना कर रही है। वास्तव में प्लास्टिक दुनिया के लिए एक बड़ा खतरा बनता जा रहा है और वैश्विक तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रहने में भी यह बाधा पैदा करता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि प्लास्टिक के पुनर्चक्रण में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है।

हमारी पृथ्वी पर प्लास्टिक का दुष्प्रभाव व्यापक है

प्लास्टिक के उत्पादन और उपभोग में पृथ्वी के कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का लगभग 3.3 फीसद हिस्सा शामिल है। ये देखने में मामूली लग सकता है, लेकिन प्लास्टिक का हमारी पृथ्वी पर दुष्प्रभाव व्यापक है। ऐसे में ये याद करना जरूरी है कि प्लास्टिक की थैली या पानी की बोतल जो हम फेंक देते हैं, वह हमारी धरती के लिए कितनी बड़ी मुसीबत बन गई है। प्लास्टिक का कचरा न सिर्फ हमारे आस-पास गंदगी फैलाता है, बल्कि ये धरती को गर्म करने वाली गंभीर समस्या जलवायु परिवर्तन को भी गति देता है।

बदलते जलवायु और वैश्विक ताप की वजह से हिमनद तेजी से पिघल कर समुद्र का जलस्तर बढ़ा रहे हैं। इससे समुद्र किनारे बसे अनेक कस्बों एवं महानगरों के डूबने का खतरा मंडराने लगा है। बीते दो दशक में ये स्पष्ट हुआ है कि वैश्वीकरण की नवउदारवादी और निजीकरण की प्रक्रिया ने हमारे सामने बहुत-सी चुनौतियां खड़ी कर दी है। जिससे आर्थिक विकास के माडल लड़खड़ाने लगे है। मौजूदा वक्त में पूरी दुनिया विभिन्न पर्यावरणीय चुनौतियों से जूझ रही है। इनसे निपटने के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न प्रकार के प्रयास भी किए जा रहे हैं। मगर, मौजूदा चुनौतियों के सामने ये प्रयास कारगर साबित नहीं हो रहे हैं। यह सर्वविदित है कि इंसान और प्रकृति के बीच गहरा संबंध है।

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इंसान के लोभ, सुविधावाद एवं तथाकथित विकास की अवधारणा ने पर्यावरण का भारी नुकसान पहुंचाया है, जिस कारण न केवल नदियां, वन, रेगिस्तान, जलस्रोत सिकुड़ रहे हैं, बल्कि हिमनदों के पिघलने की रफ्तार भी तेज हो रही है। तापमान का 50 डिग्री पार करना वास्तव में खतरे का संकेत है, जिससे मानव जीवन भी असुरक्षित होता जा रहा है। बढ़ते तापमान ने न केवल जीवन को जटिल बनाया है, बल्कि इससे अनेक लोगों की जान भी गई है। पूरी दुनिया में बढ़ता प्लास्टिक प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन जैव विविधता विनाश का एक जहरीला मिश्रण बनता जा रहा है। यह स्वस्थ भूमि को रेगिस्तान में बदल रहा है, समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्र को कमजोर कर रहा है और इससे मानव जीवन पर तरह-तरह के खतरे पैदा हो रहे हैं।

1907 में हुई थी प्लास्टिक की खोज

विदित रहे कि प्लास्टिक की खोज वर्ष 1907 में की गई थी, बहुत कम समय में ही इसका उपयोग बढ़ गया। कभी वरदान समझा जाने वाला प्लास्टिक आज दुनिया के लिए बड़ी समस्या बन चुका है। भले ही प्लास्टिक ने हमारे जीवन को काफी आसान बनाया है, लेकिन दूसरी तरफ यह आज धरती के लिए एक बड़ी चुनौती भी बन गया है। सस्ता और टिकाऊ होने की वजह से प्लास्टिक का उपयोग बड़े पैमाने पर हो रहा है। इस कारण हर साल लाखों टन का प्लास्टिक कचरा पैदा होता है, जोकि पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहुंचाने का काम करता है।

प्लास्टिक कचरा नदियां, समुद्र, वायु हर जगह फैल चुका है, इसलिए इसे वैश्विक आपदा की संज्ञा देना गलत नहीं होगा। आज प्लास्टिक प्रदूषण दुनिया के हर कोने में फैल चुका है, यह हमारे पीने के पानी, भोजन और पर्यावरण में समा रहा है। इस स्थिति में प्लास्टिक कचरे की गंभीर समस्या से निपटने के लिए वैश्विक संकल्प की जरूरत है। यह अब सिर्फ पर्यावरण का मुद्दा नहीं, बल्कि वैश्विक मानव अस्तित्व और स्वास्थ्य के लिए भी एक गंभीर खतरा बन चुका है। पिछली सदी में जब प्लास्टिक के विभिन्न रूपों का आविष्कार हुआ, तो उसे विज्ञान और मानव सभ्यता की बहुत बड़ी उपलब्धि माना गया था। अब जब हम न तो इसका विकल्प तलाश पा रहे हैं और न इसका उपयोग ही रोक पा रहे हैं, तो क्यों न इसे विज्ञान और मानव सभ्यता की सबसे बड़ी असफलता मान लिया जाए?‘

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कम्युनिकेशन्स अर्थ एंड एनवायरनमेंट’ पत्रिका में प्रकाशित एक नई रपट के अनुसार, दुनिया भर में प्लास्टिक का उत्पादन हर साल 8.4 फीसद की दर से बढ़ रहा है, जबकि इसके पुनर्चक्रण की दर 9.5 फीसद तक ही सीमित है। यह खतरनाक असंतुलन न केवल धरती पर प्लास्टिक कचरे का पहाड़ खड़ा कर रहा है, बल्कि इंसानों और जीव-जंतुओं की सेहत पर भी नकारात्मक असर डाल रहा है। रपट में कहा गया है कि वर्ष 2022 में वैश्विक स्तर पर चालीस करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन हुआ, जिसमें से केवल 3.8 करोड़ टन का ही पुनर्चक्रण किया गया। अनुमान है कि प्लास्टिक उत्पादन की मौजूदा रफ्तार इसी तरह जारी रही तो वर्ष 2050 तक यह आंकड़ा दोगुना होकर अस्सी करोड़ टन तक पहुंच सकता है, जो पूरी दुनिया में एक बड़े संकट का रूप ले सकता है।

भारत में सरकार की ओर से पूर्व में देश को स्वच्छ भारत मिशन के तहत एकल उपयोग प्लास्टिक को बंद करने की घोषणा की गई है। हालांकि इस दिशा में अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। सरकार की ओर से इस मामले में जागरूकता और प्रोत्साहन की अभी भी बहुत जरूरत है। संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएनईपी की एक रपट के मुताबिक, अच्छी योजना के साथ काम किया जाए तो प्लास्टिक से दूरी बनाने पर दुनिया वर्ष 2040 के अंत तक 4,500 अरब डालर बचा सकती है।

इसमें एकल उपयोग प्लास्टिक का उत्पादन न करने से बचने वाली लागत भी शामिल है। वैसे फिलहाल एक बड़ी राशि प्लास्टिक के कारण सेहत और पर्यावरण को हो रहे नुकसान पर खर्च हो रही है। जलवायु परिवर्तन पर प्लास्टिक उत्पादन का प्रभाव एक ऐसा क्षेत्र है, जिस पर समय रहते गंभीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है। इस समस्या से निजात पाने के लिए न केवल प्रभावी नीति निर्माण, बल्कि वैश्विक सहयोग, तकनीकी नवाचार और जन-भागीदारी की भी नितांत जरूरत है। वरना वह दिन दूर नहीं, जब प्लास्टिक का जहर हमारी अगली पीढ़ियों की सांसों तक पहुंच जाएगा।