पर्यावरण पर वैश्विक निगरानी रखने वाली संस्था ‘बासेल एक्शन नेटवर्क’ (बीएएन) की ताजा रपट में जानकारी दी गई है कि अमेरिका से लाखों टन खराब इलेक्ट्रानिक सामग्री कई देशों में ठिकाने लगाने के लिए भेजी जा रही है। इनमें से अधिकांश दक्षिण पूर्व एशिया के विकासशील देश हैं। इन देशों में इस खतरनाक कचरे को सुरक्षित रूप से नष्ट करने का कोई उपाय नहीं है, इसलिए वे इसे लेने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं हैं। बावजूद इसके अमेरिका की दस बहुराष्ट्रीय कंपनियां इस्तेमाल की अवधि समाप्त हो चुके इलेक्ट्रानिक्स सामानों को एशिया और पश्चिमी एशिया के गरीब देशों में ठिकाने लगा रही हैं। इस ई-कचरे से कई चुनौतियां पैदा होने वाली हैं।

बीएएन की रपट के अनुसार यह ई-कचरे की अदृश्य सुनामी है, क्योंकि विकासशील और गरीब देश इस कचरे का पुनर्चक्रण करने में समर्थ नहीं हैं। फिर भी कुछ ताकतवर देश इन देशों को अपने कचरे का ठिकाना बनाने में कोई संकोच नहीं कर रहे हैं। लिहाजा अब पर्यावरण को हानि पहुंचाने वाली संस्थाओं को यह आकलन करना कठिन हो रहा है कि घातक कचरा जिन देशों में फेंका जा रहा है, वहां का वायुमंडल किस हद तक प्रभावित और प्रदूषित होगा।

इसका वहां के लोगों के स्वास्थ्य पर कितना असर पड़ेगा, यह अंदाजा कोई नहीं लगा पा रहा है। इस कचरे में कंप्यूटर, लैपटाप, टैबलेट, मोबाइल और दूसरे उपकरण शामिल हैं। इनमें सीसा, कैडमियम और पारा जैसी सामग्रियां हैं, जो मूल्यवान होने के साथ विषाक्त हैं। जैसे-जैसे तकनीकी उपकरण नई विशेषताओं के साथ तेजी से बदले जा रहे हैं, वैसे-वैसे पुनर्चक्रित नहीं किए जाने वाला कचरा पांच गुना बढ़ता जा रहा है।

2030 तक ई-कचरा 8.2 करोड़ मीट्रिक टन हो जाने का अनुमान

संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय दूरसंचार संघ और अनुसंधान शाखा (यूएनआइटीएआर) के अनुसार एकत्रित आंकड़े बताते हैं कि वैश्विक स्तर पर वर्ष 2022 में 6.2 करोड़ मीट्रिक टन ई-कबाड़ पैदा किया गया। वर्ष 2030 तक इसकी मात्रा 8.2 करोड़ मीट्रिक टन हो जाने का अनुमान है। रपट के अनुसार हर महीने लगभग दो हजार कंटेनरों में अमेरिका में इस्तेमाल किया गया लगभग 33 हजार मीट्रिक टन ई-कचरा वहां के बंदरगाहों से बाहर भेजा जाता है। इन कंटेनरों की आपूर्ति कई कंपनियां करती हैं।

संबंधित देशों के साथ इनका लेन-देन चलता है। ये आमतौर पर कचरे का स्वयं पुनर्चक्रण करने के बजाय इसे लाचार गरीब देशों के बंदरगाहों पर उतार देती हैं। यह कचरा एशियाई देशों में लगातार कचरे के बोझ को बढ़ा कर कई तरह के पर्यावरणीय संकट पैदा कर जलवायु और पृथ्वी को प्रदूषित कर रहा है। इस कचरे से घातक गैसों का उत्सर्जन कुछ वर्षों बाद होने लगता है। गौरतलब है कि इनसे पैदा होने वाला जहरीला रसायन जल और मिट्टी को दूषित करता है।

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इस कचरे का बहुत बड़ा हिस्सा गरीब लोग अपनी आजीविका चलाने के लिए कबाड़खानों में पहुंचा देते हैं। यहां काम करने वाले मजदूर प्राय: बिना किसी सुरक्षा उपकरणों के उन्हें हाथों से जला कर या पिघला कर या फिर अलग कर खोलते हैं। इस प्रक्रिया में विषाक्त धुआं निकलता है, जो अत्यंत हानिकारक होता है। ‘बासेल एक्शन नेटवर्क’ की संधि के मुताबिक इस्तेमाल किए गए ई-कचरे को एक देश से दूसरे देश भेजने की अनुमति केवल ऐसे कचरे के लिए है, जिसे पुनर्चक्रित कर फिर से इस्तेमाल किया जा सके और जो पर्यावरण को प्रदूषित नहीं करता हो। मगर ये कंपनियां ऐसी किसी नियम या शर्त का पालन नहीं कर रही हैं। यही कारण है कि दुनिया में पुनर्चक्रण की तुलना में ई-कबाड़ में पांच गुना वृद्धि हो रही है।

मानव शरीर और पर्यावरण को हानि पहुंचाने वाले हैं ई-कचरा

आज ई-कचरा, जिसमें बड़ी मात्रा में प्लास्टिक के उपकरण भी शामिल हैं, इन्हें नष्ट करना भारत सहित दुनिया के कई देशों के लिए मुश्किल हो रहा है। इसे नष्ट करने के जैविक उपाय तलाशे जा रहे हैं। जापान के क्योटो विश्वविद्यालय ने एक ऐसे जीवाणु के अनुसंधान का दावा किया है, जो जैविक रूप से प्लास्टिक को नष्ट कर सकता है। हालांकि भारत में यही काम औद्योगिक एवं प्रौद्योगिकी कचरे को नष्ट करने के लिए केंचुओं से कराया जा रहा है। औसतन एक टन ई-कचरे के टुकड़े कर उसे यांत्रिक तरीके से पुनर्चक्रित किया जाए, तो लगभग 40 किलो धूल या राख जैसा पदार्थ तैयार होता है। इसमें अनेक कीमती धातुएं समाहित रहती हैं। इन धातुओं को अलग करने की प्रक्रिया में हाथों से छंटाई, चुंबक शक्ति से विलगीकरण, विद्युत-विच्छेदन, सेंट्रीफ्यूजन और आस्मोसिस जैसी तकनीक शामिल हैं, लेकिन ये तरीके मानव शरीर और पर्यावरण को हानि पहुंचाने वाले हैं। इसलिए ‘बायो-हाइड्रो मेटलर्जिकल तकनीक’ कहीं ज्यादा बेहतर मानी जा रही है।

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इस तकनीक को अमल लाते वक्त सबसे पहले ‘बैक्टीरियल लीचिंग प्रोसेस’ का प्रयोग किया जाता है। इसके लिए ई-कचरे को बारीक पीस कर उसे जीवाणुओं के साथ रखा जाता है। बैक्टीरिया में मौजूद एंजाइम कचरे में उपस्थित धातुओं को ऐसे यौगिकों में बदल देते हैं कि उनमें गतिशीलता पैदा हो जाती है। ‘बायो-लीचिंग’ की विधि में जीवाणु कुछ विशेष धातुओं को अलग करने में मदद करते हैं। हालांकि कई प्रकार के जीवाणुओं और फफूंद का उपयोग प्रिंटेड सर्किट बोर्ड से सीसा, तांबा और टिन को अलग करने के लिए किया जाता रहा है। इसके लिए जीवाणुओं की बेसिलस प्रजातियां मसलन ‘सेक्रोमाइसिस सिरेविसी’ या ‘यारोविया लाइपोलिटिका’ प्रयोग में लाई जाती हैं।

बड़े पैमाने पर युवाओं को रोजगार तो मिलेगा

यदि ई-कचरे को पेड़ की छाल की तरह छीलन में बदल कर पांच से दस ग्राम प्रति लीटर की सांद्रता में घोल कर ‘बैक्टीरिया थोयोबेसिलस’ , ‘थायोआक्सीडेंस’ और ‘थायोबेसिलस फेरोआक्सीडेंस’ के साथ रखा जाए, तो कुछ तांबा, जस्ता और एल्युमीनियम 90 फीसद से अधिक निकाले जा सकते हैं। इसी प्रकार से कुछ फफूंदों की मदद से 65 फीसद तक तांबा और टिन अलग किए जा सकते हैं। इसके अलावा कचरे की छीलन की सांद्रता 100 ग्राम प्रति लीटर रखी जाए, तो यही फफूंदें एल्युमीनियम, निकल, सीसा और जस्ते में से भी 95 फीसद धातु को अलग करने में सक्षम होती हैं। ये सभी धातुएं ऐसी हैं, जिन्हें कायांतरण कर वस्तुओं के नए रूपों में बदला जा सकता है।

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इलेक्ट्रानिक उपकरणों के विशेषज्ञों का मानना है कि औसतन एक स्मार्टफोन में 30 मिलीग्राम सोना होता है। यह फोन के सर्किट बोर्ड और आंतरिक घटकों में होता है। ऐसे लाखों मोबाइल और कंप्यूटर का पुनर्चक्रण किया जाता है, जिनमें सोना होता है। साफ है, समस्या बने ई-कचरे को यदि पुनर्चक्रित करने के संयंत्र बड़ी संख्या में लगाए जाते हैं, तो बड़े पैमाने पर युवाओं को रोजगार तो मिलेगा ही, वहीं विकासशील और गरीब देश इस कचरे को नष्ट करने के झंझट से भी मुक्त हो जाएंगे। इसलिए इस कचरे को जो कंपनियां जिन देशों में ठिकाने लगा रही हैं, वहां इस कचरे के निस्तारण संबंधी जैविक उपाय उद्यम के रूप में बेरोजगारों को उपलब्ध करा दें, तो गरीब देशों के युवाओं को रोजगार तो उपलब्ध होगा ही, दुनिया भी प्रदूषण मुक्त बनी रहेगी।