दर्शन’ केवल एक शब्द नहीं है। इस शब्द का बड़ा विस्तार और चिंतन है, इसलिए ‘दर्शनशास्त्र’ की रचना हुई है। दुनिया में रहकर अपनी जिंदगी जीते हुए, रिश्तेदारी और जिम्मेदारी निभाते हुए भी अपने लिए समय निकालकर खुद से बात करना आवश्यक है। अपने विचारों का आधार ज्यादातर अपने परिवेश पर निर्भर है। उसी परिवेश में रहे लोगों से हटकर अपने आप को कुछ अलग प्रतिपादित करना भी है। अपने व्यवहार और सोच के माध्यम से जब हम लोगों के साथ चलते हुए भी कुछ अलग सोचते हैं, तब हमारा पूरा व्यक्तित्व निखरता है और लोग हमें सम्मान से देखने लगते हैं।

ज्ञान और प्रेम का जो संपुट बनता है, वहीं से दर्शन की शुरूआत होती है। साथ ही निरंतर ज्ञान प्राप्ति की इच्छा हमें नई राह दिखाती है। सर्व के प्रति समभाव के साथ हमारा अल्प ज्ञान धीरे-धीरे अनुभव और चिंतन से बढ़ता है, तब हमें ज्ञान का प्रकाश तेजस्वी बनाता है। आंतरिक शुद्धि जितनी होगी, उतने ही हम तेजस्वी बनेंगे। हमारे विचार, हमारी भाषा और हमारे व्यवहार में धैर्य व स्थिरता का अनुभव दूसरों को भी महसूस होगा। हम ‘दर्शन’ शब्द पर विचार करना शुरू करते हैं, तो एक पूर्वधारणा के मुताबिक हम यह अपेक्षा करने लगते हैं कि इसके भीतर उतरने से ही हमें ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है।

मानवीय जीवन से ऊपर उठकर तेजोमय दैवीय आनंद प्रदान करती है हमारी सोच

सच यह है कि ‘दर्शन’ हमें केवल ज्ञान नहीं देता, वह हमारे ही व्यक्तित्व का गहन निरीक्षण करता है, आलोचना करने की क्षमता देता है और इसी के कारण हमारा हर एक कदम संभलकर चलने की आदत डाल देता है। अपने ही विचार, ज्ञान और व्यवहार से हमारे अंदर प्रकृति लहलहाने लगती है। चेतना से संबंधित सुख का अनुभव कराती है। ‘दर्शन’ के अभ्यासी जब भी कोई बात करते हैं तो उसमें सत्य और तर्क का बड़ा संगम होता है। उसमें कलात्मक भावाभिव्यक्ति होती है। सहज-सरल संवाद होता है, जो अन्य व्यक्ति के मन को मोह लेता है, आकर्षित करता है। उन्हें संवाद रचने में सुकून और शांति का अनुभव होता है। उनके इस अनुभव का आनंद जब चेहरे पर छलकता है, तब हमें भी परम आनंद का सुख मिलता है।

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जैसे-जैसे हमारा जीवन निरामय और पवित्र बनता जाता है, वैसे-वैसे हमारे अंदर ऊर्जा का संचयन होता है। यहां ऊर्जा का अर्थ शारीरिक ताकत का नहीं है, बल्कि हमारे ज्ञान से है। ऐसा ज्ञान हमें क्रमश: आध्यात्मिक विचार प्रदान करता है। जब हम दुनियावी लौकिक और अलौकिक घटनाओं को अलग-अलग रूप में देख सकते हैं, उसे महसूस कर सहते हैं। यहीं से हमारी यात्रा अंतर्मन के साथ उड़ान भरती है। तब हमारी सोच मानवीय जीवन से ऊपर उठकर तेजोमय दैवीय आनंद प्रदान करती है। उसमें चमत्कार नहीं होता। हमें चमत्कार इसलिए लगता है कि हमने जो देखा नहीं, महसूस नहीं किया, वह हमारे सामने आ जाए, सुकून दे या परम आनंद की अनुभूति करवाए, तब हम उसे चमत्कार का नाम दे देते हैं। असल में इस ब्रह्मांड में वह सब तो अनादिकाल से था और हमें अभी अनुभव हुआ तो चमत्कार लगने लगा।

बाहरी जीवन में हमें जो मिल रहा है, वह दूसरों के माध्यम से मिलता है

समय के साथ हमारी अवस्था जैसे-जैसे आध्यात्मिक दर्शन करने के लिए परिपक्व बनने लगती है, तब हमारी दृष्टि में बदलाव आता है। समष्टि को देखने का नजरिया ही बदल जाता है, क्योंकि हमारे सारे मानवीय गुण-अवगुण से परे होकर दिव्य दृष्टि का द्वार खुलता है, जहां सिर्फ उजास है, आनंद है। प्रकृति चरम पर होती है, इसलिए सब कुछ दैदीप्यमान नजर आता है। यहां से हम ही अपने गुरु बन जाते हैं। जो अन्य में खोजता है, वह उनके लिए कभी पर्याप्त नहीं होता। ज्ञान पाने का माध्यम हम गुरु को बनाते हैं, मगर गुरु की भी कुछ मर्यादाएं होती है, क्योंकि उनकी सोच और परवरिश कुछ हद तक हमारे व्यक्तित्व पर छाप छोड़ देती है या यों कहें कि हम अंधे होकर उनका अनुसरण करने लगते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि हम अपना अस्तित्व उनके पास अमानत के तौर पर रख कर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं, जो अंत में सिर्फ कोशिश ही साबित होगी। हमारा अपना परिणाम प्राप्त नहीं होगा।

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दरअसल, ‘दर्शन’ का अर्थ ही है ज्ञान की खोज करना। बाहरी जीवन में हमें जो मिल रहा है, वह दूसरों के माध्यम से मिलता है। इसका अर्थ यह कि वह पहले से मौजूद है। उसके साथ कोई और भी है जो जुड़ा हुआ है। उसमें हमारा अपना कुछ भी नहीं है। इससे अच्छा है कि हम अपने आप को खुद ही में ढूंढ़ें, क्योंकि भीतर की खोज ही हमें वह सारा ज्ञान, ऊर्जा, पवित्रता और परम आनंद की अनुभूति दे सकती है। इन सारे गुणों का समन्वय जब हमारे अंदर प्रस्थापित हो जाएगा, उसकी आदत बन जाएगी, तब हमारा चेतना संबंधित मार्ग दिव्यता की ओर खुलता जाएगा, जहां हमें अपने ईश्वर की खोज है। संभव है, उस खोज के रास्ते में भी ईश्वर मिल जाए, मगर वह निराकार होगा। यह सब अहसास का मामला है कि हम क्या खोजते हैं, क्या महसूस करते हैं और इस आधार पर क्या तथा किसे पहचान पाते हैं। यह यात्रा निरंतरता की है। जब तक जीवन है, सब कुछ चलता रहेगा। उसमें केवल हम ही होंगे। जो मूर्त दिखता है, वह भी कब अमूर्त हो जाए और फिर भी हमें महसूस होता रहे, यही केवल ज्ञान और परम आनंद का ओजस्वी शिखर होगा।